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शुक्रवार, 30 सितंबर, 2005 को 16:38 GMT तक के समाचार
 
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'रीमिक्स के नाम पर भद्दा मज़ाक'
 

 
 
सुखविंदर सिंह नाइजीरिया में स्टेज शो करने पहुँचे
चल छइयां-छइयां से फ़िल्मी दुनिया पर छा जाने वाले युवा गायक सुखविंदर सिंह ने अब तक ढेरों हिट गीत दिए है. संघर्ष करके सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने वाले सुखविंदर सिंह का मानना है कि कलाकार पैदा होता है बनाया नहीं जाता.

नाइजीरिया में लागोस के म्यूसॉन शैल हॉल में रिहर्सल के दौरान उनसे बातचीत की शुरुआत हुई, उन्होनें सिगरेट सुलगाई और मैने पेन संभाल लिया.

रीमिक्स गीतों को लेकर लोगों में और संगीत जगत दोनों में कुछ रोष है. सुखविंदर सिहं का क्या कहना है?

देखिए...रीमिक्स के पीछे जो मक़सद था कि नई पीढ़ी को पुराने गानों से, गीतकारों, संगीतकारो से परिचित करवाया जाए वो तो पीछे ही छूट गया है. रीमिक्स के नाम पर संगीत के साथ भद्दा मज़ाक हो रहा है. मै तो इसे क्राइम ही मानता हूँ. देखिए, किसी चीज़ को नए तरीक़े से पेश करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन अपने कल्चर का कुछ तो ध्यान रखना ही चाहिए.

आजकल आइटम गाना फ़िल्म का ज़रुरी हिस्सा बनता जा रहा है. आपको क्या लगता है, यह इतना ज़रुरी होना चाहिए ?

हाँ, ज़रुरी हिस्सा तो बन गया है, लेकिन कितने लोग शोले के महबूबा-महबूबा जैसा आइटम गीत बना रहे हैं. मुग़लेआज़म और मदरइंडिया मे भी आइटम गाना था, लेकिन आज बिना ज़रुरत इसे फ़िल्म में ठूंसा जा रहा है. आइटम सॉन्ग का मतलब अधनंगी लड़कियां और शोर-शराबा हो गया है. हेलेन आइटम सांग करतीं थी लेकिन आज कोई उनका मुक़ाबला कर सकता है क्या. हालांकि मुझे भी आइटम गाने से ही फेम मिली है लेकिन फ़िर एक के बाद एक वैसे ही ऑफ़र आने लगे तो मैने प्रोड्यूसरों को हाथ जोड़ दिए भईया प्लीज़ मुझे वेश्या मत बनाओ, मुझे कुछ और भी गाने दो.

आज के दौर में वैसा संगीत क्यों नहीं बनता जो साठ या सत्तर के दशक में बनता था कमी कहाँ है?

उस दौर में बीस के क़रीब संगीतकार थे लेकिन सब एक से बढ़ कर एक टेलैंटेड और मेहनती थे. संगीत ही उनकी जान था. एक टीम की तरह गीतकार, संगीतकार, गायक, निर्माता, निर्देशक बैठते थे और फ़िल्म की सिचुएशन के हिसाब से गाना तैयार होता था. आज सौ के लगभग संगीतकार और गायक हैं, लेकिन दो या तीन की ही बराबरी उस दौर के संगीतकारों से की जा सकती है. ऐसा नहीं है कि आज अच्छे गाने नहीं बनते, लेकिन आज गायक और संगीतकार के दिमाग़ में गाने के अलावा और भी हज़ारों चीज़े होतीं हैं.

कुछ फ़िल्मकार बिना गीत संगीत के फ़िल्में बना रहे है, एक गायक और संगीतकार होने के नाते आपको यह देख कर कैसा लगता है?

वो लोग बिल्कुल सही कर रहे हैं. एक बहुत ही ख़ूबसूरत गाना अगर फ़िल्म में सही जगह पर नहीं है तो वो फ़िल्म को डुबो भी सकता है. अगर गानों को डालने से फ़िल्म की आत्मा मरती है तो उनका न होना ही अच्छा है. मेरा मानना है कि फ़िल्म की रफ्तार मे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए गाना हो या न हो.

एक हीरोइन का कहना है कि आज फ़िल्म को सेक्स या शाहरुख़ ख़ान ही चला सकते है आपकी क्या प्रतिक्रिया है, गीत संगीत के लिए कोई जगह ही नहीं बची?

पहली बात तो यह कम्पैरिज़न ही ग़लत है. सेक्स का दौर आया था लेकिन आजकल कुछ इस तरह ही फ़िल्में बन रहीं हैं जो बतातीं है कि लोगों की पसंद बड़ी तेज़ी से बदल रही है. शाहरुख़ ख़ान बड़े ज़बरदस्त कलाकार हैं उनकी अपनी जगह है. लेकिन संगीत तो इन सबसे बढ़ कर रहा है. ढेरों ऐसी फ़िल्में हैं जो गानों के बल पर ही चलीं और आज भी लोग गानों से खिचें थियेटर चले आते है.

संगीत ने आपको नाम, शोहरत, पैसा सभी कुछ दिया है बदले में आप संगीत के लिए क्या कर रहे है?

यह सही है कि मैं आज जो कुछ हूँ संगीत की वजह से हूँ. भगवान ने मुझे यह कला दी है. मै चाहता हूँ इस बहाने मुझसे कुछ भला हो तो अच्छा ही है. अब संगीतकार के तौर कुछ फ़िल्में कर रहा हूँ तो नई आवाज़ों को मौक़ा देने की कोशिश करुंगा. एक स्टूडियो का भी प्रोजेक्ट है जहाँ कुछ अलग करने वालों को अपना टेलैंट दिखाने का मौक़ा मिलेगा.

 
 
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