नीतीश कुमार की सियासी मुश्किलों का हल निकाल पाएंगे प्रशांत किशोर?

प्रशांत किशोर और नीतीश कुमार

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    • Author, प्रदीप कुमार
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

इसी सोमवार को प्रशांत किशोर इंडियन स्कूल ऑफ़, हैदराबाद के छात्रों से संवाद कर रहे थे. अमूमन जींस और टीशर्ट में नज़र आने वाले प्रशांत इस मौक़े पर सफेद पायजामा-कुर्ता में थे.

राजनेताओं वाली वेषभूषा में उन्होंने छात्रों के बीच ये भी कहा कि 2019 में वे किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनाव प्रबंधन का काम नहीं करेंगे, बल्कि सीधे जनता के बीच जाकर काम करेंगे. उन्होंने ये भी कहा था कि ये काम वे या तो गुजरात या फिर बिहार में करेंगे.

इस वाक़ये से ज़ाहिर है कि प्रशांत किशोर जिस अंदाज़ में जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए हैं, उसकी भूमिका पहले से ही बन रही थी.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी पार्टी का भविष्य बताया है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि एक तरह से नीतीश ने संकेत दे दिया है कि वे पार्टी का अगला नेतृत्व प्रशांत किशोर में देख रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या प्रशांत किशोर के रूप में मिला 'जादुई ताबीज़' नीतीश कुमार के राजनीतिक दर्द का इलाज ढूंढ पाएगा.

नीतीश कुमार इस समय भले राज्य के मुख्यमंत्री हों लेकिन बिहार में जिस तरह के सियासी समीकरण बन रहे हैं, उनमें ज़मीन पर वे पहले के मुक़ाबले काफ़ी कमज़ोर दिख रहे हैं.

प्रशांत किशोर

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20 महीने तक महागठबंधन की सरकार का नेतृत्व करने के बाद पाला बदलते हुए उन्होंने जिस तरह से बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई, उससे राज्य की राजनीति में उनका पहले जैसा 'नैतिक इक़बाल' नहीं रहा.

नीतीश की राजनीति में नैतिकता का महत्व उनके अपने वोट बैंक से कहीं ज़्यादा का था, उनकी राजनीतिक पलटबाज़ी के बाद महादलितों का बड़ा वोट बैंक भी उन्हें संदेह की नज़र से देख सकता है. ये बतौर राजनेता नीतीश कुमार के लिए समझना बहुत ज़्यादा मुश्किल भी नहीं है. ऐसे में प्रशांत किशोर पर उनका भरोसा क्या उनकी राजनीति के लिए मुफ़ीद साबित होगा.

नीतीश कुमार और अमित शाह

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पीके के आने से क्या होंगे लाभ

इस पर समग्रता से विचार करने से पहले प्रशांत किशोर को पार्टी में शामिल करने के संभावित फ़ायदे गिन लीजिए.

पहला फ़ायदा तो यही होगा कि नीतीश कुमार, बिहार की राजनीति में तेज़ी से पैर जमा रहे तेजस्वी के सामने एक वैकल्पिक चेहरे के तौर पर प्रशांत किशोर को पेश करेंगे. प्रशांत किशोर अपनी इस छवि को चमकाने के लिए वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन के लिए किए गए अपने कामों का हवाला दे सकते हैं और ख़ुद को नतीजे देने वाला बताने के लिए चुनावी प्रबंधन के कामों को याद दिलाएंगे. उनकी इन कोशिश में 'सवर्णवादी मीडिया' का साथ भी उनको मिल सकता है.

नरेंद्र मोदी से अपनी निकटता के चलते वे नीतीश कुमार की बात को मोदी कैंप तक आसानी से पहुंचा भी पाएंगे, जिससे बिहार में सीटों के बंटवारे के दौरान जनता दल यूनाइटेड सम्मानजनक मोलभाव कर सके.

ये सब तो होगा लेकिन नीतीश कुमार की मूल राजनीति ये नहीं रही है. वे बिहार की राजनीति में अगर एक पावर फैक्टर के तौर पर लंबे समय तक शासन करने में कामयाब रहे तो इसके पीछे उस बुनियाद को समझना होगा, जिसके बूते नीतीश राजनीतिक तौर पर मज़बूत बने रहे.

ये बात शुरू होती है 2004 से, शाइनिंग इंडिया वाला आम चुनाव नीतीश भूले नहीं होंगे, जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार चुनाव हार गई थी. बिहार में लालू प्रसाद के नेतृत्व में राजद-कांग्रेस-लोजपा गठबंधन 29 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी और चर्चा रही कि नीतीश कुमार अपने नज़दीकी लोगों के बीच कहने लगे थे कि बिहार की राजनीति में उनके लिए स्पेस नहीं रह गया है.

लेकिन कुछ ज़मीनी कार्यकर्ताओं के सुझाव पर 2005 में उन्होंने डरते-डरते ही सही महादलित (दलितों में सबसे पिछड़ों) को साथ लाने की कोशिश की थी और उनका प्रयोग ख़ासा कामयाब रहा. महादलितों और लव-कुश (कोइरी और कुर्मी समीकरण को लव-कुश जैसी जोड़ी कहा जाता है) वाले उनके अपने समाज के गठजोड़ ने नीतीश की राजनीतिक करियर को एक नया आसमान दे दिया.

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नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी

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नीतीश कुमार प्रशांत किशोर को मानते करिश्माई

उस दौर में उनके साथी रहे और जनता दल यूनाइटेड के पूर्व नेता प्रेम कुमार मणि बताते हैं, "तब नीतीश कहते थे कि पिछड़ा और अल्पसंख्यक लालू जी के साथ है और सवर्ण बीजेपी के साथ, मैं अब क्या राजनीति कर पाऊंगा. लेकिन महादलित के वोट बैंक ने उनकी राजनीति को संजीवनी दे दी, हालांकि उस वक्त इसकी सलाह देने वालों को नीतीश कब का भूल चुके हैं."

इस दौरान भारतीय जनता पार्टी ने भी राजनीतिक तौर पर लालू प्रसाद यादव को सत्ता से बाहर रखने के लिए नीतीश कुमार को स्थापित करने पर पूरा ज़ोर लगा दिया. दोनों के रास्ते जब 2013 में अलग हुए तब 2014 में नीतीश कुमार ने लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ा और महज़ दो सीटों पर सिमट गए.

नीतीश इस नतीजे से इतने डिस्टर्ब हुए कि उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से अपना इस्तीफ़ा तक दे दिया और जिस लालू प्रसाद को कोस-कोस कर अपनी राजनीति चमकाते रहे, उनके घर पहुंच गए. लालू प्रसाद के लिए भी राजनीतिक मुश्किलों का दौर जारी था लिहाज़ा दोनों जब एक साथ हुए तो बिहार में महागठबंधन को भारी बहुमत मिला.

कहा जाता है कि बिहार में किसी बच्चे से भी पूछेंगे तो वह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के एक साथ होने के राजनीतिक ताक़त के मायने आपको समझा देगा. लेकिन नीतीश कुमार उस जीत का श्रेय प्रशांत किशोर को देते आए हैं.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नीतीश के अवचेतन में ये बात धंसी हुई है कि 2015 की चुनावी जीत प्रशांत किशोर के करिश्मे से मिली थी, उनके अपने दिमाग में ये बात ना भी धंसी हुई हो तो अब वे लालू-तेजस्वी कैंप को प्रशांत किशोर को सामने रखकर यही संदेश देना चाहेंगे.

प्रशांत किशोर और नीतीश कुमार

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जाति का कैसा होगा असर

प्रशांत किशोर अगर पिछड़े या दलित समुदाय से आते तब तो बिहार की जनता के बीच नीतीश उनका इस्तेमाल ट्रंप कार्ड के तौर पर ज़रूर कर पाते, लेकिन बक्सर के ब्राह्मण परिवार के प्रशांत किशोर महादलित राजनीति का चेहरा बन पाएंगे, ये बात दावे से नहीं कही जा सकती. ख़ासकर उस राजनीति में जहां जातिगत गणित से ही आपकी संभावना बनती-बिगड़ती है.

बात जब पक्ष में नहीं हो तो प्रशांत किशोर क्या कुछ करिश्मा कर सकते हैं, ये लोगों ने 'यूपी में लड़कों का साथ पसंद नहीं आने वाले' चुनाव में देखा ही है, जहां वे नाकाम हो गए थे. हालांकि, ये बात भी सही है कि चुनावी प्रबंधन में वे बीजेपी, कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड, राजद, और वाईएसआर कांग्रेस के साथ काम कर चुके हैं. लेकिन 2014 में बीजेपी को जीत दिलाने की बात हो या फिर महागठबंधन को बिहार में 2015 में जीत दिलाने का करिश्मा रहा हो, ये केवल मैनेजमेंट के ज़रिए नहीं हुआ था,

इन परिणामों के ज़मीनी आधार रहे थे. ऐसे में ज़ाहिर है कि प्रशांत किशोर भी छह साल के अस्थिर मैनेजमेंट के दौर से निकल कर अब स्थिर प्रबंधन की राह पर चल पड़े हैं.

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प्रशांत किशोर

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कहां से लड़ेंगे चुनाव

बहरहाल, चर्चा है कि प्रशांत किशोर अब बक्सर से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं, फिलहाल ये सीट भारतीय जनता पार्टी के पास है और यहां से अश्विनी कुमार चौबे सांसद हैं. नीतीश की जिद पर अगर बीजेपी ये सीट छोड़ भी दे और अश्विनी कुमार चौबे भागलपुर से चुनाव लड़ें तो भी यहां से प्रशांत किशोर आसानी से चुनाव जीत जाएंगे, ये दावा उनके समर्थक भी नहीं कर रहे हैं.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि प्रशांत किशोर को लाने से नीतीश कुमार को क्या फ़ायदा होने वाला है. इस सवाल के जवाब में प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "नीतीश जी को भरोसा है कि प्रशांत किशोर का चमत्कार उनकी डूबती नाव को बचा लेगा. वे जब-जब मुसीबत में होते हैं देवताओं पर उनका भरोसा बढ़ जाता है."

वैसे मणि ये भी कहते हैं, "नीतीश जी जैसे पॉलिटिकल लीडर का बेहद नॉन पॉलिटिकल फ़ैसला साबित होने वाला है."

संभवत यही वजह है कि प्रशांत किशोर की जनता दल यूनाइटेड में जुड़ने को बिहार के राजनीतिक दल बहुत ज़्यादा तूल नहीं दे रहे हैं.

प्रशांत किशोर के जनता दल यूनाइटेड से जुड़ने पर बीजेपी के साथ रिश्तों पर क्या असर होगा, ये पूछे जाने बिहार भाजपा प्रवक्ता निखिल आनन्द ने कहा, " यह लोकतंत्र है, कोई भी राजनीति कर सकता है, कोई पार्टी ज्वाइन कर सकता है और यह उस पार्टी का अपना अन्दरूनी मामला है."

वहीं एक निजी चैनल के प्रोग्राम में राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने प्रशांत किशोर से जुड़े सवाल पर कोई कोई भी राजनीति में आ सकता है, 'उससे फर्क क्या पड़ता है.'

वैसे एक बात तो तय है कि पॉलिटिक्स और पॉलिटिकल मैनेजमेंट दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं और ये बात नीतीश कुमार भले नहीं जानते हों, प्रशांत किशोर से बेहतर इसे कौन जानता होगा.

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