उत्तराखंड का तेंदुआ-मानव संघर्ष इतना ख़तरनाक क्यों हुआ है ?

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- Author, अनंत प्रकाश
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
"वो 4 अक्टूबर, 2015 की शाम थी. मैं अपने 9 साल के बच्चे को लेकर घर से निकली ही थी कि तभी एक तेंदुए ने अचानक मेरे बच्चे पर झपट्टा मारा और उसे लेकर झाड़ियों में घुस गया. मैं तेंदुए के पीछे-पीछे भागी लेकिन तब तक तेंदुआ मेरे बच्चे को लेकर बहुत दूर निकल गया."
उत्तराखंड के पहाड़ों में बसे श्रीनगर ज़िले के फरासू गांव में रहने वाली प्रमिला देवी आज भी इस घटना को याद करके सहम जाती हैं.
कांपती हुई आवाज़ में बताती हैं, "मैंने पूरी ताकत लगा दी, लेकिन मैं अपने बाबू को नहीं बचा सकी."
उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों की ऊंची-नीची पगडंडियों पर चलते-चलते आपको ऐसी तमाम दर्दभरी दास्तान सुनने को मिलेंगी जो तेंदुओं के हमले से जुड़ी होती हैं.

ये एक ऐसी समस्या है जो उत्तराखंड के जीवन, जीविका और समाज को सीधे तौर पर प्रभावित करती है.
उत्तराखंड के गांवों में रहने वाले लोग तेंदुओं के आतंक की वजह से अपने गांव छोड़कर शहरी इलाकों में बसने लगे हैं.
इससे तेंदुओं के उत्तराखंड के शहरों तक पहुंच बेहद आसान हो गई है और ये संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है.
उत्तराखंड सरकार और केंद्रीय संस्थाएं इसके समाधान के लिए अच्छा ख़ासा धन खर्च कर चुकी हैं.
लेकिन इसके बावजूद समस्या का समाधान नहीं मिला बल्कि ये अपने विकराल रूप में पहुंचती हुई दिख रही है.


मानव-तेंदुआ संघर्ष शुरू कैसे हुआ?
उत्तराखंड वन विभाग से लेकर वन्य जीवन पर शोध करने वाले विशेषज्ञों के पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है.
हालांकि, मशहूर लेखक और शिकारी जिम कॉर्बेट ने अपनी किताब 'द मैन ईटर ऑफ़ रुद्रप्रयाग' में लिखा है कि 20वीं सदी में उत्तर भारत में हैज़ा और वॉर फीवर नाम की बीमारी फैलने की वजह से कई लोग मारे गए.
संक्रामक रोग की वजह से मरने के कारण ऐसी लाशों का अंतिम संस्कार पारंपरिक रीति से नहीं होता था.

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ऐसी लाशों के मुंह में एक जलता कोयला डालकर (शव को जलाने प्रक्रिया के प्रतीक के स्वरूप) उन्हें पहाड़ी से नीचे फेंक दिया जाता था.
इसके बाद जब ये शव खाई या जंगल में गिरते तो तेंदुए इनका मांस खा लेते, इस तरह इस जानवर के आदमखोर बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई.
कार्बेट लिखते हैं असल समस्या तब शुरू हुई जब संक्रामक बीमारी का असर कम होने लगा और जंगलों में पहुंचने वाले शवों की संख्या भी कम होने लगी.
तब तक आदमखोर बन चुके तेंदुओं ने जंगलों को छोड़कर पहाड़ी गांवों का रुख शुरू किया.


तेंदुआ-मानव संघर्ष शुरू क्यों होता है?
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें मांसाहारी जानवरों के इंसानों के साथ संघर्ष के इतिहास को समझना होगा.
जिम कॉर्बेट ने अपनी किताबों में उत्तर भारत में तेंदुए और मानव के बीच संघर्ष को विस्तार से बयां किया है.

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ये संघर्ष बिग कैट की श्रेणी में आने वाले मांसाहारी जानवरों को एक सूत्र में पिरोता है.
दरअसल, इन सभी जानवरों में आदमखोर होने की प्रक्रिया एक समान है.
जर्मन बायोलॉजिस्ट मेनफ्रेड वाल्ट अपने लेख 'थ्रो वुंड्स एंड ओल्ड ऐज़' (पेज़ नंबर 168) में द्वितीय विश्वयुद्ध की घटना का ज़िक्र करते हैं.
वो लिखते हैं कि इन जीवों के आहार से जुड़ी आदतों पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि बाढ़, तूफ़ान और युद्ध के दौरान मिली मानव लाशों के मिलने पर ये उन्हें खा लेते हैं.

आदमखोर बने जानवर जानबूझकर इंसानों पर हमला करने लगते हैं.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर की घटना का उल्लेख करते हुए वो समझाते हैं, "द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 के जनवरी महीने में लगभग एक लाख भारतीयों को बर्मा से भारत लाया जा रहा था तो करीब चार हज़ार भारतीय जंगल और दुर्गम पहाड़ी रास्तों की वजह से तौंगुप दर्रे में ही मर गए."
"इस इलाके के बाघ इन लोगों की लाशें खाकर आदमखोर हो गए. इस बात का पता तब चला जब फ़रवरी 1946 में अमरीकी सेना की पश्चिमी अफ़्रीकी सैनिकों वाली 14 सैन्य टुकड़ियों ने तौंगुप पास से होकर ही बर्मा में प्रवेश किया. जंगल में मौजूद बाघों ने सैनिकों पर हमला बोल दिया."

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"ये घटना कोई अपवाद नहीं है. ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मानव और बिग कैट के बीच संघर्ष के ऐसे मामले देखने को मिले. समस्या का मॉडल वही है जो कॉर्बेट ने बताया था, बस घटनाओं के साल और जगह के नाम बदल जाते हैं."
कॉर्बेट और वाल्ट जैसे कई विशेषज्ञ इस विषय पर शोध करने के बाद इस नतीज़े पर पहुंचे कि इन मांसाहारी जानवरों के लिए बड़ी संख्या में इंसानी लाशों की उपलब्धता इनके आदमख़ोर होने की बड़ी वजह के रूप में सामने आती है.

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लेकिन वन्यजीवों के हितों की बात करने वाले लोग इसके उलट वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि जब मानव ने जानवरों के प्राकृतिक आवास में अतिक्रमण शुरू किया तब मानव और जानवरों के बीच संघर्ष शुरू हुआ.
वैसे, टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट में वाइल्डलाइफ़ एक्टिविस्ट एजी अंसारी कहते हैं कि उत्तराखंड में आदमखोर जानवरों की संख्या बढ़ने की वजह शिकार की कमी और जंगलों का दोहन भी है.


शिकार की कमी आदमखोर बनाती है?
इन सब बातों के बीच वरिष्ठ पत्रकार और मानव-तेंदुआ संघर्ष पर कई सालों से रिपोर्टिंग कर रहे अरविंद मुद्गल एक और वजह की तरफ हमारा ध्यान ले जाते हैं.
वो कहते हैं, "कुछ लोग ये कहते हैं कि उत्तराखंड से जंगल ख़त्म हो रहे हैं. ये बात ग़लत है. बीते कई सालों से उत्तराखंड में पलायन का दौर जारी है. इसकी वजह से पहाड़ों में खेती करने वाले लोग अपने खेत छोड़कर शहरों की ओर बढ़ रहे हैं."
"पहाड़ी खेतों के खाली होने की वजह से वहां नया जंगल बन रहा है जिसे सैकेंडरी जंगल कहते हैं. ऐसे में तेंदुओं के आदमखोर होने के लिए जंगलों के दोहन को दोष कैसे दिया जा सकता है. इसके साथ ही शिकार किए जाने वाले जानवरों की संख्या में भी कमी नहीं हुई है. फिर, इस बात का क्या मतलब है."

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ऐसे में सवाल उठता है कि शिकार में कमी नहीं होने की स्थिति में भी तेंदुआ इंसान को अपना शिकार क्यों बनाता है.
भारतीय वन्य जीव संस्थान से जुड़े शोधार्थी डॉ. दीपांजन नाहा इसकी एक दिलचस्प वजह बताते हैं.
वो कहते हैं, "तेंदुआ एक स्केवेंजर प्राणी है जो मांस के ऊपर निर्भर रहता है. वो जानवरों का शिकार करता है. अगर उसे आसानी से शिकार मिले तो वह उसे ही तरजीह देता है."
विशेषज्ञ ये भी बताते हैं कि मांसाहारी जानवरों में इंसानों का मांस खाने की आदत पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार बढ़ती जाती है.

इस बात को आसान शब्दों में कुछ यूं समझा जा सकता है.
अगर एक आदमखोर मादा तेंदुआ इंसान का शिकार करती है तो उसके बच्चे भी उस शिकार का सेवन करते हैं.
ऐसे में इन बच्चों की ज़ुबान को शुरुआत में ही इंसानी ख़ून का स्वाद मिल जाता है.

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इसके बाद जब ये बच्चे बड़े होते हैं तो ये इंसान के मांस को ही तरजीह देते हैं. इंसान का शिकार किसी जानवर के शिकार की अपेक्षा ज्यादा आसान होता है तो मानव और तेंदुए का संघर्ष बढ़ता जाता है.
तेंदुओं के इस व्यवहार पर डॉ. नाहा बताते हैं, "अगर एक मादा तेंदुआ इंसान का शिकार करती है तो आसान शिकार हासिल करने की ये तरकीब उसके बच्चों में भी जाएगी. अंग्रेजी में इसे लर्नेड बिहेवियर कहते हैं. और ये सिर्फ तेंदुओं ही नहीं दूसरे मांसाहारी जानवरों में भी पाया जाता है."


समस्या गंभीर कैसे हुई?
बीते कई सालों के आंकड़े देखें तो उत्तराखंड में तेंदुओं और इंसानों के बीच संघर्ष कम होने की जगह एक बड़ा रूप लेता दिखता है.
राजाजी नेशनल पार्क के रेंज ऑफ़िसर विकास रावत के मुताबिक़, राजाजी नेशनल पार्क की मोतीचूर-रायवाला रेंज में शिकार की कोई कमी नहीं है, सांभर और जंगली सुअर जैसे जंगली जानवर यहां अच्छी ख़ासी संख्या में मौजूद हैं.
लेकिन इसके बावजूद बीते चार सालों में इस रेंज में लगभग 22 लोग आदमखोर तेंदुए के शिकार हुए हैं.

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मध्य भारत में तेंदुओं के ईटिंग बिहेवियर पर शोध करने वाले विशेषज्ञ अद्वेत एदगांवकर इसे एक चौंकाने वाला आंकड़ा बताते हैं.
वो कहते हैं, "ये सोचने वाली बात है कि मानव संघर्ष का आंकड़ा इतना ज़्यादा है. आमतौर पर अगर कभी टाइगर या तेंदुए का इंसानों के साथ साबका पड़ जाता है तो वह मार ज़रूर देता है लेकिन उसे खाता नहीं है."
विकास रावत इस संघर्ष को विस्तार से समझाते हैं, "राजाजी नेशनल पार्क की रायवाला रेंज में साल 2014 के बाद से लगातार इंसानों पर तेंदुओं के हमले की घटनाएं सामने आ रही हैं. आधिकारिक रूप से ये आंकड़ा 19 लोगों की मौत का है. हमारी रेंज में ही 19 किलिंग हैं, साथ की चीला रेंज में भी एक किलिंग हुई है."

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"पिछले तीन महीनों में पांच किलिंग हुई हैं. ख़ास बात ये है कि जिन जगहों पर ये घटनाएं हुई हैं वो एक दूसरे से ज़्यादा दूर नहीं हैं. 2014 में ही हमने लगभग 50 कैमरे लगाकर तेंदुओं की मूवमेंट को समझना शुरू किया."
उत्तराखंड में तेंदुओं के खतरनाक होने के पीछे एक वजह साल 2013 में आई बाढ़ भी मानी जाती है.
इस बाढ़ से राजाजी नेशनल पार्क का बहुत बड़ा हिस्सा प्रभावित हुआ था.

बाढ़ में मरने वालों की लाशें केदारनाथ से बहते हुए ऋषिकेश और रुड़की तक पहुंच गई थीं. कई लाशों के जंगल में फंसने और उन्हें तेंदुओं के खाने की आशंका भी जताई गई.
अब हमारे सामने सवाल है कि इस समस्या का समाधान कैसे निकाला जाता है. हम जब इसकी पड़ताल करने लगे तो हमने पाया कि असल में समाधान के भीतर ही समस्याएं छिपी बैठी हैं.
उत्तराखंड में तेंदुए के मानव बस्ती में आने पर वन विभाग कुछ इस तरह काम करता है.
स्टेप 1 - वन विभाग को तेंदुए के हमले की सूचना मिलती है.
स्टेप 2 - वन विभाग आदमखोर तेंदुए की तलाश करना शुरू करता है.
स्टेप 3 - वन विभाग कैमरा ट्रैप की मदद से ये तय करता है कि उनके क्षेत्र का कौन सा तेंदुआ सक्रिय रूप से इंसानों को अपना शिकार बना रहा है.
लेकिन इन तीन चुनौतीपूर्ण चरणों के बाद ही वन विभाग के सामने असली चुनौती आती है.

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आदमखोर तेंदुए की पहचान करने के बाद वन विभाग तेंदुओं को बेहोश करके पिंजड़े में कैद करने की कोशिश करते हैं. ताकि तेंदुओं को रेस्क्यू सेंटर पहुंचाया जा सके.
लेकिन अगर उत्तराखंड के रेस्क्यू सेंटर की बात की जाए तो राज्य के तीन रेस्क्यू सेंटर में क्षमता से ज़्यादा तेंदुए मौजूद हैं.

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वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मुद्गल कहते हैं, "वन विभाग बड़ी मशक्कत के बाद तेंदुओं को पकड़कर पिंजड़ों में बंद करता है. लेकिन इसके बाद उस तेंदुए को संघर्ष की जगह से दूर ले जाने की मशक्कत शुरू होती है."
"उत्तराखंड में आदमखोर तेंदुओं के लिए रेस्क्यू सेंटर्स बनाए गए हैं जिनमें से चिड़ियापुर सेंटर को साल 2010 में शुरू किया गया था. लेकिन इन सेंटर में तेंदुओं की आबादी सीमा से ज़्यादा होने की वजह से वन विभाग को उन्हें रिलोकेट करने पर मजबूर होना पड़ता है."
संदिग्ध आदमखोर तेंदुओं को रिलोकेट करने पर ये समस्या एक नए रूप में हमारे सामने आती है.


स्वभाव में बदलाव क्यों और कैसे आया?

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किसी भी तेंदुए को आदमखोर होने के शक़ के आधार पर रिलोकेट करने के बाद वो तेंदुआ एक ऐसी जगह पहुंच जाता है जिसके बारे में उसे बिलकुल भी जानकारी नहीं होती.
ऐसे में इस स्थानांतरित किए गए तेंदुए को अपना पेट भरने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है जिसकी परिणति उसके आदमखोर बनने के रूप में होती है.

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रेंज ऑफिसर विकास रावत बताते हैं, " तेंदुओं के बारे में एक ख़ास बात ये है कि वो अपने शिक़ार को एक बार में पूरा नहीं खाते हैं, बल्कि उसे पेड़ों पर ले जाकर तीन चार दिनों के अंतराल में खाते हैं.''
तेंदुए के पीछे वाले पैर मजबूत होते हैं जिससे वो अपने शिकार को पेड़ पर आसानी से चढ़ा लेता है. लेकिन हम जो देख रहे हैं वो अपने आप में आश्चर्यजनक है.
रावत बताते हैं, "हम यहां तेंदुओं का बदलता हुआ व्यवहार देख रहे हैं. वे अब अपने शिकार को सिर्फ एक बार में ही खाकर छोड़ देते हैं. यही नहीं, अक्सर ये देखा गया है कि किसी किलिंग के बाद मृत शरीर से एक रात में 25 से 30 किलोग्राम मांस खाया जा चुका होता है. किसी एक तेंदुए का एक सिटिंग यानी एक बार में 25 किलोग्राम मांस खाना संभव नहीं है."
"हमारे पास सूचना है कि एक ही किलिंग को कई तेंदुए खा रहे हैं. ऐसे में किसी एक तेंदुए को आदमखोर सिद्ध करना एक बड़ा चुनौतीपूर्ण काम है. क्योंकि अगर इंसानों का मांस खाना एक साझा और सहज व्यवहार हो जाता है तो अब तक की सारी रिसर्च फिज़ूल साबित हो जाएगी. हमारे पास इस समस्या का सामना करने के लिए कोई विचार तक नहीं है."

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कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अक्सर लोग मारे गए जानवर जैसे कि गाय-भैंस में कीटनाशक डाल देते हैं जिसे खाकर तेंदुए शिकार से थोड़ी दूर चलकर मर जाते हैं.
ये संभव है कि लगातार कई बार इसका सामना करने के बाद तेंदुओं के व्यवहार में परिवर्तन हुआ हो लेकिन इसके पुख़्ता प्रमाण मौजूद नहीं हैं.
तेंदुओं के बदलते व्यवहार को समझाते हुए रावत कहते हैं, "कैमरा ट्रैप करके किसी तेंदुए को पकड़ना भी एक चुनौतीपूर्ण काम है. क्योंकि अब हम ये देख रहे हैं कि तेंदुए अपनी टैरिटरी में लगे हुए कैमरों के सामने से नहीं गुज़रते हैं. वे पेड़ के पीछे से गुज़र जाते हैं. लेकिन कैमरे के सामने नहीं आते हैं."


समस्या का असली ज़िम्मेदार कौन?
अद्वेत एदगांवकर मानते हैं, "इस समस्या की जड़ में नीतियों का पालन नहीं किया जाना शामिल है. केंद्र सरकार की गाइडलाइन है कि किसी भी संदिग्ध आदमखोर तेंदुए को उसकी टैरिटरी से उठाकर कहीं और न छोड़ा जाए."

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"क्योंकि ऐसा होने पर तेंदुए वापस अपनी टैरिटरी में पहुंच जाते हैं. लेकिन राज्य इस नियम को मानने को तैयार नहीं हैं. लेकिन इसके लिए वन विभाग को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि ये स्थिति बहुत ग्रे शेड वाली है."
अब सवाल है कि दिन प्रतिदिन अपना रूप बदलती हुई समस्या के लिए ज़िम्मेदार कौन है.
डॉक्टर दीपांजन नाहा इसके लिए नीति निर्माताओं को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
वो कहते हैं, "तेंदुआ-मानव संघर्ष के मुद्दे पर जब समस्या खड़ी हो जाती है तब उसका समाधान खोजा जाता है, यानी सिर्फ पैचवर्क किया जाता है. वन्य जीव संरक्षण के तहत किसी तेंदुए को रिलोकेट नहीं किया जाना चाहिए.''

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''लेकिन उत्तराखंड ही नहीं देश भर में कई जगह किसी जानवर के आदमखोर होने के बाद उसे उसके क्षेत्र से उठाकर दूसरी जगह रिलोकेट किया जाता है. जो कि एक ख़तरनाक प्रक्रिया है. तेंदुआ एक क्षेत्रीय जानवर है और एक क्षेत्र से किसी जानवर को उठाने पर दूसरा जानवर उसका क्षेत्र हथिया लेता है. इससे समस्या पहले से ज़्यादा बड़ी हो जाती है.''


अब समाधान क्या है?
उत्तराखंड के जंगलों में पूरे पांच दिन बिताने और तेंदुए-मानव संघर्ष से जुड़े हर एक पहलू को टटोलने के बाद भी इस समस्या के समाधान का ठीक ठाक जवाब हमें नहीं मिल सका.
एक तरफ वन्य जीव संरक्षक इसके लिए वन विभाग को दोषी ठहराते हैं.

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वहीं वन विभाग के मुताबिक़, ऐसी स्थिति पैदा होने पर उन्हें मीडिया से लेकर, सिविल सोसाइटी और स्थानीय नागरिकों के गुस्से का सामना करना पड़ता है.
इसमें आदमखोर जानवरों को शिकारियों की मदद लेकर मार दिया जाना शामिल है.
हालांकि, डॉ. नाहा बताते हैं कि भारतीय वन्य जीव संस्थान अपने स्तर पर गांववालों के बीच तेंदुओं को लेकर समझ विकसित करने की कोशिशों के साथ-साथ तकनीकी मदद मुहैया कराकर इस समस्या के समाधान की दिशा में काम कर रहा है

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लेकिन समस्या के बदलते स्वरूप पर अब तक किसी तरह की पुख़्ता जानकारी, तेंदुओं की संख्या को लेकर आंकड़ों और सभी पक्षों के बीच समन्वय की कमी है.
ऐसे में इस समस्या के समाधान के लिए एक मॉडल की तलाश ज़रूरी है जिसमें जानवर और इंसान के एक ही वातावरण में समन्वय के साथ एक साथ रह सकें.
उत्तराखंड के पहाड़ों से मौदान की ओर लौटते हुए हमारी आंखों के सामने प्रमिला देवी और उनकी जैसी तमाम दूसरी महिलाओं के आंसू और बातें जहन में आ रही थीं जिसमें वो हमारी ओर एक उम्मीद भरी नज़र से देख रही थी कि इस समस्या का समाधान किसी दिन तो निकलेगा.
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