नज़रिया: 'जो फ़िट नहीं होते उन्हें राष्ट्रद्रोही कहा जा रहा'

एनबीएसए

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    • Author, अपूर्वानंद
    • पदनाम, राजनीतिक विश्लेषक, बीबीसी हिंदी के लिए

शुक्रवार रात एक सन्देश आया.

न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ने देश के एक लोकप्रिय चैनल को आदेश दिया है कि वह 8 सितंबर को रात के समाचार बुलेटिन में बड़े अक्षरों में अपने दर्शकों को बताए कि 9, 10, 11 और 12 मार्च, 2016 को उसने दिल्ली के शंकर शाद मुशायरे की रिपोर्टिंग को अफजल गुरू गैंग का मुशायरा बताते हुए गौहर रज़ा के कविता पाठ के बारे में जो टिप्पणी की थी उसके लिए उसे अफ़सोस है और वह इसके लिए माफ़ी माँगे.

यह उसे बड़े हरूफ में दिखाना होगा और धीमे धीमे पढ़कर दर्शकों को सुनाना होगा. इसके अलावा उसे साथ में न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के पास एक लाख रुपए का जुर्माना जमा करना होगा.

यह सन्देश पढ़कर डेढ़ साल पहले की रात याद आ गई. मेरे मित्र का फ़ोन आया था,"टी वी खोलो, देखो गौहर रज़ा पर कुछ आ रहा है."

गौहर रज़ा

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जिस चैनल पर बताया गया था, देखा तो सदमे में रह गया. गौहर साहब की तस्वीर के साथ बताया जा रहा था कि वे 'अफज़ल प्रेमी गैंग' के मुशायरे में नज़्म पढ़ रहे थे. गौहर रज़ा देश को टुकड़े करनेवालों के हामी हैं, देशद्रोहियों की तारीफ़ में कसीदे काढ़ रहे हैं, यह आरोप समाचारवाचक लगाए जा रहा था.

धमाकेदार संगीत के साथ बार बार नज्मों की कुछ पंक्तियाँ अफ़ज़ल गुरु, कन्हैया और उमर ख़ालिद की तस्वीरों के साथ सुनाई जा रही थीं. मैं हैरानी के साथ यह सब कुछ देखता रहा.

अदालत

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यह 12 मार्च 2016 की रात थी. मालूम हुआ यह प्रसारण 9,10,11 मार्च को हो चुका था. उकसावेबाज अंदाज में एक शायर गौहर रज़ा पर हमला करते हुए यह समाचार बुलेटिन क्यों इतना ज़रूरी था कि चार रातों तक प्राइम टाइम पर प्रसारित किया जाए, समझना मुश्किल था.

आज तक किसी मुशायरे पर पूरा समाचार बुलेटिन नहीं देखा था. यह भी समझना कठिन था कि इसे किस कोण से खबर कहा जाए जो खुलेआम एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा का निर्माण था.

यह दिल्ली में होने वाला सालाना शंकर शाद मुशायरा था जिसमें भारत और पाकिस्तान के शायरों की महफ़िल लगती हैं. गौहर बरसों पहले लिखी अपनी नज्में पढ़ रहे थे. एक नज़्म उन्होंने रोहित वेमुला को समर्पित की और एक नज़्म का एक टुकड़ा कन्हैया को.

यह काफ़ी था इस चैनल के लिए कि वह शायर को देशद्रोहियों का समर्थक घोषित करे, उसके ख़िलाफ़ दर्शकों को भड़काए.

यही प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन के साथ किया जा चुका था. विश्वविद्यालय और एक गोष्ठी में कश्मीर , उत्तर पूर्व और छत्तीसगढ़ के लोगों के साथ भारतीय राज्य के बर्ताव की आलोचना करने के कारण उन्हें भी देश द्रोह का अपराधी बताया गया,कहा गया कि वे छात्रों को देशद्रोह सिखा रही हैं. दर्शकों से कहा गया कि प्रोफ़ेसर मेनन के साथ क्या सलूक होना चाहिए, वही तय करें और सरकार भी.

कन्हैया

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साफ़ था कि चैनल ख़बर देने का काम न करके 'लिंच मॉब' तैयार कर रहा था. देश के हर कोने में अब कन्हैया के खून की प्यासी जैसी भीड़ बन चुकी है, कुछ वैसी ही.

कन्हैया देश के टुकड़े करना चाहते हैं, यह मानने वालों की तादाद लाखों में है और यह सिर्फ़ टी वी चैनल पर लगातार प्रसारित किए गए एक वीडियो के कारण जिसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है. इसके लिए ईश्वर को ही धन्यवाद देना चाहिए कि इस हिंसक घृणा के बावजूद कन्हैया अब तक सुरक्षित हैं.

सांकेतिक तस्वीर

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अशोक वाजपेयी, शुभा मुद्गल, सैयदा सैयदीन ने चैनल की इस हरकत के ख़िलाफ़ न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी के पास शिकायत की.

उनका कहना था कि चैनल ने गौहर रज़ा पर दुर्भावनापूर्ण और निराधार आरोप लगाए हैं, उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को इस समाचार के प्रसारण से क्षति हुई है जिसमें उन्हें अफज़ल प्रेमी गैंग का शायर बताया गया है. उन्हें देश द्रोहियों का हामी ठहराया गया है. यह कोई ख़बरनवीसी न थी.

अथॉरिटी ने 'नालिश' सुनी. चैनल को नोटिस भेजी. दोनों पक्षों को अपनी दलील रखने का मौक़ा दिया और फिर उसने ख़ुद चैनल का बुलेटिन देखा. वह इस नतीजे पर पहुँचा कि चैनल का इरादा निष्पक्ष ख़बर देने का नहीं था. उसने निष्पक्षता, सटीकता, तटस्थता के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है.

अथॉरिटी का यह निर्णय सिर्फ़ गौहर रज़ा की जीत नहीं है, वह जनतंत्र के बने रहने की एक ज़रूरी शर्त को पूरा करता है. वह है हर ताकतवर संरचना पर सांस्थानिक चौकसी की शर्त.

व्यक्ति एक संप्रभु इकाई

गणराज्य का चिह्न

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जनतंत्र की बुनियाद है व्यक्ति की स्वतंत्रता. लेकिन क्या व्यक्ति अपनी इस आज़ादी को खुद सुनिश्चित कर सकता है? ख़ासकर तब जब समाज अनेक प्रकार की शक्ति संरचनाओं का एक जाल हो और व्यक्ति उसके भीतर अपनी जगह खोजने को बाध्य हो?

ये संरचनाएँ विवाह की, परिवार की, जाति की, धर्म की या राज्य की भी, हो सकती हैं. इनमें से हर कोई व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कब्ज़ा करने को आमादा हो सकता है.

व्यक्ति एक संप्रभु इकाई है. जनतंत्र उस पर टिका है. वह अधिकारसंपन्न है और इन अधिकारों की तस्दीक संविधान में की गई है. लेकिन जैसा हाल में उच्चतम न्यायालय के निजता संबंधी निर्णय में न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने कहा व्यक्ति कोई राज्य की मिलकियत नहीं. उसके अधिकारों का स्रोत वह खुद है.

यह भी उच्चतम न्यायालय ने कहा कि व्यक्ति के मौलिक अधिकार अलग-अलग नहीं, वे पूर्णता में एक दूसरे से जुड़े हैं और अगर एक का उल्लंघन होता है तो दूसरा सहज ही प्रभावित होता है.

कौन करेगा निजता का अधिकार की रक्षा?

सांकेतिक तस्वीर

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जब सामुदायिकता व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करे तो क्या उसके पास इतने साधन हैं कि वह अपने अधिकार फिर हासिल कर सके? चूँकि ऐसा नहीं है ,जनतंत्र में संस्थानों की व्यवस्था है.

मानवाधिकार आयोग,अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, महिला आयोग, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण,जैसी संस्थाएं इसीलिए बनाई गई हैं.

विश्वविद्यालय और जनसंचार माध्यमों को ऐसे संस्थानों के रूप में देखा गया था जो व्यक्ति नामक संस्था के साथ खड़े होंगे. लेकिन पाया गया कि प्रायः वे किसी न किसी सत्ता प्रतिष्ठान के अंग बन जाते हैं.

प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन

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इमेज कैप्शन, प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन के ख़िलाफ़ भी आंदोलन हुआ

बीसवीं सदी और बाद में प्रायः हर जगह देखा गया कि पारम्परिक संस्थाओं की तरह बल्कि उनसे कहीं अधिक राष्ट्र व्यक्ति को अपनी इकाई में शेष करने की कोशिश करता है. वह एक ऐसी पवित्र सत्ता है जो अपने आप ही व्यक्तियों की मालिक बन बैठती है.

और इस राष्ट्र की आड़ में दूसरी संस्थाएँ व्यक्ति पर नियंत्रण करना चाहती हैं. जन संचार माध्यम इनमें इसलिए सबसे खतरनाक है कि वे ऐसे साँचे बनाना चाहते हैं जिनमें मनुष्य खुद को ढाल लें. वे विचारधारात्मक साँचे हैं. हिटलर ने जन संचार माध्यमों के जरिए ख़ास किस्म के जर्मनों का निर्माण किया जो उनसे अलग दिखने वालों को जर्मन विरोधी कहकर उनकी ह्त्या कर सकते थे.

वैसे ही स्टालिन ने साम्यवादी मनुष्य की तस्वीर गढ़ी और माओ ने नए चीनी की. व्यक्ति की स्वाधीनता का ढोल पीटनेवाला अमरीका मक्कार्थी का ज़माना झेल चुका है जब एक एक करके कलाकार, लेखक, अध्यापक, वैज्ञानिक ,छात्र अमरीका विरोधी घोषित किए गए और उन्हें सज़ा दी गई. सबका नतीजा इन देशों में छोटे या बड़े जन संहारों में हुआ.

राष्ट्रवाद का आदर्श साँचा

राजश्री रानावत

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इमेज कैप्शन, जोधपुर विश्वविद्यालय की अध्यापिका राजश्री राणावत को निलंबित किया गया है

भारत में पिछले तीन वर्ष से एक राष्ट्रवादी साँचा आदर्श के तौर पर पेश किया जा रहा है और व्यक्तियों को इनमें डालकर उनकी जाँच की जा रही है. जो फिट नहीं होते उन्हें राष्ट्रद्रोही कहा जा रहा है.

ऐसे वक्त में ही इन सारी संस्थाओं और सांस्थानिक प्रक्रियाओं का महत्व मालूम होता है और उनकी जाँच भी होती है. 2002 में भारतीय जनता पार्टी नीत केंद्र सरकार के होते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने गुजरात के मुसलमानों के अधिकारों के लिए खुद लड़ने का निर्णय किया.

न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ने अपनी इसी जनतांत्रिक सांस्थानिक जिम्मेवारी का निर्वाह किया है एक ताकतवर चैनल के सामने अपेक्षाकृत साधनहीन वैज्ञानिक, कवि और फिल्मकार गौहर रज़ा की वैयक्तिक संप्रभुता के पक्ष में निर्णय देकर.

माइक

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यह निर्णय दिल्ली से दूर जोधपुर विश्वविद्यालय की अंग्रेज़ी की अध्यापिका राजश्री राणावत के लिए भी मददगार होगा जिन्हें राजस्थान के अखबारों ने देशद्रोही साबित कर दिया था सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने निवेदिता मेनन को एक सेमीनार में आमंत्रित किया. हरियाणा के केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्नेहसता मानव के लिए भी जिनके ख़िलाफ़ स्थानीय मीडिया में सिर्फ इसलिए अभियान चला कि उन्होंने महाश्वेता देवी की कहानी दोपदी का नाट्यान्तरण मंचित किया था.

इन सबके ऊपर यह बाकी सारी संस्थाओं को भी अपनी जड़ता तोड़कर जाग्रत कर सकेगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए. यह कि भारतीय व्यक्ति अब राष्ट्रवाद के बहुसंख्यकवादी संस्करण के सम्मुख अकेला महसूस नहीं करेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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