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कैसे शुरू हुआ फोटो खींचते वक्त 'स्माइल प्लीज़' का चलन
- Author, केली ग्रोवियर
- पदनाम, बीबीसी कल्चर
अगर कभी आपने अपनी तस्वीर खिंचवाई होगी तो फ़ोटोग्राफर ने आपसे एक जुमला ज़रूर बोला होगा- स्माइल प्लीज़.
क्या कभी आपने सोचा कि वो ऐसा क्यों कहता था? क्योंकि मुस्कुराते चेहरे की तस्वीर हमेशा अच्छी आती है.
मुस्कुराना ज़िंदादिली की निशानी है. जब आप मुस्कुराते हुए किसी शख़्स की तस्वीर देखते हैं तो उसमें भी वो ज़िंदादिली नज़र आने लगती है.
मगर तस्वीरों में, कलाकृतियों में हंसते-खिलखिलाते चेहरों को क़ैद करने का चलन बहुत पुराना नहीं.
बड़े से बड़े कलाकार ने हंसते हुए शख़्स के किरदार को अपनी कला में तरजीह नहीं दी.
18वीं सदी तक में जितनी भी पेंटिंग्स या मूर्तियां बनाई गई उन में किसी को भी हंसते या मुस्कुराते नहीं दिखाया गया.
अलबत्ता ग्रीस में कुछ संगतराशों ने ऐसी मूर्तियां ज़रूर बनाई जिनके चेहरे पर एक बनावटी मुस्कुराहट होती थी.
लेकिन उस मुस्कुराहट का मक़सद भी सिर्फ़ अपनी कला का जौहर दिखाना था.
अमीरों की तस्वीरें
दरअसल, जिस दौर में आर्ट फला-फूला, उस दौर में ये सिर्फ राजा महाराजाओं के दरबार की चीज़ होती थी.
आम इंसान की कला तक पहुंच बहुत कम थी. जितनी भी तस्वीरें बनाई जाती थीं, वो ज़्यादार अमीरों के घर के सदस्यों की बनाई जाती थी. और अमीरों के यहां खिलखिलाकर हंसना बुराई समझा जाता है.
माना जाता था कि दांत दिखाकर वही लोग हंसते हैं जिन्हें सलीक़ा नहीं होता. या जिनकी अच्छी तालीम नहीं होती.
रईस तो सिर्फ़ मुस्कुराते हैं. द विंची का मास्टरपीस कहा जाने वाला मोनालिसा का चित्र भी एक रहस्यमयी मुस्कुराहट लिए हुए हैं.
ये मास्टरपीस गिनती की उन कलाकृतियों में शामिल है, जिसमें किसी इंसान को मुस्कुराते दिखाया गया है.
कुछ जानकार ये भी मानते हैं कि उस दौर में दांतों की साफ़ सफ़ाई को लेकर लोगों में बहुत जागरूकता नहीं थी.
ऐसे में अगर कोई खिलखिलाकर हंसते हुए अपनी पेंटिंग बनवाना चाहे भी तो उसके दांतों की गंदगी उजागर हो जाती.
ये न तो देखने में अच्छा लगता. और न ही कला के लिहाज़ से उसे दिखाया जाना मुनासिब था.
बदल गया है दौर
लेकिन अब वक्त बदल गया है. ये सब बातें गुज़रे दौर की हो चुकी हैं. दिल खोलकर हंसना अच्छे बर्ताव और खुले दिल की निशानी माना जाने लगा है.
और अब तो ऐसी तकनीक भी आ गई है कि उबकाई लेते चेहरों को भी ठहाके लगाते दिखाया जा सकता है.
फोटोशॉप करके किसी का भी हुलिया बदला जा सकता है.
इसके लिए हाल ही में फेसऐप नाम का ऐप लॉन्च हुआ है.
ऑली गिब्स नाम के एक शख़्स ने इस ऐप के ज़रिए बहुत सी ऐतिहासिक कलाकृतियों के चेहरे पर मुस्कान ला दी.
फ़ेसऐप से गिब्स ने पुरानी पेंटिंग्स को नया रूप-रंग दे दिया. फिर उन्होंने इन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर डाल दिया.
लोग ऐतिहासिक कलाकृतियों के साथ ऐसी छेड़छाड़ से अचरज में पड़ गए. इन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर ख़ूब साझा किया गया.
इसके लिए गिब्स को ख़ूब वाह वाही भी मिली.
वैसे ये कोई पहला तजुर्बा नहीं कि किसी कलाकृति को उसके ठीक उलट करके पेश किया जाए. आज तो ऐप के ज़रिए ये काम आसानी से किया जा सकता है.
कारनामा
मगर बरसों पहले आयरिश कलाकार फ्रांसिस बेकन ये कारनामा कर चुके हैं.
फ्रांसिस बेकन, कला के शौक़ीन थे. वो मशहूर पेंटिंग्स की डुप्लीकेट बनाकर रखा करते थे. इन्हीं में से एक थी पोर्ट्रेट ऑफ पोप इनोसेंट दसवें की पेंटिंग.
पोप इनोसेंट का ये पोर्ट्रेट यूरोप में पुनर्जागरण के दौर में बना मास्टरपीस था.
इसे 1650 में डियागो वेलाज़्क्यूज़ ने बनाया था. लेकिन 1953 में पोप के इस पोर्ट्रेट में अपने तरीक़े से फेरबदल कर दिया.
असली तस्वीर में जहां पोप दसवें एक कुर्सी पर शांत मगर घूरते हुए बैठे दिखाई देते हैं. वहीं फ्रांसिस बेकन ने इसमें हेर-फेर करके जो तस्वीर उकेरी, उसमें पोप बेहद खौफ़नाक नज़र आ रहे हैं.
लिहाज़ा कहा जा सकता है कि गिब्स ने फेस ऐप के ज़रिए जो कारनामा अंजाम दिया, वैसा ही कारनामा सालों पहले फ्रांसिस बेकन दे चुके थे.
वैसे भी आर्ट को देखने का अपना अपना नज़रिया होता है. एक ही तस्वीर में किसी को कोई जज्बात नहीं दिखता, तो किसी के लिए एक चेहरे में पूरी ज़िंदगी का फलसफ़ा मिल जाता है.
वो कहते हैं न कि ख़ूबसूरती तो देखने वाले की नज़र में होती है.
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