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मंगलवार, 19 अप्रैल, 2005 को 13:55 GMT तक के समाचार

प्रभाष जोशी
वरिष्ठ पत्रकार और क्रिकेट समीक्षक

बीमार टीम और अपने-अपने लिए खेल

तीन टेस्ट और छह वनडे मैच, इनसे मैं निराश ही हुआ हूँ. मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान की टीम ने कोई अच्छा प्रदर्शन करके दिखाया हो और ऐसा भी नहीं कि भारतीय टीम ने इस सिरीज़ के लिए कोई बड़ी तैयारी की हो और कोई अच्छा प्रदर्शन किया हो.

क्रिकेट के स्तर पर देखें तो बहुत साधारण क्रिकेट खेला गया. कोई चमकदार और दुनियाभर में सराहा जानेवाला मैच खेला गया हो, ऐसा मुझे तो पूरी श्रृंखला में नहीं लगा.

इसकी वजह खोजना शुरू करें तो पाएँगे कि भारतीय टीम अब वैसी नहीं रह गई है, जैसी कि पिछले तीन सालों में थी. क्या यह वही टीम है जो आस्ट्रेलिया में वहाँ की टीम को बराबर की टक्कर देकर आई थी, जैसा कोई टीम पिछले 8-10 सालों में नहीं कर पाई है.

फिर आप पाकिस्तान खेलने गए. वनडे और टेस्ट, दोनों सिरीज़ जीतीं, जो कि भारतीय क्रिकेट के पिछले 55 सालों के इतिहास में नहीं दिखता.

अपने स्टेटस

भारतीय टीम का इन दो देशों का दौरा, भारतीय क्रिकेट की बुलंदी के दिन थे. इस बुलंदी के बाद जिस टीम को और ऊपर चढ़ना चाहिए था उसके प्रदर्शन से लगा कि वो टीम बिखरी हुई और आउट ऑफ़ फ़ोकस है.

ये पिछले साल अप्रैल में जीतकर आए, तीन महीने आराम किया और अगस्त के महीने में एशिया कप खेलने के लिए श्रीलंका गए. तब से आप देख रहे हैं कि भारत की टीम, वो टीम नहीं दिख रही है, जो 2001 से 2004 के मध्य तक देखने को मिल रही थी.

इसकी वजह क्या है वो मेरी समझ से परे है पर इसना साफ़ है कि टीम बिखर रही है. उसमें न तो उत्साह दिखता है और न ही खेलने-जीतने की इच्छा. मैं क्षमताओं की बात नहीं कर रहा हूँ, इनमें खेलने की इच्छा ही नहीं है.

सब अपना स्टेटस ही संभालते नज़र आते हैं. वो चाहे गांगुली हों, सचिन हों, द्रविड़ हों या सहवाग हों.

नए खिलाड़ियों में भी देखें तो युवराज को भी कम मौक़े नहीं मिले पर ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के प्रदर्शन को छोड़ दें तो अबतक क्या करके उन्होंने दिखाया है कि वो इन लोगों की जगह ले सकें.

कैफ़ को हालाँकि कम मौक़े मिले पर जो मौक़े मिले उनमें भी वो भी कुछ ख़ास नहीं कर पाए जिससे ऐसा लगे कि वो द्रविड़ की जगह ले पाएँगे.

इरफ़ान पठान से काफ़ी उम्मीदें थीं पर इस बार उनकी गेंदबाज़ी से इनस्विंगर गेंदें ग़ायब ही थीं. उनको साइड स्ट्रेन हो गया था और इसके चलते उनकी गेंदबाज़ी प्रभावित हुई है.

बालाजी भी बीमार पड़े और जब लौटकर आए तो उनमें वो धार दिखाई ही नहीं दी. ज़हीर खान और नेहरा भी कुछ ख़ास नहीं कर सके. हरभजन के लिए तो पिछला एक साल उतार का ही था.

आप यह कह सकते हैं कि वनडे को धोनी और टेस्ट को कार्तिक जैसे अच्छे विकेट कीपर मिले लेकिन इनको भी अपने आप को अभी साबित करना है.

फिर पुरानी बीमारी

हाथ में आई चीज़ों को निकल जाने देना, यह भारतीय टीम की पुरानी बीमारी है. मैं देख रहा हूँ कि इस साल वो बीमारी फिर से लौटकर आ गई है और उसका कोई इलाज गांगुली या जॉन राइट ने निकाल लिया हो, ऐसा कहीं नहीं दिखता.

सौरभ कप्तान होने के नाते इन सभी से बेहतर कर पाते थे और मौक़ा पड़ने पर टीम को संभालते थे पर इस श्रृंखला में धोनी के शतक को छोड़ दें तो सहवाग, सचिन और द्रविड़ ने जितना किया, उतनी तो उनसे अपेक्षा थी ही बल्कि उससे ज़्यादा अपेक्षा की जा सकती थी.

मुक़ाबले की इच्छा ही नहीं दिखी. बंगलौर मैच में ही लंच तक भारत के एक विकेट पर सौ से ज़्यादा रन थे और दो सेशन खेलने बाकी थे पर टीम ढेर हो जाती है. ऐसा लगता है जैसा सिरीज़ जीतना ही नहीं चाहते.

अगर जीतने की इच्छा होती तो कोई उसका उपाय खोजकर खेलता. सब अपने बचाव के लिए खेलते रहे और आउट होते गए.

वनडे में दो मैच भारत ने जीत लिए थे. उसके बाद चीज़ें हाथ से निकलती दिखाई दीं और किसी ने यह कोशिश ही नहीं की कि सिरीज़ को संभाला जाए.

ऑस्ट्रेलिया से पाक की टीम धुलकर आई थी.

जो बड़े खिलाड़ी हैं, उनकी लगभग कमी है. देखा जाए तो केवल दो ही पुराने खिलाड़ी थे. इस नई टीम को आप पहले से ही कमज़ोर या हारनेवाली टीम मानकर चल रहे थे.

हालाँकि उन्होंने अपने प्रदर्शन को भारत से बेहतर करके दिखाया लेकिन वो ऐसी टीम नहीं थे जिसे भारत को हरानेवाली टीम के रूप में देखा जाए. वो जीते नहीं बल्कि भारत ने मैचों को अपने हाथों से जाने दिया.

जाने इसलिए नहीं दिया कि कोई भाईचारे वाली बात थी बल्कि जीतने की इच्छा ही नहीं थी. ये जज़्बा कि हम यह लड़ाई लड़ कर दिखा सकते हैं थी ही नहीं.

भारत ने एकबार 316 रनों का भी लक्ष्य रखा, उन्होंने वो भी जीतकर दिखा दिया लेकिन जब भारतीय टीम के सामने 150 या 200 रनों का भी लक्ष्य रहा तो उनसे वो भी नहीं हो सका.

भारतीय टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस बीमारी का इलाज ढूँढना है.

गेंदबाज़ी

भारत की पारंपरिक ताकत स्पिन रही है और उसे भी सुधारने की ज़रूरत है. भारत को चाहिए कि उसके बारे में गंभीरता से सोचे.

हालाँकि पाकिस्तान ने सिरीज़ जीत ली है और उसके पक्ष में तमाम कशीदे गढ़े जा रहे हैं लेकिन पाकिस्तान की टीम कितनी अच्छी है यह तो ऑस्ट्रेलिया में देख ही चुके हैं. ये टीम कहीं टिकनेवाली नहीं थी. जीती तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि भारतीय टीम इसके लिए तैयार नहीं थी.

इस श्रृंखला से यह नतीजा निकाल लेना कि पाकिस्तान की टीम काफ़ी सुधर गई है, ये ग़लत है. उस टीम में अभी वो कलेवर नहीं है जो एक अच्छी टीम में होना चाहिए.

कैसे सुधारें टीम

भारतीय टीम के सुधार के लिए क्या करें, इसकी पड़ताल करें तो पाएँगे कि इन्हें ऑस्ट्रेलियाई टीम के मॉडल को अपनाना होगा. वहाँ की टीम में अगर ऐसा दिखता है कि कोई तुर्रमखाँ बेहतर नहीं कर रहा है तो वो उसको अलग बिठा देते हैं.

इसका मतलब यह नहीं कि वो खिलाड़ी ज़ल्दी-जल्दी बदलते हैं. पिछले कुछ सालों में केवल तीन लोग ही नए आए हैं.

सारी की सारी टीम प्रदजर्शन के आधार पर बनी हुई है. तमाम लोग तो पिछले 10-15 सालों से खेल रहे हैं और अगर किसी का प्रदर्शन प्रभावित होता है तो उसके बारे में वो सख्त निर्णय भी करते हैं.

मुझे नहीं लगता कि भारत का क्रिकेट प्रतिष्ठान में ऐसी इच्छा, निष्ठा और ताकत है कि जो लोग ख़राब खेल रहे हैं, उनको बाहर बैठाया जाए और जो बेहतर खेलेंगे, उनको बढ़ावा दिया जाएगा.

इतने दिनों से कहा जा रहा है कि सौरभ का फ़ार्म बिल्कुल ख़राब है और उनसे कुछ नहीं हो रहा है. उन्हें आईसीसी ने छह मैचों के लिए बाहर किया और अब उनकी पैरवी में डालमिया जी आ गए हैं कि नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए.

उनका मुख्यमंत्री भी उनकी पैरवी कर रहा है. होना तो यह चाहिए था कि अगर आईसीसी उन्हें बाहर नहीं बिठा रहा तो बीसीसीआई को ऐसा करना चाहिए था.

ये कोशिश हर तरफ़ से है कि गांगुली के ख़िलाफ़ कुछ नहीं होना चाहिए.