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शोले की बात ही कुछ ऐसी है... | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
शोले..., नाम सुनते ही हिंदी फ़िल्में देखने वाले हर व्यक्ति के मन में न जाने कितने पात्र अचानक ही अपने अनोखे अंदाज़ के साथ होकर गुज़र जाते हैं. फिर वो चाहे जय और वीरू की जोड़ी हो, धन्नो की मालकिन और कम बोलने का दावा करने वाली बसंती हो, सूरमा भोपाली हों, अंगरेज़ों के ज़माने के जेलर महाशय हों या फिर 50-50 कोस तक बच्चों के मन में डर पैदा करने वाला गब्बर सिंह. हर किरदार एक अनोखा रूप लिए एक यादगार छाप छोड़ने वाला. तो ऐसे में जब यहाँ लंदन में हमें बड़े पर्दे पर शोले देखने का मौका मिला तो ये लालच रोक पाना संभव नहीं था और हम भी जा पहुँचे फ़िल्म देखने. भारतीय क्रिकेट और हॉकी टीम के प्रायोजक सहारा इंडिया ने एक कार्यक्रम के तहत शोले फ़िल्म यहाँ लंदन में बड़े पर्दे पर दिखाई और उसमें शामिल होने पहुँचे वीरू, जी हाँ धर्मेंद्र.
धर्मेंद्र ने थियेटर में क़दम रखा और लोगों ने उन्हें घेर लिया. सवाल एक ही, शोले की यादें. धर्मेंद्र मुस्कुराए और बोले, “आप लोग ज़्यादा ज़ोर मत दीजिए वरना, मैं कूद जाउँगा, फाँद जाउँगा, जान दे दूँगा.” वह आगे बढ़ गए और पीछे से आईं सिने तारिका सलीना जेटली. उनका कहना था कि जिस फ़िल्म को देखते हुए बड़ी हुई हैं उसे बड़े पर्दे पर फिर से देखना रोमांचक अनुभव है. लोगों का उत्साह ये फ़िल्म तो मैंने भी देखी थी मगर छोटे पर्दे पर क्योंकि बड़े पर्दे पर जब फ़िल्म आई होगी तो मैं ख़ुद इस दुनिया में नहीं था. तो फ़िल्म देखने के रोमांच के साथ हम भी बैठे लंदन के एक ख़ूबसूरत सिनेमा घर में. फ़िल्म शुरू होने से पहले धर्मेंद्र जब बोलने के लिए माइक पर पहुँचे तो आवाज़ें हॉल के हर कोने से आने लगीं, “वीरू...वीरू... और बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना.”
इसके बाद जब फ़िल्म शुरू हुई तो एक बार फिर पूरा सिनेमाहॉल लोगों की तालियों और सीटियों की आवाज़ों से गूँज उठा. अब शुरू हुआ फ़िल्म के अलग-अलग सीन पर तालियों का सिलसिला. इसके अलावा लोग मौके-बेमौके फिल्म के डायलॉग भी बोल रहे थे. लगा जैसे यहाँ लंदन में रह रहे लोगों को भी फ़िल्म के रिलीज़ के 29 साल बाद तक फ़िल्म के डायलॉग रटे हुए हैं. फ़िल्म देखते देखते लगा कि फ़िल्म किसी एक कलाकार या चरित्र की वजह से नहीं चली बल्कि हर कलाकार और चरित्र ने लोगों के मन में अमिट छाप छोड़ी है. फिर वो सूरमा भोपाली जगदीप का पान खाना हो या अंगरेज़ों के जमाने के जेलर असरानी का कहना कि ‘आधे उधर जाओ, आधे इधर जाओ और बाक़ी मेरे साथ आओ...’
इसके अलावा जब बसंती अपनी धन्नो के साथ रामगढ़ के स्टेशन पर पहली बार दिखी तो लोगों ने पूरा ज़ोर लगाकर सीटियाँ बजाईं. कुछ ऐसी ही आवाज़ें आईं जब जय यानी अमिताभ ने बसंती से पूछा, ‘यूँ कि तुम्हारा नाम क्या है बसंती?’ ऐसा नहीं था कि लोग सिर्फ़ मुख्य नायकों को ही देखकर ख़ुश हो रहे थे. जब गब्बर सिंह पहली बार पर्दे पर दिखे तो एक बार फिर लोगों की तालियाँ बज उठीं. गब्बर सिंह का ख़ौफ़ उनके साथियों की आँखों में स्पष्ट था जब उन्होंने पूछा, “अब तेरा क्या होगा कालिया!” महबूबा...महबूबा...के गाने में हेलेन का नृत्य हो, संजीव कुमार का ठाकुर का अभिनय या उनकी छोटी बहू बनी जया भादुड़ी (बच्चन) का आँखों के ज़रिए भावुक अभिनय लोग हर क्षण फ़िल्म की जादुई छटा में डूबते ही चले गए. फ़िल्म देर शाम शुरू हुई और आधी रात तक चली और इधर लोग अपनी सीटों पर जमे रहे. आख़िर क्यों न हों, फ़िल्म का जादू है ही कुछ ऐसा... |
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