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भारत में बन रहे हैं ऑस्ट्रेलियाई-अफ्रीकी साज़ | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
विदेशी लोग दीवाने हैं मुकेश के बनाए साज़ों के. उत्तरांचल राज्य के ऋषिकेश में रहनेवाले ये गुमनाम कलाकार ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका के परंपरागत संगीत के साज़ बनाते हैं. यहाँ आनेवाले विदेशी न सिर्फ इन्हें खरीदते हैं बल्कि मुकेश के पास रहकर इन्हें बनाना भी सीखते हैं. करीब आठ फुट लंबे और दो फुट चौड़े इस साज़ का नाम है 'डिज़री डू.' इसे देखकर यकीन नहीं होता कि इससे ऐसी गंभीर आवाज़ निकलती होगी जैसे कोई आसमानी नाद बज रहा हो. घुमावदार तुरही की तरह ये साज़ लकड़ी से बनाया जाता है और इसके अंदर से सुरीली आवाज़ उत्पन्न करने के लिए शुरू से अंत तक लंबा सूराख किया जाता है. लकड़ी के भीतर ये मानो संगीत की एक अंधेरी रहस्यभरी सुरंग है. इसी तरह मुकेश एक अन्य भारीभरकम साज़ बनाते हैं जिसका नाम है - 'जेंडे.' ये दरअसल एक अफ्रीकी ड्रम है और पियानो की तरह बजाया जाता है. जब इन पर सुर छेड़ा जाता है तो इनकी निराली धुनों से ऐसा लगता है मानो कई साज़ एक साथ बज रहे हों. मुकेश पिछले 18 साल से ये साज़ बना रहे हैं. उन्होने ये कला अपने पिता से सीखी. और उन्हें ऋषिकेश में आकर बस गए एक ऑस्ट्रेलियाई दंपत्ति ने ये साज़ बनाने सिखाए. यहां मुकेश भले ही गुमनाम हों लेकिन उनके बनाए साज़ों की सात समंदर पार बड़ी पूछ है. ऑस्ट्रेलिया से आई लीरा कहती हैं, "मैने अपने एक मित्र के घर ये देखा था. मुझे बहुत पसंद आया. फिर मैं इन्हें सीखने के लिए मुकेश के पास आई. सच तो यह है कि ऑस्ट्रेलिया में भी इन्हें बनाने वाले मुश्किल से ही मिलते हैं." स्वीडन से आए मैटियस अफ्रीका की जनजातीय संस्कृतियों और उनके साज़ों पर शोध कर रहे हैं. उन्हें ये देखकर बड़ा अचरज हुआ कि ये साज़ भारत की धरती पर भी बन रहे होंगे. वे तीन महीने से मुकेश के पास रहकर मैतियस इन्हें बजाना सीख रहे हैं. मुकेश अपने घर के पास अपने 'स्टूडियो' में विदेशी शार्गिदों को ये साज़ बनाना और बजाना सिखाते हैं. हर साज़ की कीमत पांच से दस हज़ार रुपये के बीच है. मुकेश का मानना है कि इन्हें बजाने से बड़ी आत्मिक शांति मिलती है. अब तो भारतीय लोग भी इन्हें खरीदने लगे हैं. और इस तरह मुकेश का ये 'आदिम कारखाना' चल रहा है. |
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