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अटलांटा ओलंपिक में चमके थे पेस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1996 के अटलांटा ओलंपिक आते आते भारतवासी अपने खिलाड़ियों और एथलीटों के प्रदर्शन से निराश हो चुके थे, ज़्यादातर को शायद ये तक याद नहीं था कि ओलंपिक में उनके देश ने आख़िरी पदक कब जीता था. ऐसे में जब हॉकी टीम से कोई उम्मीद नहीं थी तो व्यक्तिगत खेलों में तो पदक का सवाल ही नहीं था. टेनिस मुक़ाबले के लिए लिएंडर पेस को वाइल्ड कार्ड मिला लेकिन वो फ़ैसला भी वाइल्ड कार्ड की बर्बादी ही लगा क्योंकि उस समय पेस दुनिया में 127वें नंबर के खिलाड़ी थे और उन्होंने तब तक सीनियर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई ख़िताब नहीं जीता था. पेस ने 1992 के ओलंपिक में भी हिस्सा लिया था, डबल्स में, लेकिन पहले दौर में ही निराशा हाथ लगी थी. भरोसा चार साल बाद वो कुछ अलग कर दिखाएँगे, ये उम्मीद भी ज़्यादा लोगों को नहीं थी. लेकिन लिएंडर को तब भी ख़ुद पर पूरा भरोसा था. पेस ने बीबीसी से बातचीत में कहा,"मैं एक ओलंपियन परिवार में पैदा हुआ और क्या आप जानते हैं कि मैं अपनी माँ की कोख में ही 1972 के ओलंपिक खेलों के दौरान आया था. इसलिए मैं तो बना ही ओलंपिक के लिए हूँ. खेल तो मेरे ख़ून में है तो मैं तो वहाँ मेडल जीतने ही गया था." अटलांटा में पेस ने अपने सिंगल्स अभियान की शुरुआत ही शानदार अंदाज़ में की और पहले दौर में अमरीका के जाने माने खिलाड़ी रिची रेनबर्ग को पटखनी दे दी. एक बार फिर साबित कर दिया कि प्रोफ़ेशनल टूर्नामेंट तो अलग बात है लेकिन तिरंगा झंडा देखते ही उनका दिल दोगुनी रफ़्तार से धड़कने लगता है, देश के लिए खेलते समय उनमें एक अजीब सी शक्ति आ जाती है. दूसरे दौर में पेस ने धराशायी किया वेनेज़ुएला के निकोलस परेरा को और तीसरे में बारी आई स्वीडन के दिग्गज टॉमस एंक्विस्ट की. क्वार्टरफ़ाइनल जीत कर तो उन्होंने कमाल ही कर दिया, इटली के रेंज़ो फ़र्लन को हरा कर पेस ने सेमी फ़ाइनल में जगह बनाई और अचानक उम्मीदों का पहाड़ उनके सामने आ खड़ा हुआ. अगासी से हारे सेमी फ़ाइनल में सामना था दुनिया के शीर्ष खिलाड़ियों में से एक आंद्रे अगासी से.
पहला सेट टाई ब्रेकर तक खिंचा लेकिन पेस के हाथ से निकल गया. फिर अगासी ने पेस को कोई मौक़ा नहीं दिया और 7-6, 6-3 से मैच जीत कर पेस के साथ साथ उनके करोड़ों समर्थकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. पेस मानते हुए कि वो दिन अगासी का था इसलिए उन्हें नाकामी हाथ लगी. वैसे तो मैं पहला सेट जीतने के काफ़ी क़रीब था लेकिन कलाई में चोट से काम और मुश्किल हो गया. पेस को हराने के बाद अगासी ने आख़िरकार स्वर्ण पदक पर क़ब्ज़ा किया. पर सेमिफ़ाइनल में नाकामी के बावजूद पेस के लिए मेडल की उम्मीदें अब भी ख़त्म नहीं हुई थीं. काँस्य पर क़ब्ज़ा कांस्य पदक जीतने का एक मौक़ा अब भी था जिसे टेनिस जानकार एस के कन्नन बख़ूबी याद करते हैं. ब्राज़ील के फ़र्नैंडो मेलीजेनी के ख़िलाफ़ उस मैच में दाँव पर था ओलंपिक का कांस्य पदक. लिएंडर पेस के लिए उस मैच की शुरुआत ख़राब रही और पहला सेट उन्हें 3-6 से गँवाना पडा. लिएंडर बताते हैं कि अपने जीवन के उस सबसे बड़े मैच में वो वापस कैसे आए लिएंडर उस अहम मैच को याद करते हुए कहते हैं,"एक सेट हारने के बाद मैंने ख़ुद को झकझोरा, सोचा मैंने इसी पल के लिए तो जीवन भर मेहनत की है तो इसे ऐसे कैसे हाथ से जाने दे सकता हूँ. करोडों भारतीयों की दुआएँ मेरे साथ हैं. मेरे माता पिता वहाँ थे, फिर मैंने मैच में वापस आने के लिए जी जान एक कर दिया." आख़िरकार पेस ने मैच जीता 3-6, 6-2, 6-4 से और भारत का नाम पदक तालिका में दर्ज कराया. पेस ने इतिहास रच दिया था, देश भर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई - 16 साल बाद भारत को ओंलपिक में पदक जो मिला था. ओलंपिक में इतिहास रचने के बाद पेस तो वहीं से सीधे अमरीकी ओपन खेलने जाना चाहते थे लेकिन ख़ुद भारत के राष्ट्रपति ने उनसे पहले देश लौटने को कहा जहाँ उनका बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था. लौटने पर पेस का ज़बर्दस्त स्वागत हुआ. पुरस्कारों की झड़ी लग गई, प्रायोजकों का ताँता लग गया. हर कोई पेस से मिलना चाहता था, उनसे हाथ मिलाना चाहता था, उनके साथ फ़ोटो खिंचवाना चाहता था. लिएंडर पेस एक स्टार बन गए थे. खेल के प्रति जुनून 17 जून 1973 को लिएंडर पेस का जन्म तो गोवा में हुआ लेकिन वो बड़े हुए कलकत्ता में. उनके पिता डॉ वेस पेस ख़ुद एक अंतर्राष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी रह चुके थे और उनकी माँ बास्केटबॉल में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं.
पिता ने तो भारतीय टीम के लिए खेलते हुए 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में देश को कांस्य पदक भी दिलाया था. बस यही जज़्बा लिएंडर में ख़ुद ब ख़ुद पैदा हो गया. 5 साल की नन्हीं उम्र में ही उन्होंने टेनिस का रैकेट उठा लिया जो उन्हें ओलंपिक पदक तक ले गया. आज भी जब लिएंडर से पूछा जाए कि आपने जो ढ़ेरों ख़िताब और ग्रैंड स्लैम जीते हैं, उनमें से सबसे क़ीमती कौन सा है, तो वो जवाब देने से पहले एक सेकेंड भी नहीं सोचते. तपाक से कहते हैं, "बिल्कुल, अभी तक तो सबसे क़ीमती ओलंपिक का कांस्य पदक ही है. अभी तक इसलिए कह रहा हूँ कि अभी एक ओलंपिक और सामने है और इस बार मैं डबल्स में भी पदक जीतने की कोशिश करूँगा. हालाँकि मेरा पिछला पूरा साल बीमारी की वजह से बर्बाद हो गया." पेस का मतलब साफ़ है कि इस बार एथेंस ओलंपिक में वो कांस्य नहीं बल्कि सोने के तमग़े पर नज़र गड़ाए बैठे हैं लिएंडर एड्रियन पेस ने 1990 में विंबल़न का जूनियर ख़िताब जीता और अगले ही साल दुनिया के नंबर एक जूनियर खिलाड़ी बन गए. उन्होंने 1992 के ओंलपिक खेलों में रमेश कृष्णन के साथ मिल कर डबल्स में क़िस्मत आज़माई लेकिन पहले ही दौर में हार गए. पर 1996 के ओलंपिक में कांस्य पदक के बाद आया सिगल्स में लिएंडर का सुनहरा समय. वो दुनिया के 73वें नंबर के खिलाड़ी बने, यूएस ओपन के तीसरे दौर तक भी पहुँचे. भूपति के साथ जोड़ी लेकिन फिर महेश भूपति के साथ उनकी जोड़ी ने कमाल दिखाना शुरू किया तो एकल मुक़ाबले कहीं पीछे छूटते गए.
ली और हेश की इस जोड़ी ने 1999 में विंबलडन और फ़्रेंच ओपन का डबल्स ख़िताब जीता और बाक़ी दो ग्रैंड स्लैम, ऑस्ट्रेलियन और अमरीकी ओपन के फ़ाइनल तक पहुँचे. इंडियन एक्सप्रेस के नाम से मशहूर ये जोड़ी दुनिया की नंबर एक जोड़ी भी बनी. लेकिन पेस के साथी महेश भूपति भी ओलपिक में जीते उनके पदक को ही पहले याद करते हैं. महेश भूपति कहते हैं, "जब लिएंडर ने ओलंपिक पकद जीता, मैं वहाँ मौजूद था, मैच देख रहा था. वो देश के लिए सचमुच गौरव का पल था. यही तो हर खिलाड़ी का सपना होता है." दुनिया के कई प्रोफ़ेशनल टेनिस खिलाड़ी आज भी ओलंपिक को महत्व नहीं देते. रूस के मरात साफ़िन कहते हैं कि टेनिस को ओलंपिक की ज़रूरत ही नहीं है. इस पर लिएंडर पेस का जवाब है - ओलंपिक तो खेल का क्षितिज है जहाँ पहुँच कर ही समझा जा सकता है कि ये क्या है. सचमुच अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर ने पदक तो तांबे का जीता लेकिन वो पल देश के लिए सुनहरा बन गया. |
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