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मंगलवार, 09 अगस्त, 2005 को 19:40 GMT तक के समाचार
 
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संघर्ष भरा जीवन था प्रेमचंद का
 

 
 
गोरखपुर में प्रेमचंद स्मारक
गोरखपुर आने से पहले मुंशी प्रेमचंद हमीरपुर के महोबा में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल थे
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद अपने युग के हिसाब से क्रांतिकारी समाज सुधारक साहित्यकार तो थे ही उनका निजी जीवन भी संघर्ष और बग़ावत का रहा है.

गोरखपुर शहर में राजनीतिशास्त्र के विद्धान प्रो. रामकृष्णमणि त्रिपाठी याद दिलाते हैं कि 84 साल पहले 8 फरवरी 1921 को इसी मैदान में मुंशी प्रेमचंद ने महात्मा गाँधी का भाषण सुनकर अपनी 25 साल की पक्की सरकारी नौकरी को ठोकर मार दी थी.

प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं,"यह उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट सिद्ध हुआ. गाँधी के विचारों, स्वराज्य की कल्पनाओं और स्वतंत्रता के प्रति उनकी उन्मुखता हो गई थी."

"जलियाँवाला बाग काण्ड हो चुका था और प्रेमचंद इससे बहुत प्रभावित हुए थे. और ब्रिटिश सरकार के चेहरे को देखते हुए गाँधी जी की जनसभा में आने के बाद सहसा यह मानसिक परिर्वतन हुआ कि अब अपनी रचनाओं को किसी बड़े उद्देश्य के प्रति समर्पित करूँ."

सन् 1916 में नॉर्मल स्कूल के अध्यापक के पद पर गोरखपुर आने से पहले मुंशी प्रेमचंद हमीरपुर के महोबा में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल थे.

 गाँधी जी की जनसभा में आने के बाद सहसा यह मानसिक परिर्वतन हुआ कि अब अपनी रचनाओं को किसी बड़े उद्देश्य के प्रति समर्पित करूँ
 
प्रो. रामकृष्णमणि त्रिपाठी

एक दिन ज़िला कलेक्टर ने उन्हें बुलाकर बताया कि उनका कहानी संग्रह "सोज़े वतन" विद्रोह भड़काने वाला है, इसलिए उसे ज़ब्त किया जाता है.

कलेक्टर ने उन्हें लिखना बंद करने का हुक्म दिया था.

लेकिन उन्होंने अपना नाम बदलकर प्रेमचंद उपनाम से लिखना शुरू कर दिया. यह सन् 1905 की बात है.

पीट डाला

 और जो प्रेमचन्द वहाँ पर बड़े दब्बू, चुपचाप, अपने में रहने वाले पढ़ने वाले आदमी माने जाते थे, उन्होंने सबसे पहले एक झंडी उखाड़ी और उससे पीटना शुरू कर दिया जिसके बाद सारे लड़के भिड़ पड़े और अंग्रेज़ों को बुरी तरह पीट डाला
 
प्रो. रामदेव शुक्ल

हिंदी के उपन्यासकार प्रो. रामदेव शुक्ल चुनार का एक किस्सा सुनाते हुए कहते हैं," फुटबॉल का एक मैच हुआ था, मिशन स्कूल और अंग्रेजों के बीच में और अंग्रेज़ हार गये थे, और उन्होंने एक हिंदुस्तानी लड़के को बूट से मार दिया".

"और जो प्रेमचन्द वहाँ पर बड़े दब्बू, चुपचाप, अपने में रहने वाले पढ़ने वाले आदमी माने जाते थे, उन्होंने सबसे पहले एक झंडी उखाड़ी और उससे पीटना शुरू कर दिया जिसके बाद सारे लड़के भिड़ पड़े और अंग्रेज़ों को बुरी तरह पीट डाला."

माना जाता है कि इसी घटना के कारण मुंशी प्रेमचंद को चुनार मिशन स्कूल की नौकरी गँवानी पड़ी थी.

आकाशवाणी गोरखपुर के मशहूर कलाकार रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई का मानना है कि मुंशी प्रेमचंद प्रतिबंधित अखबारों में भी लिखते थे.

वे कहते हैं,"यहीं से दो अखबार निकलते थे जो प्रतिबंधित थे और कहा यह जाता है कि उनमें प्रेमचंद जी भी छद्म ढंग से लिखा करते थे."

स्वाधीनता संग्राम

 लगता है कि वे रशियन रिवोल्यूशन से प्रभावित थे. टॉल्स्टॉय उन्होंने पढ़ रखा था.
 
प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव

राजनीतिशास्त्री प्रो. रामकृष्ण त्रिपाठी का कहना है कि मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी लेखनी से स्वतंत्रता आंदोलन को बल दिया.

उपन्यास और कहानियों के अलावा गोरखपुर से प्रकाशित दैनिक स्वदेश और मुंशी प्रेमचंद की अपनी पत्रिका हंस और जागरण आदि में उनके लेख इस बात के गवाह हैं कि मुंशी प्रेमचन्द किस तरह अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का हवा दे रहे थे.

वे कांग्रेस के गरम दल के करीब माने जाते थे.

इतिहासकार प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव का कहना है कि मुंशी प्रेमचंद पर सोवियत रूस की क्रांति का भी असर था.

प्रो. श्रीवास्तव कहते हैं,"लगता है कि वे रशियन रिवोल्यूशन से प्रभावित थे. टॉल्स्टॉय उन्होंने पढ़ रखा था. और वे प्रगतिशील लेखक संघ के पहले प्रेसीडेंट थे. ये सब चीजें जो थीं जिनसे उनका रूझान लेफ़्ट की तरफ साफ हो जाता है."

गाँधी

गोरखपुर में प्रेमचंद स्मारक

लेकिन राजनीतिशास्त्री प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी का कहना है कि मुंशी प्रेमचंद अंत तक गाँधी विचार के साथ रहे.

प्रो. त्रिपाठी कहते हैं,"वे कभी गाँधी से अलग नहीं हुए. मुंशी प्रेमचंद ने रूस की तारीफ़ जरूर की थी. लेकिन रूस के संबंध में मुंशी प्रेमचन्द की राजनीतिक समझ की कमी थी जैसा कि उस समय बहुत सारे लोगों के साथ थी."

उनकी जीवनी में इस बात का ज़िक्र मिलता है कि नौकरी छोड़ने के बाद मुंशी प्रेमचंद चरखा, स्वदेशी और स्वराज के प्रचार में लग गए थे.

गोरखपुर से लमही जाकर उन्होंने चरखे बनवाकर भी बाँटे.

इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि सन् 1930 में जब वह लखनऊ के अमीनुद्दौला पार्क में रहते थे तो नमक क़ानून के खिलाफ सत्याग्रह करने वालों को अपने हाथ से कुर्ता और टोपी पहनाकर रवाना करते थे.

बाग़ी तेवर

 उनके लिए बाग़ी या इस तरह के विशेषण प्रयुक्त नही कर सकते हैं पर हाँ प्रतिरोध की उनकी मूल प्रकृति थी ये हम स्पष्ट मानेंगे
 
प्रो. शुभाराव

मुंशी प्रेमचंद आर्थिक तंगी के शिकार रहे, लेकिन महाराजा अलवर ने जब उन्हें उस ज़माने में 400 रू. महीना वेतन, मोटर और बंगले वाली नौकरी की पेशकश की तो उन्होंने नामंज़ूर कर दिया.

बॉलीवुड ने उन्हें फ़िल्मी पटकथा लिखने बुलाया, लेकिन वहाँ की रीति-नीति से समझौता न करने के कारण बंबई छोड़कर वापस बनारस आ गए.

पत्नी शिवरानी देवी ने कांग्रेस के टिकट पर काउंसिल चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा, लेकिन मुंशी प्रेमचन्द ने इसे नामंजूर कर दिया और कहा,"मेरा काम काउंसिल में काम करने वालों की समालोचना करना हैं."

प्रेमचंद साहित्य संस्थान की सचिव और राजनीतिशास्त्र की प्रो. शुभाराव का कहना है कि मुंशी प्रेमचंद पर पूर्वांचल के कई क्रांतिकारी विचारकों जैसे कबीर, गोरखनाथ, और गौतम बुद्ध का असर था, लेकिन उनकी मूल प्रकृति एक समाज सुधारक की थी.

प्रों शुभाराव कहती हैं,"उनके लिए बाग़ी या इस तरह के विशेषण प्रयुक्त नही कर सकते हैं पर हाँ प्रतिरोध की उनकी मूल प्रकृति थी ये हम स्पष्ट मानेंगे."

यही कारण है कि एक यथार्थवादी लेखक होने के बावजूद प्रेमचंद निराशा के जनक नहीं बल्कि आदर्शोन्मुखी और क्रांतिकारी समाजपरिवर्तन के प्रबल पक्षधर थे.

 
 
66प्रेमचंद पर विशेष
कलम के सिपाही प्रेमचंद की 125 वीं जयंती पर बीबीसी हिंदी की विशेष प्रस्तुति.
 
 
66याद का तरीक़ा बदलें
प्रेमचंद के पौत्र का मानना है कि प्रेमचंद को याद करने का तरीक़ा बदलना चाहिए.
 
 
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