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एक बिसरे हुए महानायक पर फ़िल्म | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
हिन्दुस्तान की आजादी के आन्दोलन की महागाथा में एक उपकथा कभी ठीक से उभर नही पाई, ये कथा थी सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिन्द फौज की. आम आदमी के ज़हन में ये कहानी धुँधली सी रही है जो वक्त की गर्द में अनसुनी-अनजानी सी पड़ी रही. इसी कथा को फिल्म का रूप दिया है श्याम बेनेगल ने जो भारतीय सिनेमा में अपने गंभीर योगदान के लिये जाने जाते हैं. हालांकि यह फ़िल्म अपने प्रदर्शन से पहले ही विवादों में घिर गई और श्याम बेनेगल को फ़िल्म का प्रीमियर भी कोलकाता की जगह जयपुर में करने का निर्णय लेना पड़ा, अदालत में घसीटे जाने की धमकी भी मिली है. लेकिन श्याम बेनेगल ने आपत्तियों को स्वीकार नहीं किया और आख़िरकार फ़िल्म प्रदर्शन के लिए तैयार है. श्याम बेनेगल ने अपनी नई फिल्म सुभाष चंद्र बोस के बारे बताते हैं, – "बचपन से मैं आज़ाद हिन्द फौज में रह चुके लोगों के मुँह से नेताजी और फ़ौज के बारे में सुन कर रोमांचित होता रहता था, निर्देशक बनने के बाद से इस विषय पर फिल्म बनाने की लगातार इच्छा रही." वे कहते हैं, "दरअसल आज़ादी की लड़ाई के बारे में आम आदमी का ज्ञान काफी कम है और उसके बहुत से पहलू तो अछूते ही रह गये हैं, इसीलिये सुभाष चंद्र बोस जैसे विषय पर फ़िल्म न सिर्फ उनके करिश्माई व्यक्तित्व को उजागर करती है बल्कि आज़ादी के इतिहास को भी नये कोण से दिखाती है."
नेताजी ऐसी शख्सियत थे जिन्हें जनता ने राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित किया मगर विचारों के टकराव के चलते राजनैतिक मुख्यधारा के लोगों ने उन्हे स्वीकार नही किया, इसके बावजूद उन्होंने अपने प्रयत्नों से जो अतिमानवीय लड़ाई लड़ी वो बेमिसाल है. उन्होने कहा कि सुभाष चंद्र बोस ने ख़ुद को जन-अपेक्षाओं की मुख्यधारा से अलग कभी नहीं माना और उन्होंने दूसरी राजनैतिक विचारधाराओं को पूरा सम्मान दिया. इसका सबसे अच्छा उदाहरण आज़ाद हिन्द फ़ौज की चार ब्रिगेडों के नाम से ही मिल जाता है – जो गाँधी, नेहरू, आज़ाद और बहादुर ब्रिगेड के नाम से जानी जाती थीं. श्याम बेनेगल ने कहा कि उन्होने न सिर्फ चरखे वाले काँग्रेसी झंडे को अपनाया बल्कि जन गण मन को ही राष्ट्रगान का सम्मान दिया. इतिहास का सवाल श्याम बेनेगल पहले भी महात्मा गाँधी पर 'मेकिंग आफ महात्मा' नाम से फिल्म बना चुके हैं और नेहरू की कृति पर बना उनका सीरियल 'भारत एक खोज' टेलीविजन के सबसे प्रामाणिक धारावाहिकों में से एक माना जाता रहा है. वे स्वीकार करते हैं कि आमतौर पर इतिहास पर बनी भारतीय फिल्मों में इतिहास ना के बराबर होता है, लेकिन उन्होने अपनी फिल्म में ऎतिहासिक तथ्यों का पूरा ध्यान रखा है.
गाँधी और सुभाष के बीच के राजनैतिक तनाव के बारे में बेनेगल का कहना है, – "मेरी फिल्म नेताजी के भारत से निकल भागने और विश्व स्तर पर सहयोग जुटाने तथा आज़ाद हिन्द फौज की संगठन क्षमता बढ़ाने पर केन्द्रित है." वे कहते हैं कि ये कहानी एक अकेले आदमी के संकल्प ,समर्पण और संगठन – क्षमता की है. उसमें इस तनाव का दरकिनार हो जाना स्वाभाविक ही था, वैसे गाँधीजी ने अगर नेहरू को अपना पहला बेटा माना तो सुभाष को वो अपना दूसरा बेटा कहते थे, इस दूसरे बेटे को ज़रा नटखट मानते थे. इस रोल के लिये अभिनेता ढ़ूँढ़ने में आई दिक्कत के बारे में वो बताते हैं कि नेताजी करिश्माई व्यक्तित्व के धनी थे, मिलने वाला उनसे प्रभावित हुए बिना नही रह सकता था. वे याद करते हैं, "जब हम बर्मा में शूटिंग कर रहे थे तो पुराने लोग आज़ाद हिन्द फौज की वर्दी पहन हाथ में नेताजी की किताब और आँखों में आँसू लिये चले आए ... वो दृश्य भुलाए नही भूलता, इसलिये मुझे ऎसे अभिनेता की तलाश थी जो इस करिश्मे को साकार कर सके. जो सुभाष चंद्र बोस का कैरीकेचर न हो बल्कि रूपरंग के अलावा वही गरिमा और ओज भी रखता हो." बाद में श्याम बेनेगल ने इस भूमिका के लिए सचिन खेड़ेकर को चुना था और वे मानते हैं कि सचिन ने इस भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है. विवाद और जवाब 'ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लाक एवं रिसर्चर्स' के एक समूह ने फिल्म के टाईटल, नेताजी को शादीशुदा दिखाने और यह दिखाने पर कि उनकी मृत्यु हो गई थी आपत्ति जताई है तथा कोर्ट में जाने की भी बात कही. हालांकि श्याम बेनेगल ने कहा कि यह विवाद व्यर्थ है. इस विवाद के बाद एकबारगी लगने लगा था कि फ़िल्म शायद समय पर प्रदर्शित नहीं हो सकेगी लेकिन श्याम बेनेगल को सिर्फ़ प्रीमियर की जगह बदलनी पड़ी. इस बारे में बेनेगल का कहते हैं कि कलकत्ता स्थित नेताजी रिसर्च ब्यूरो नेताजी पर सूचना और सामग्री पाने का सबसे प्रामाणिक केन्द्र है, और फ़िल्म के लिए सामग्री वहीं से जमा की गई. वे कहते हैं, "इसके अलावा नेहरू लाइब्रेरी से लेकर टोक्यो स्थित नेताजी के संग्रहालय तक जहाँ - जहाँ इस विषय पर सूचना मिल सकती थी, हमने जमा की . नेताजी पर लिखी गई तीस प्रामाणिक किताबों की भी मदद ली गई, इस तरह प्रामाणिकता के बारे मे हमने कोई कसर नही छोङी है." वे कहते हैं कि वैसे विरोध करने वाले किसी व्यक्ति या समूह ने अब तक उनसे कोई संपर्क नही किया है. |
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