बाकियों की तुलना में दलित स्त्रियां जल्दी क्यों मर जाती हैं

इमेज स्रोत, Getty Images
- Author, सुभाष गाताडे
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार
संविधान लागू होने के 68 साल बाद जब जाति, लिंग, नस्ल आदि आधारित हर किस्म के भेदभाव से मुक्ति का संकल्प लिया गया था और उसके लिए क़ानून भी बने थे. चंद ख़बरें ऐसी आती हैं जो उजागर करती हैं कि हम वहीं क़दमताल कर रहे हैं. चीजें बदस्तूर वैसी ही चल रही हैं.
भुखमरी से देश के अलग-अलग भागों में होने वाली मौतों पर ख़बरें आना अभी जारी ही था कि ख़बर आई है कि देश में दलित स्त्रियां ग़ैरदलित स्त्रियों की तुलना में जल्दी मरती हैं.
युनाइटेड नेशन्स वूमन की तरफ़ से जारी यह रिपोर्ट 'टर्निंग प्रॉमिसेस इन्टू एक्शन: जेण्डर इक्वैलिटी इन द 2030 एजेण्डा' के मुताबिक़ भारत की औसत दलित स्त्री उच्च जातियों की महिलाओं की तुलना में 14.6 साल पहले कालकवलित होती है.

इमेज स्रोत, AFP/Getty Images
कहा जा रहा है कि 'सैनिटेशन की ख़राब स्थिति और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते, जिसकी अधिक मार दलित स्त्रियों पर पड़ती है, उनकी जीवनरेखा कमज़ोर पड़ती है.'
पीछे छूटती चली जाती हैं महिलाएं
रिपोर्ट के मुताबिक 'समाज में अक्सर सबसे पीछे महिलाएं और लड़कियां छूटती है जिन्हें लिंग तथा अन्य असमानताओं के आधार पर विविध किस्म की प्रतिकूल परिस्थितियां झेलनी पड़ती हैं. इसकी परिणति उनकी सामूहिक वंचना में होती है जहां हम देख सकते हैं कि उन्हें एक साथ गुणवत्ता वाली शिक्षा, सम्मानजनक काम, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं तक सुगमता के मामले में नुकसान उठाना पड़ता है.'
विडम्बना ही है कि यह विस्फोटक ख़बर, जिसका ताल्लुक देश की लगभग 17 फ़ीसदी आबादी से है, वह कुछ भी हलचल पैदा नहीं कर सकी. बात आई गई हो गई.

इमेज स्रोत, European Photopress Agency
एक स्तर पर यह रिपोर्ट जहां संविधान में अनुसूचित तबकों के लिए किए गए वायदे और शामिल किए गए विभिन्न प्रावधानों (ताकि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर किया जा सके) तथा वास्तविक ज़मीनी हालात के बढ़ते अंतराल को उजागर कर रही थी. इसकी तरफ़ पिछले साल जारी हुई सामाजिक-आर्थिक और जाति गणना की रिपोर्ट-2011 ने भी इशारा किया था. इससे पता चलता है कि किस तरह आज भी अनुसूचित तबके के लोग निम्न आय और कम अवसरों की मार झेलते हैं.
और अब यूएन वूमन की यह रिपोर्ट बता रही है कि अनुसूचित तबकों में भी सब समरूप नहीं हैं, वहां स्त्रियों की हालत अधिक ख़राब है. कहने का तात्पर्य यह है कि समाज के विभिन्न तबकों में गहराई में जड़ जमाकर बैठी पितृसत्ता का असर उत्पीड़ित तबकों में भी साफ़ नज़र आता है.
अनुसूचित तबकों की स्त्रियों पर दोहरा बोझ
निश्चित ही दलित स्त्रियों की अधिक दोयम स्थिति को लेकर इसके पहले भी कई बार बात हुई है.
अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण के लिए बनी संसदीय समिति ने भी अपनी चौथी रिपोर्ट में साफ लिखा था कि 'अनुसूचित तबकों की स्त्रियों को दोहरा बोझ झेलना पड़ता है. वे जाति और जेंडर के आधार पर शोषित होती हैं और यौन शोषण के सामने बेबस हैं.'

इमेज स्रोत, Getty Images
इंटरनेशनल दलित सॉलिडैरिटी नेटवर्क ने दलित स्त्रियों को झेलनी पड़ रही हिंसा को नौ हिस्सों में बांटा था, जिनमें से छह उनकी जाति आधारित पहचान के चलते होती हैं और तीन जेण्डर की पहचान के चलते. जाति के नाम पर उन्हें यौन हिंसा, गाली गलौच, मारपीट, हमलों का शिकार होना पड़ता है तो जेण्डर के चलते उन्हें कन्या भ्रूण हत्या, जल्दी शादी के चलते बाल यौन अत्याचार और घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है.
अगर गहराई में जाएं तो हम देख सकते हैं कि समाज में लगभग अदृश्य नागरिक की स्थिति में डाल दी गई दलित स्त्रियों के साथ भेदभाव विभिन्न स्तरों पर चलता है:
- परिवारों की सहायता करने के लिए श्रम बाज़ार या लेबर मार्केट में जल्द पहुंचने की मजबूरी .
- आम तौर पर लांछन वाले एवं दासोचित, हल्के रोज़गार का मिलना. मिसाल के तौर पर हाथ से मल उठाने के 'व्यवसाय' में, जिसकी समाप्ति के लिए केन्द्र सरकार दो-दो बार क़ानून बना चुकी है. इसमें लगभग 7-8 लाख लोग आज भी काम करते हैं जिनमें से 95 फ़ीसदी महिलाएं हैं. अर्थात बेहतर नौकरियों से तथा शिक्षा के अच्छे अवसरों से आम तौर पर वंचित.
- घरेलू हिंसा के मामलों में शीर्ष पर 24.6 फ़ीसदी दलित महिलाएं विगत 12 महीनों में हिंसा की शिकार, जबकि अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़ा 18.9 फ़ीसदी है. पिछड़ी जातियों के सन्दर्भ में 21.1 फ़ीसदी जबकि अन्य की श्रेणी में शामिल जिसमें सवर्ण हिन्दुओं की तादाद वहां 12.8 फ़ीसदी.
- नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो- 2016 के मुताबिक दलितों के ख़िलाफ़ जितने अपराध दर्ज होते हैं, उनमें ज़्यादातर दलित स्त्रियों के ख़िलाफ़ होते हैं.
ज़ाहिर है कि इन तमाम सुनियोजित प्रक्रियाओं का समग्र असर यही होता है कि सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य से वह लगभग बाहर कर दी जाती हैं, जो उन्हें अदृश्य नागरिक के तौर पर समाज की निचली सतह तक सीमित कर देता है.
हल क्या है?
प्रश्न उठता है कि इस स्थिति को सम्बोधित करने के लिए किया क्या जाए? यह समझना होगा कि भारत में स्त्रियों को 'सिंगल'इकाई नहीं समझा जाता. जाति जेण्डर की इंटरसेक्शनैलिटी यानी उनका आपसी अन्तर्गुंथन समाज में किसी की स्थिति को निर्धारित करता है और भारत में जातियों के बीच गोत्र विवाहों की जो परम्परा चली आ रही है, उसके आधार पर समाज में व्यक्ति का ओहदा तय होता है.

इमेज स्रोत, AFP/Getty Images
इस परिस्थिति में दो रास्ते तय करने होंगे.
एक रास्ता सामाजिक आन्दोलन का होगा, जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के हमारे संघर्ष के समानान्तर स्त्रियों की दोयम स्थिति को दूर करने के लिए भी कदम बढ़ाने होंगे.
दूसरा रास्ता, विभिन्न राष्ट्र राज्यों या संयुक्त राष्ट्र को ख़ुद को अपनाना होगा. 2030 का संयुक्त राष्ट्र का जो एजेण्डा है और जिसके तहत प्रस्तुत रिपोर्ट को तैयार किया गया है, वो कहता है कि 'लीव नो वन बिहाइंड' अर्थात किसी को पीछे न छोड़ो. इसका मतलब यह है कि 'जो सबसे अधिक हाशिये पर है, ऐसे लोग जो सामाजिक, राजनीतिक, पर्यावरण और आर्थिक तौर पर सबसे अधिक हाशिये पर हैं, उनकी ज़रूरतों को पहले संबोधित करो.'
और क्या यह काम मौजूदा आर्थिक मॉडल को चुनौती दिए बिना मुमकिन हो सकता है, जिसकी तरफ़ प्रस्तुत रिपोर्ट में ही विस्तार से लिखा गया है? रिपोर्ट दरअसल यह भी स्पष्ट करती है कि आज की तारीख़ में आय और सम्पति का ज़बरदस्त एकीकरण कुछ हाथों में हो रहा है.












