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अर्थपूर्ण फ़िल्मों का कठिन अर्थशास्त्र | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बॉलीवुड में इन दिनों प्रयोग भी खूब हो रहे हैं और यथार्थ को दिखाने की कोशिश कर रहीं फिल्में भी खूब बन रही हैं. लेकिन तमाम नयापन या ताज़गी होने के बावजूद इन्हें दर्शक नही मिल पा रहे. ‘सहर’, ‘विरुद्ध’, ‘बोस’, ‘स्वदेस’, ‘साढ़े सात फेरे’, ‘माई ब्रदर निखिल’, ‘यहां’, ‘माई वाइफ्स मर्डर’, ‘इकबाल’, ‘दंश’, ‘मातृभूमि’, ‘फिर मिलेंगे’...... ऐसी फिल्में चाहे छोटे बजट की हो चाहे बड़े बजट की, उनमें चाहे सुपरस्टार हों चाहे अनजान चेहरे, कुछ अपवादों को छोड़कर, हश्र सबका लगभग एक सा हो रहा है. फिल्म समीक्षक इन्हें सराहते हैं. इनसे जुड़े लोग कुछ दिन गर्दन ऊँची करके घूमते हैं लेकिन ज़ेबें भरने या आम दर्शक तक, पहुँचने और तारीफ़ बटोरने का उनका ख्वाब पूरा नहीं होता. पहले के मुकाबले इस साल यानी सन 2005 में अब तक आईं ऐसी फिल्मों की तादाद काफी ज्यादा है. इनमें ज्यादातर फिल्में बड़े बजट वाली नहीं थी. इनमें से कई फ़िल्मों में बड़े सितारे थे, मिसाल के तौर पर 'विरूद्ध' में अमिताभ बच्चन हैं तो माइ वाइफ्स मर्डर में अनिल कपूर. माई वाइफ्स मर्डर रामगोपाल वर्मा की कंपनी ने बनाई तो इकबाल सुभाष घई की कंपनी ने, जो देश के बड़ी फ़िल्म कंपनियों में गिनी जाती हैं. लेकिन आम लोगों पर न सितारों का जादू चला न बैनर का असर हुआ. फिर भी मगर सार्थक कही जाने वाली ये फिल्में बन रहीं हैं और खूब बन रहीं हैं. असल में फिल्म निर्माण के मैदान में नई और बड़ी कंपनियों के कूदने और संगठित तरीके से काम करने से बड़ा फर्क पड़ा है.
ये कंपनियां अपने काम करने के पेशेवर तरीके से निर्माण की लागत पर नियंत्रण रखती हैं और नए या प्रयोगधर्मी विषयों पर फिल्में बनाने से नहीं हिचकतीं. उनका गणित और एक आम मुंबइया फिल्म के प्रोड्यूसर का कारोबारी गणित काफी अलग अलग होता है. कम बजट में बनी अच्छी फिल्म में घाटे का खतरा घटाने के गुर इन कंपनियों के पेशेवर मैनेजरों को खूब आते हैं. फैलता अंतरराष्ट्रीय बाज़ार भी एक महत्वपूर्ण पहलू है इस गणित में. फिल्मकार श्याम बेनेगल कहते हैं,"ऐसी कई फिल्में हैं जिन्हें बनाने के लिए मैं अरसे से सोच रहा था पर अब वे फिल्में एक-एक करके बनने लगीं हैं क्योंकि उनके लिए फाइनेंस मिलना आसान हो गया है." बेनेगल ही नहीं नए फिल्मकारों को भी अपने ख्वाब पूरे करने के अब भरपूर मौके मिल रहे हैं. लेकिन ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं रहीं हैं. कमाई या तारीफ़ हाल के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों पर ग़ौर किया जाए तो आम दर्शक विशुद्ध मनोरंजन के पीछे ही पागल है इसीलिए बोनी कपूर की ‘नो एंट्री’ सुपर हिट है तो डेविड धवन की ‘मैने प्यार क्यूं किया’ या बालाजी फिल्म्स की – ‘क्या कूल हैं हम’ ने टिकट खिड़की पर जमकर धमाल मचाया. कॉमेडी चाहे फूहड़ हो चाहे साफ सुथरी, फिल्म में जरा भी दम है तो वे चल रहीं हैं.
फिल्म ट्रेड आंकड़े बताते हैं कि यथार्थ के करीब की फिल्मों की, चाहे वह ‘स्वदेस’ हो चाहे ‘दंश’ या ‘माई ब्रदर निखिल’, जो थोड़ी बहुत तारीफ और कमाई हुई तो बस बड़े शहरों में. फिल्म पंडित और इन फिल्मों को बनाने वाले अक्सर कहते भी हैं कि ये फिल्में मल्टीप्लेक्सों के लिए बनती हैं. लेकिन ‘साढ़े सात फेरे’ या ‘माई वाइफ्स मर्डर’ या ‘मातृभूमि’ या फिर ‘फिर मिलेंगे’ जैसी फिल्में चाहें गुदगुदाने वाली हों चाहे गंभीर, पढ़े-लिखे, मल्टीप्लेक्स में ही फिल्म देखने वाले वर्ग को भी न लुभा सकें तो... विनोद तिवारी कहते हैं, "अच्छी या गंभीर या यथार्थवादी फिल्मों की बात कीजिए तो इसी वर्ग के लोग कहेंगे - हां सुना तो है कि फिल्म अच्छी है पर अभी देखी नहीं है, जबकि किसी चलताऊ हिट की बात कीजिए तो कहेंगे - हां देख ली, बहुत फूहड़ फिल्म है." इन सबके बावजूद ऐसी फिल्मों की तादाद लगातार बढ़ रही है क्योंकि फिल्मकार मान रहे हैं कि हर रोज़ ऐसे गंभीर सिनेमा के दर्शक बढ़ रहे हैं. भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई को बेहद कड़वे अंदाज़ में बयान करती फिल्म 'मातृभूमि' बनाने वाले मनीष झा और उनके जैसे तमाम फिल्मकार इसी उम्मीद के साथ लगातार आगे बढ़ रहे हैं. ठीक भी है. आखिर सृजनात्मकता पर बेवजह लगाम क्यों लगाई जाए. बाज़ार जो कहता है कहने दीजिए. |
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