कोरोना वायरस: संक्रमण और उसके डर से जुड़ी ख़बरों का दिमाग़ी सेहत पर कितना असर

    • Author, डेविड रॉब्सन
    • पदनाम, बीबीसी फ़्यूचर

पिछले कुछ हफ़्तों से हम सभी के बीच बात-चीत का एक ही विषय है, कोविड-19. इसी से बात शुरु होती है और इसी पर ख़त्म हो जाती है.

अख़बार कोरोना वायरस की ख़बरों से भरे होते हैं, रेडियो-टीवी पर एक ही शब्द सुनाई पड़ता है कोविड-19 और उससे जुड़ी कहानियां. किसी को फ़ोन करो तो पहले रिकॉर्डेड मैसेज के ज़रिए कोरोना से बचने के उपाय ही बताए जाते हैं. सोशल मीडिया पर कोविड-19 की महामारी ऐसी भयावह तस्वीरें सामने आ रही है, जिन्हें देख और पढ़कर कर ख़ौफ़ आता है.

बहुत से जानकार पहले ही आगाह कर चुके हैं कि कोविड-19 पर जिस तरह जानकारी और संदेशों की गोलीबारी हो रही है, उसका सीधा और तुरंत प्रभाव हमारे दिमाग़ की सेहत पर पड़ेगा.

हर वक़्त डर का माहौल हमारे मनोविज्ञान और सेक्सुअल व्यवहार पर भी प्रभाव डालता है. बीमारी के प्रति हमारी सोच इतनी गहरी हो जाती है कि वो हमें मिज़ाज से रूढ़िवादी बना देती है. हम सामाजिक दृष्टिकोण से पिछड़ जाते हैं. ये हमारे राजनीतिक झुकाव को भी प्रभावित कर सकता है.

हाल ही में नस्लवाद और विदेशियों को नापसंद करने वाली रिपोर्ट में इसी बात की तरफ़ इशारा करती है. इस संबंध में वैज्ञानिकों की रिसर्च रिपोर्ट में जिस तरह की भविष्यवाणी की गई हैं, अगर वो सही साबित होती हैं तो आने वाले समय में दुनिया में बड़ा मनोवैज्ञानिक और सामाजिक बदलाव देखने को मिलेगा.

महामारियां पहले भी फैलती रही हैं. उस दौर में किसी का बच जाना ही करिश्मे से कम नहीं होता था. तब भी महामारियां सभी को अपना शिकार नहीं बनाती थीं. जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती थी, वो इससे बच जाते थे. लेकिन जो बच जाते थे उन पर महामारियों का बुरा प्रभाव पड़ता था. मतलब ये कि वो लोग आसानी से सामान्य जीवन शुरु नहीं करते थे. जैसे कि लोगों से मिलना जुलना, शिकार करना, और सेक्सुअल व्यवहार में उत्साहित होना. डर उनके भीतर कहीं गहराई से बैठ जाता था.

कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी रिसर्चर मार्क शालर का कहना है कि बीमारी के साथ प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर काम करना वाक़ई में एक मुश्किल काम है. मार्क शालर के मुताबिक़ किसी भी बीमारी से लड़ने के लिए हर तरह की प्रतिरोधक क्षमता का मज़बूत होना बहुत ज़रुरी है. इसके लिए मनोवैज्ञानिक बीहैवियरल इम्यून सिस्टम जैसे शब्द का इस्तेमाल करते हैं. यानी अगर महामारी से लड़ना है, तो सबसे पहले अपने व्यवहार से इसके संपर्क को तोड़ना है. यानी एक दूसरे से दूरी बनानी ज़रुरी है.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वो समूहों में रहता आया है. सोशल डिस्टेंसिंग ने हमारे रिश्तों और रोज़मर्राह की बातचीत को बहुत हद तक प्रभावित किया है. लेकिन बीमारी की रफ़्तार रोकने के लिए यह ज़रुरी है. यक़ीनन जब साइंस ने तरक़्क़ी नहीं की थी, तो हमारे पूर्वजों को शायद बीमारी फैलने और उसके रोकने के उपाय ना पता रहे हों. लेकिन, आज हमें वजह और उससे बचने के उपाय दोनों पता हैं. इसलिए मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए अगर कोई सोशल डिस्टेंसिंग करने से इसलिए बच रहा है कि इससे रिश्तों पर असर पड़ेगा तो वो ग़लत है.

बहुत से प्रयोगों से ये बात साफ़ हो गई है कि जब हम किसी बीमारी का ख़तरा महसूस करते हैं तो हम परंपराओं को सिर झुका कर मान लेते हैं और हम ज़्यादा सम्मान के पात्र बन जाते हैं. एक प्रयोग के तहत बीमारी से ज़्यादा चिंतित प्रतिभागियों से पूछा गया कि वो किस प्रकार के लोगों को पसंद करते हैं. लगभग सभी का जवाब पारंपरिक रिवाजों में यक़ीन रखने वाले व्यक्तियों के पक्ष में था. यानी उन्हें रचनात्मक या कलात्मक लोगों की तुलना में परंपरा का पालन करने वाले लोग ज़्यादा पसंद थे. इससे पता चलता है कि संक्रमण के दौरान स्वतंत्र सोच, आविष्कार और नई खोज करने वाले विचार कमज़ोर पड़ जाते हैं. उनमें ये सोच ज़्यादा पनपने लगती है कि सामाजिक मानदंडों को तोड़ना नुक़सानदेह हो सकता है और उसके परिणाम भी घातक हो सकते हैं.

हॉलीवुड की 2011 में आई फ़िल्म कॉन्टाजियॉन (Contagion) नाम की एक फ़िल्म इन दिनों खूब चर्चा में है. फ़िल्म में जिस तरह के हालात और दृश्य दिखाए गए हैं वो आज के हालात से काफ़ी मेल खाते हैं. हालांकि उस फ़िल्म का मौजूदा हालात से कोई लेना देना नहीं है. वो तो महज़ एक क्रिएटिविटी की बेहतरीन मिसाल है. लेकिन ये रचनात्मकता लोगों में भय पैदा कर रही है. लोगों को ऐसी क्रिएटिविटी से दूर रह कर पारंपरिक सोच और जड़ता को मज़बूत करने पर विवश कर रही है.

जब भी कोई संक्रमण फैलता है तो ज़्यादातर लोग सामाजिक नियमों का पालन ज़्यादा सख़्ती से करने लगते हैं. नियमों का पालन करते-करते हम कब नैतिकता के चौकीदार बन जाते हैं, इसकी ख़बर ख़ुद हमें भी नहीं लगती. मिसाल के लिए रोज़ नहाना, खाने से पहले हाथ धोना, घर और आसपास के माहौल को साफ़ रखना हमारी परवरिश का हिस्सा है. लेकिन संक्रमण के इस काल में हम अपने से ज़्यादा दूसरों पर नज़र रख रहे हैं. दिमाग़ में सवाल घूमता रहता है कि जो व्यक्ति हमारे साथ काम कर रहा है वो साफ़ सुधरा है कि नहीं. उसने खाने से पहले हाथ धोए कि नहीं. हद तो यहां तक है कि हम सामने वाले को टोकने से भी नहीं चूकते. इससे रिश्तों में एक अनकही दूरी बनने लगती है.

संक्रमण के दिनों में पता नहीं होता कि कौन व्यकित संक्रमित है. लिहाज़ा समाज का हर व्यक्ति एक दूसरे को लेकर शक में घिरा रहता है. अजनबियों के मामले में तो ये बात बहुत हद तक लागू होती है. आम तौर से सभी को मुस्कुराकर देखना, मोहब्बत से बात करना भारतीय संस्कृति का हिस्सा है. लेकिन संक्रमण के दिनों में लोग एक दूसरे से दूरी बनाने लगते हैं. और धीरे-धीरे ये दूरी हमें नस्लीय भेदभाव की ओर ले जाती है. लोगों में एक दूसरे के लिए विश्वास कमज़ोर पड़ने लगता है.

अभी तक ऐसा डेटा उपलब्ध नहीं है जिसकी बुनियाद पर कहा जा सके कि कोविड-19 हमारी सोच को बदल रहा है. लेकिन ऐसा हो सकता है. संक्रमण के दिनों में नज़र आने वाला हमारा सामाजिक व्यवहार सामाजिक दृष्टिकोण में भारी बदलाव ला सकता है. इसकी मिसाल हम वर्ष 2014 में फैली इबोला महामारी के दौरान देख चुके हैं.

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