कैसे मुट्ठी भर लोग एक देश का भविष्य तय कर रहे हैं

कैसे कुछ लोगों के विचार एक देश का भविष्य तय कर रहे हैं

इस वक़्त दुनिया पूरी तरह से बंटी हुई है. सियासी मसले हों या फिर धार्मिक, हर मुद्दे पर अलग-अलग राय रखने वालों की ख़ेमेबंदी हो गई है. हिंदुस्तान में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है. यहां राष्ट्रवाद हो या हिंदूवाद. इसके समर्थकों के बीच खाई और कड़वाहट बढ़ती जा रही है. जब भी मुख़्तलिफ़ राय रखने वालों में संवाद होता है, तो वो एक-दूसरे को समझने के बजाय उन्हें गाली देने वाला ज़्यादा होता है.

सामाजिक विज्ञान के लिहाज़ से देखें तो ये परेशान करने वाली बात है. जहां जुदा ख़यालात वाले संवाद के बजाय संग्राम करने में ज़्यादा यक़ीन रखते हैं. विचारों का संघर्ष जुनून की हद तक जा पहुंचा है.

वैचारिक रूप से विरोधी खेमों का ये कड़वा संघर्ष परेशान करने वाला है. लेकिन, अगर हम ये मान लें कि ये संघर्ष तय है, तो? और इसका ताल्लुक़ इंसान की बुनियादी कमज़ोरियों से है.

कुछ हालिया रिसर्च ये बताती हैं कि हमारी कमज़ोरियों को कुछ गिने-चुने असरदार लोगों की वजह से बल मिलता है. क्योंकि उनकी राय से जनता प्रभावित हो जाती है.

सामाजिक वैज्ञानिकों मानना रहा है कि जब हमारी सोच अतार्किक होती है, तब ही विचारों और सिद्धांतों की खेमेबंदी होती है. ज़ाहिर है कि कोई भी पढ़ा-लिखा और जानकारी रखने वाला इंसान अपने विचारों की कमियों को स्वीकार करेगा. सामने वाले के तर्क को सही मानेगा. लेकिन अगर कोई इसी ज़िद पर अड़ा है कि वो ग़लत हो ही नहीं सकता, और सबूतों की भी अनदेखी कर देता है, तो ज़ाहिर है उसे अतार्किक इंसान ही कहेंगे.

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लेकिन, हाल ही में एक नई रिसर्च प्रकाशित हुई है, जो कॉमन सेंस थ्योरी पर आधारित है. इसका मतलब ये है कि तार्किक लोगों का समूह भी दो खेमों में विभाजित हो सकता है. इसकी वजह हमारी ज़हनी पाबंदियां हैं. हमारे दिमाग़ के भी सोचने-समझने की एक सीमा होती है.

एक बात तो पक्के तौर पर कही जा सकती है कि कोई भी इंसान पूरी तरह से तार्किक नहीं हो सकता. और हम पहले से ये नहीं बता सकते हैं कि कोई इंसान कब तार्किक होगा और कब वो तर्कों से परे चला जाएगा.

हाल ही में अमरीका, जापान, बेल्जियम और दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिकों कंप्यूटर मॉडल की मदद से तार्किक बर्ताव पर एक रिसर्च की. इसमें आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस कुछ कंप्यूटरों को दो हिस्सों में बांटा गया. कुछ को अथाह मेमोरी दी गई, तो कुछ को सीमित. यानी कुछ कंप्यूटर तो सभी बातों को याद रख सकते थे. लेकिन, कुछ कंप्यूटर ऐसे थे, जिन्हें सारी सिखाई हुई बातों में से कुछ याद रह जाती थीं और कुछ उनकी मेमोरी से डिलीट हो जाती थीं.

इस रिसर्च के पेपर को लिखने वाली जिन जंग कहती हैं कि जिन कंप्यूटरों के पास असीमित मेमोरी थी, वो तो तथ्यों के आधार पर तार्किक बर्ताव करते थे. लेकिन, जिन कंप्यूटरों के पास सीमित मेमोरी थी, उनका बर्ताव कभी तार्किक होता था और कभी वो उल्टा-पुल्टा बर्ताव करते देखे गए.

जंग का कहना है कि इस रिसर्च से एक बात साफ़ है कि अगर हमें पढ़ी-लिखी और सुनी हुई सारी बातें याद हैं, तो उनकी मदद से हम हमेशा तार्किक बातें करेंगे. दूसरों की भी सुनेंगे. उनसे असहमत होने पर भी शालीनता बनाए रखेंगे.

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हमेशा तार्किक ढंग से सोचना मुश्किल

लेकिन, दुनिया में किसी भी इंसान के पास असीमित याददाश्त नहीं है. हर व्यक्ति के सोचने-समझने और याद रखने की एक सीमा होती है. जिन जंग का कहना है, 'कोई भी इंसान ऐसा नहीं, जिसके पास असीमित मेमोरी हो, तो हम किसी भी व्यक्ति से ये अपेक्षा नहीं कर सकते कि वो हमेशा तार्किक ढंग से सोचेगा और वैसा ही बर्ताव करेगा. और मामला तब और दिलचस्प हो जाता है, जब हम ये जानते हैं कि समय के साथ हमारी याददाश्त की क्षमता और तर्क की शक्ति बदलती रहती है.'

जंग के मुताबिक़, 'हम सीमित याददाश्त के साथ तार्किक इंसान हैं, तो भी विचारों का ध्रुवीकरण हो जाता है. जबकि हम हमेशा तर्क से चलते हैं, फिर भी समाज में वैचारिक खेमेबंदी हो जाती है. इसकी वजह ये है कि हम दूसरों के विचार और तर्कों को कई बार भूल जाते हैं.'

इस रिसर्च की मदद से हम वैचारिक खेमेबंदी के शिकार लोगों को समझ सकते हैं. जब हम किसी ऐसे इंसान से मिलें, जिसके ख़यालात हम से जुदा हों, तो उसकी राय बदलने के बजाय हमें ये समझने की कोशिश करनी चाहिए कि आख़िर इसकी वजह क्या हो सकती है. क्या उसकी याददाश्त कमज़ोर है? वो तनाव का शिकार है? अपने विचारों को लेकर यक़ीन नहीं है या फिर वो भेदभाव का शिकार है? किसी के अलग विचार रखने की इन में से कोई भी वजह हो सकती है.

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वो कुछ मुट्ठी भर लोग

अलग-अलग दौर में हम सभी अपने विचारों को चुनौती न देने के दोषी होते हैं. क्योंकि हम सब कई बार इच्छाशक्ति की कमी के शिकार हो जाते हैं. सवाल ये है कि तर्कपूर्ण बातें करने वाले ही खेमेबंदी के शिकार होते हैं, तो आख़िर इसकी वजह क्या होती है?

इस सवाल का जवाब ये है कि कुछ मुट्ठी भर ऐसे लोग होते हैं, जिनसे ये तार्किक लोगों की सोच प्रभावित हो जाती है.

अमरीका की हम्बोल्ट स्टेट यूनिवर्सिटी की एम्बर गैफ्ने कहती हैं, 'बहुत से ऐसे लोग हैं जो ख़ुद को कट्टर नहीं मानते. लेकिन, उनके ख़यालात अक्सर कट्टरपंथियों से मिलते नज़र आते हैं.'

अगर आप चाहते हैं कि आप जिस समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं, वो कट्टरपंथी न हो, तो शायद इसके लिए आप को कट्टरपंथियों की कुछ बातों को स्वीकार करना होगा. लेकिन, अगर आप कट्टरपंथियों की कुछ बातों को मंज़ूर कर लेते हैं, तो आपकी राय में चौंकाने वाला बदलाव आ सकता है. हो सकता है कि किसी एक बात पर आप उनसे इत्तेफ़ाकड न रखते हों. पर, आप कई और मुद्दों पर उनके ख़यालात के क़रीब जा सकते हैं.

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इस बारे में अमरीका के विलियम क्रैनो ने एक रिसर्च की थी. उन्होंने पाया कि जो छात्र सेना में समलैंगिकों के जाने के ख़िलाफ़ थे, उनसे छात्रों का बहुसंख्यक समुदाय सहमत नहीं था. लेकिन, बंदूकों पर लगाम लगाने को लेकर उनके विचार कट्टरपंथियों से मेल खाने लगे थे.

एम्बर गैफिनी कहती हैं, 'जब हम ये देखते हैं कि किसी एक मुद्दे पर एक राय रखने वालों की संख्या बहुत कम है, तो हम उनसे सहमत नहीं होना चाहते. क्योंकि लगता है कि फिर हम भी तादाद में कम लोगों के ही साथ नज़र आएंगे.'

विलियम क्रैनो का कहना है कि जब हम किसी एक मुद्दे पर कट्टरपंथी सोच से दूर जाते हैं, तो इसका असर ये होता है कि कई दूसरे मुद्दों पर हमारी राय कमज़ोर हो जाती है. यानी आगे चल कर इसके बदलने की आशंका पैदा हो जाती है.

हाल ही में ब्रिटेन के एक सांसद ने ट्वीट कर के वक़ालत की कि सभी चाकुओं पर जीपीएस लोकेटर लगाया जाए. ताकि ये पता रहे कि कोई भी व्यक्ति चाकू से क्या कर रहा है. इससे उनका इरादा चाकुओं से होने वाले अपराध पर लगाम लगाने का था. भले ही इस विचार को अमल में लाना संभव न हो. लेकिन, इससे चाकू के ज़रिए होने वाले अपराध की दिशा में लोगों को सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा.

आगे चल कर ये भी हो सकता है कि ऐसे अपराध रोकने के लिए कुछ ऐसे नियम बनाए जाएं, जो कारगर साबित हों. जैसे कि सड़कों पर पुलिस की गश्त बढ़ाई जा सकती है.

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छोटा है तो ताक़तवर है

किसी भी ऐसे विचारों वाले समूह को, जो संख्या में कम है, लगातार कोशिश करती रहनी पड़ती है. जिन जंग कहती हैं, 'वैचारिक रूप से अल्पसंख्यक सतत प्रयास करते रहते हैं. कई बार तो वो अपने विचारों के लिए अपने निजी हितों की क़ुर्बानी भी देते हैं, ताकि उनका प्रभाव बढ़े. जैसे कि तिब्बत में आत्मदाह करने वाले बौद्ध भिक्षु. अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए वो आत्मदाह करते हैं. ऐसे में अगर तिब्बत के बारे में किसी के विचार उतने अच्छे नहीं हैं, तो भी वो किसी भिक्षु के आत्मदाह के बाद अपने ख़यालात बदलने की सोचेगा.'

विचारों को प्रभावी बनाने के लिए किसी वैचारिक समूह का आकार भी बहुत अहम हो जाता है. लोग भले ही ये सोचते हों कि वो संख्या में ज़्यादा वाले समूह के साथ जुड़ें, मगर फ़ायदा इसका उल्टा करकने में है.

अगर किसी विचारधारा के लोग संख्या में कम हैं, तो वो भीड़ से अलग नज़र आते हैं. उनके विचार स्पष्ट होते हैं, क्योंकि संख्या में कम होने की वजह से अलग-अलग राय रखने वालों का शोर नहीं होता. इससे किसी एक सिद्धांत को मानने वाले संख्या में कम हैं, तो ज़्यादा असरदार हो जाते हैं. बस उन्हें अपने विचारों पर अडिग रहना होता है. जिस समाज में लोग अनिश्चितता के शिकार होते हैं, वहां पर वैचारिक अल्पसंख्यकों का प्रभाव बढ़ जाता है.

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एंबर गैफेने कहती हैं, 'जिस देश में बड़ी तादाद में लोग अनिश्चितता के शिकार होते हैं, वहां पर मज़ूबत नेताओं की लोकप्रियता बढ़ जाती है. लोकतांत्रिक देशों में तानाशाही मिज़ाज के नेता अक्सर इसीलिए सफल हो जाते हैं. वो लोगों में असुरक्षा का भाव जगा कर उन्हें अपने साथ जोड़ते हैं.'

जंग कहती हैं कि, 'दुख की बात है कि जब लोग अनिश्चितता के मारे होते हैं, तो उनका झुकाव कट्टर लोगों की तरफ़ होता जाता है. फिर वो बुरे-भले के फेर में नहीं पड़ते. हाशिए पर पड़े लोग अक्सर भुलावे में आ जाते हैं कि किसी ख़ास नेता के साथ जुड़कर उनकी अपनी पहचान बची रहेगी.'

मगर, हमें याद रखना चाहिए कि समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए भी हम इन बातों पर अमल कर सकते हैं. नागरिक और महिला अधिकारों के लिए हुए आंदोलन इस बात की मिसाल हैं. इनका शानदार असर हुआ था. लेकिन, शुरुआत में इन के समर्थक मुट्ठी भर लोग ही थे. वो उस दौर के सामाजिक नियमों के ख़िलाफ़ जाकर आवाज़ उठा रहे थे.

हम जिस समाज में रहते हैं, उसकी बनावट पेचीदा होती है. वो कई समूहों में बंटा होता है. हम किसी एक समूह का हिस्सा होते हैं. हो सकता है कि उसका संख्या बल बहुत कम हो. या फिर जो हमारे विचार के विरोधी हों, उनकी तादाद कम हो. हम उन्हें कट्टर और वाहियात मान कर भले ही ख़ारिज कर दें. लेकिन, सच तो ये है कि वो हमारे ऊपर अपना असर छोड़ चुके होते हैं.

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