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जब अपू ने अमरीका में मचाई थी खलबली
- Author, क्रिश्चियन ब्लावेल्ट
- पदनाम, बीबीसी कल्चर
अक्सर हम किसी देश किसी इलाक़े और किसी समुदाय को लेकर एक ख़ास नज़रिया बना लेते हैं. फिर फ़िल्मों और टेलीविज़न में भी उसी चश्मे से किरदारों को दिखाते हैं.
अब अमरीका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को लीजिए. अमरीकी टीवी कार्यक्रमों में उनकी शुरुआती नुमाइंदगी 'द सिम्पसंस' नाम के मशहूर टीवी सीरियल के ज़रिए शुरू हुई थी. उसमें अपू नाम का एक भारतीय मूल का किरदार था जो ख़ास अंदाज़ में अमरीकी अंग्रेज़ी बोलता है.
वो एक दुकानदार है. उसके आठ बच्चे हैं. वो हमेशा मज़ाक़ का विषय बना रहता है.
'सिम्पसंस' सीरियल का ताज़ा एपिसोड देखने के बाद भारतीय मूल के लोग अक्सर ये समझ जाते थे कि अगले दिन स्कूल में या कहीं और उनका किस तरह से मज़ाक बनाया जाएगा.
नस्लवादी छींटाकशी
भारतीय मूल के लोगों को कभी अंदाज़ा ही नहीं हुआ कि 'सिम्पसंस' सीरियल के ज़रिए उन पर नस्लवादी छींटाकशी की जा रही है.
इस बात को सामने लेकर आए हैं भारतीय मूल के कॉमेडियन हरि कोंडाबोलू. वो कहते हैं कि आप मज़ाक़ को मज़ाक़ की तरह ले सकते हैं. लेकिन लहजे की नक़ल का कैसे जवाब देंगे?
'सिम्पसंस' में अपू के किरदार का नाम, सत्यजित रे की 'अपू ट्राइलोजी' फ़िल्मों से लिया गया था. इसे आवाज़ दी है ग्रीक मूल के अमरीकी कलाकार हैंक अज़ारिया ने.
अपू इकलौता भारतीय किरदार
'सिम्पसंस' एक कॉमेडी सीरियल है, जिसके किरदार असल कलाकार नहीं, कार्टून हैं. ये अमरीका का सबसे लंबे वक़्त तक चलने वाला सीरियल है.
इसमे तमाम किरदार हैं. मगर अपू इकलौता भारतीय किरदार इस सीरियल में दिखाया गया है.
सीरियल के लेखकों ने उसे इस तरह से गढ़ा है जिससे भारतीय मूल के लोगों की एक ख़ास तरह की छवि बनती दिखती है.
अमरीका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों ने अपू को इस कदर अपना लिया था कि उन्हें एहसास ही नहीं हुआ कि उन्हें नस्लीय नज़रिए से पेश किया गया है.
लेकिन हरि कोंडाबोलू को ये बात बड़ी नागवार गुज़री कि भारतीय मूल के लोगों का इस किरदार के ज़रिए मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है.
उन्होंने इस बात का विरोध करने के लिए एक फ़िल्म कर डाली. इस फ़िल्म का नाम है-द प्रॉब्लम विद अपू. इसका निर्देशन माइकल मेलामेडॉफ़ ने किया है.
ये फ़िल्म 19 नवंबर को अमरीकी टीवी चैनल ट्रूटीवी पर प्रसारित होगी.
'सिम्पसंस' सीरियल के इस किरदार से ऐतराज़ इसलिए है कि ये सीरियल अमरीकी समाज पर गहरा असर डालने वाला रहा है.
इसके 600 से ज़्यादा एपिसोड प्रसारित हो चुके हैं. ये सीरियल पिछले तीस सालों से चल रहा है. इसमें कई पुराने किरदार ख़त्म हो गए.
कई के मरने की बात दिखाई गई. मगर अपू नाम का भारतीय मूल का ये किरदार सीरियल की शुरुआत से अब तक बदस्तूर दिखाया जा रहा है. उसे उसी तरीक़े से तीस साल से परोसा जा रहा है.
नई पीढ़ी को ये बात मंज़ूर नहीं
अपू का किरदार साठ और सत्तर के दशक में अमरीका जाकर रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को ध्यान में रखकर गढ़ा गया था.
मगर उसके बाद तो भारतीय मूल के लोगों की अगली और उसके बाद वाली पीढ़ी भी आ गई. उन्हें देखते हुए कई रोल भी नए गढ़े गए. मगर अपू का किरदार जस का तस रहा.
भारतीय मूल के कलाकारों की नई पीढ़ी को ये बात मंज़ूर नहीं है. सीरियल में दिखाया गया है कि अपू स्प्रिंगफील्ड में क्विक-ई-मार्ट नाम की दुकान चलाता है.
ऐसा लगता है जैसे भारतीय मूल के लोग अमरीका में सिर्फ़ दुकानदारी ही करते हैं. अपू के बारे में बताया गया है कि वो कंप्यूटर साइंस से पीएचडी है.
मगर उसे बेहतर नौकरी नहीं मिली. उसके आठ बच्चों के ज़रिए भारत में लोगों के ज़्यादा बच्चे होने का भी मज़ाक़ बनाया गया है.
किरदार गोरों की नज़र से गढ़ा गया
अपू को आवाज़ देने वाले कलाकार हैंक अज़ारिया कहते हैं कि ये किरदार गोरों की नज़र से गढ़ा गया है. इसमें उसके बोलने का जो लहजा तय किया गया, वो यूं लगता है जैसे भारतीय मूल के लोगों के बोलने के तरीक़े का मज़ाक़ बनाया जा रहा है.
अज़ारिया का कहना है कि उन्होंने ख़ुद सीरियल के लेखकों से कहा था कि ये तो भारतीयों को लेकर बेहद दकियानूसी ख़याल का इज़हार करता है.
अज़ारिया ने एक शो में बताया था कि, जब उन्हें अपू की आवाज़ बनने का ऑफ़र मिला तो वो किसी भी भारतीय मूल के शख़्स को नहीं जानते थे.
लेकिन हरि कोंडाबोलू कहते हैं कि अपू की वजह से भारतीय मूल के लोगों के तमाम पहलू उजागर नहीं हो पाए. वो एक दुकानदार है. वो हंसमुख मिज़ाज का है. वो मिलनसार है. ये सारी बातें लोगों को अच्छी लगती हैं.
मगर इससे भारतीय मूल के लोगों पर आधारित दूसरे किसी किरदार की संभावना ख़त्म हो जाती है. सीरियल में सब अपू पर हंसते हैं. कोई अपू के साथ नहीं हंसता.
अब माहौल बदल रहा है
अपू को लेकर पहले भारतीय मूल के लोगों ने ऐतराज़ नहीं जताया. शायद इसकी वजह ये थी कि उसे एक प्यारे किरदार के तौर पर देखा गया.
उसे उन दक्षिण एशियाई मूल के किरदारों की तरह नहीं पेश किया गया, जैसा आम तौर पर अमरीकी सोचते हैं.
आम तौर पर अमरीकी सोचते हैं कि दक्षिण एशियाई और भारतीय मूल के लोग ख़ून के प्यासे चरमपंथी हैं. साज़िशें रचते रहते हैं. वो मज़हबी कट्टरपंथी हैं. या फिर मांस खाने वाले ब्राह्मण हैं. जैसा कि 'इंडियाना जोंस' फ़िल्म और 'टेंपल ऑफ़ डूम' में दिखाया गया है.
भारतीय मूल के अमरीकी कॉमेडियन आसिफ़ मांडवी कहते हैं कि 9/11 के हमले के बाद उन्हें चरमपंथी वाले कई रोल का ऑफ़र मिला था.
हरि कोंडाबोलू कहते हैं कि आम अमरीकी की समझ भारतीय मूल के लोगों के बारे में ऐसी ही है. इसका कुछ नहीं कर सकते.
लेकिन हरि कोंडाबोलू कहते हैं कि चूंकि अपू को चरमपंथी नहीं दिखाया गया, तो हम उसे मंज़ूर कर लें, ये भी ठीक नहीं. अमरीका में अक्सर अश्वेतों, अरब या अफ्रीकी मूल के लोगों को ख़ास तरह से ही दिखाया जाता रहा है.
असल में अपू ऐसा कलाकार है, जिसके ज़रिए अमरीकी चाहते हैं कि आप ख़ुद को नापसंद करें. ख़ुद को बदलने की कोशिश करें.
जब आप ख़ुद को बदलने की कोशिश करेंगे, तो उससे अमरीकी कंपनियां मुनाफ़ा कमा सकेंगी. जैसे बहुत से लोग गोरा होने की क्रीम इस्तेमाल करते हैं.
भारतीय की पहचान दुकानदार!
अपू आज की पीढ़ी के भारतीय मूल के अमरीकियों की नुमाइंदगी नहीं करता. लेकिन जैसे-जैसे लोग बड़े हुए उन्हें ये कमी समझ में आई. उन्हें अपने साथ हो रही नाइंसाफ़ी का एहसास हुआ.
लेकिन दिक़्क़त ये है कि भारतीय मूल के लोगों को ज़्यादा रोल ही नहीं मिलते. मिलते भी हैं तो वही दकियानूसी सोच को ज़ाहिर करने वाले.
हालांकि अब माहौल बदल रहा है. अमरीकी टीवी और फ़िल्म इंडस्ट्री में भारतीय मूल के लोगों के हिसाब से नए रोल लिखे जा रहे हैं.
बहुत से कलाकार जैसे मिंडी कलिंग, अज़ीज़ अंसारी और कुमैल नंजियानी कामयाबी के झंडे गाड़ रहे हैं. इसके अलावा प्रियंका चोपड़ा, इरफ़ान ख़ान और देव पटेल जैसे कलाकारों को भी ख़ूब मौक़े मिल रहे हैं.
हरि कोंडाबोलू कहते हैं कि भारत में भी बहुत से लोग अपू को जानते हैं. लेकिन उन्होंने इस तरह से सोचा ही नहीं कि ये किरदार भारतीयों का मज़ाक़ बनाने वाला है.
पिछले साल तो 'सिम्पसंस' ने ख़ुद भी अपू के रोल को नए सिरे से देखने की कोशिश की. उसका विरोध किया.
अपू के भतीजे के रोल में भारतीय मूल के कलाकार उत्कर्ष अंबुदकर ने 'द मिंडी प्रोजेक्ट' और 'पिच परफ़ेक्ट' में काम किया.
उन्होंने अपने रोल के ज़रिए बताया कि किस तरह वो अपू के मौजूदा रूप का विरोध जताते हैं. वो लेखकों से इस किरदार को नया रूप देने की बात कहते हैं.
'सिम्पसंस' के निर्माताओं को चाहिए कि जय की तरह के किसी और किरदार के ज़रिए वो अपनी कमी को दर्शकों के सामने मानें.
और अब तो अमरीकी टीवी सीरियल्स में भारतीय मूल के और भी रोल देखने को मिल रहे हैं.
ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि अमरीकी लोग अब भारतीयों को दुकान चलाने वाले शख़्स के तौर पर ही नहीं पहचानेंगे.
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