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क्रिकेट वर्ल्ड कप का वो फ़ाइनल, जिसमें पाकिस्तानी खिलाड़ी और लोग दोनों रोए
- Author, मुहम्मद सुहैब
- पदनाम, बीबीसी उर्दू डॉट कॉम
उस हल्के हरे रंग की शर्ट पर बने सितारे से मैंने पहली बार काग़ज़ पर सितारा खींचना सीखा था.
उस शर्ट की पहली ख़ासियत यह थी कि वो जितनी आपके साइज़ से बड़ी होती वो उतनी आप पर जंचती थी और दूसरी ख़ासियत ये कि इस पर 'पाकिस्तान' ऐसे लिखा था जैसे यह एक ही अक्षर हो, मगर सबसे बढ़कर यह कि यही शर्ट पहनकर पाकिस्तान वर्ल्ड कप जीतने वाला था.
रविवार का दिन, जून की तपती दोपहर में हम तीन बजे के क़रीब टीवी के सामने टकटकी बांधे बैठ गए. आंखों में चमक थी और दिल में यक़ीन.
यक़ीन इसलिए कि चार दिन पहले ही हमने एक तेज़ रफ़्तार गेंदबाज़ को हल्के नीले रंग की ख़ूबसूरत ड्रेस में खिलाड़ी की विकेट को गिराते देखा था और एक 'लेफ़्टी' को उस टीम के बोलर को पछाड़ते.
अलमारी से ख़ास 14 अगस्त पर ही इस्तेमाल होने वाल झंडा तब मेरे कंधों पर था और मैं 'उस' तेज़ रफ़्तार गेंदबाज़ की तरह हाथ फैलाए घर के 10 चक्कर भी लगा चुका था और अपने पिता से यही शर्ट ख़रीदने का वादा भी ले चुका था۔
तब तक दिल में टीम के अजेय होने का भरोसा दिल में जम चुका था.
भरोसा इसलिए भी था क्योंकि कुछ ही हफ़्ते पहले पाकिस्तान ने उस पीली ड्रेस वाली टीम को हराया था, और क्या ही हराया था.
वसीम अकरम को विकेट लेने के बाद पविलियन की ओर दौड़ लगाने का दृश्य देखकर मुझे क्या पूरे पाकिस्तान को यक़ीन हो चला था कि ये वर्ल्ड कप हमारा है.
यक़ीन और भरोसा अपनी जगह लेकिन उस टीम के साथ कुछ दिल भी लगा लिया था. एक कम उम्र के बच्चे जब अपने आस पास मौजूद लोगों को टीवी पर नज़र आने वाले 11 खिलाड़ियों की वजह से ख़ुश होते पाते हैं तो वह और क्या करेगा.
ख़ैर सवा तीन बजे मैच शुरू हुआ और फिर कुछ ही देर में दृश्य बदलने लगा, दिल डूबने लगा, पाकिस्तान की बल्लेबाज़ी लड़खड़ाती हुई पविलियन लौटने लगी और शेन वॉर्न से नफ़रत होने लगी.
माहौल देखकर मेरे माता-पिता ने कहना शुरू कर दिया कि 'हार गई है, छोड़ो बंद कर दो टीवी, क्या फ़ायदा.'
मगर हम तो उस तेज़ रफ़्तार गेंदबाज़ को देखने बैठे थे, जो किसी भी हालात में मैच का नतीजा पलट सकता था. इतनी समझ कहां थी कि 133 रन के स्कोर का बचाव करना तक़रीबन नामुमकिन है.
इसलिए घर के आंगन में गए और लंबे रनअप से छह-सात गेंदें फेंकीं, दिल को कुछ तसल्ली मिली तो वापस टीवी के सामने जा बैठे.
साढ़े आठ बजे दुनिया धुंधली नज़र आने लगी, आंखें आंसू से भीग गईं, पाकिस्तान 1999 का वर्ल्ड कप फ़ाइनल हार गया और ज़िंदगी में पहली बार दिल टूट गया.
मैं तो चलो एक बच्चा था और बड़ों से यही सुनने को मिलता है कि हार, जीत खेल का हिस्सा है लेकिन 1999 के वर्ल्ड कप फ़ाइलन की हार शर्मनाक भी थी और अपमानजनक भी.
सक़लैन मुश्ताक़ का एक हालिया इंटरव्यू में ये बताना कि 'फ़ाइनल में हमें इतनी बुरी हार हुई कि हम रोते हुए ग्राउंड से वापस गए' कुछ तसल्ली देता है कि हम अकेले नहीं थे.
रात रोते-रोते सो गए और सुबह उठे तो दोस्तों, रिश्तेदारों और हर दूसरे 'अंकल' ने कुछ ऐसे शब्द बोले जो उस नन्हें से दिमाग़ में पटाख़ें फोड़ने के लिए काफ़ी थे. 'मैच फ़िक्स था... फैंक दिया... बिक गए... बेच आए.'
आज भी अगर आप यूट्यूब पर 99 के वर्ल्ड कप की अच्छी यादें ताज़ा करने जाएंगे तो 'संदेहजनक' हार को लेकर वीडियो मिलेंगे.
फ़ाइनल में सबसे बुरे प्रदर्शन को देखने वाली एक पीढ़ी के दिलों में से पाकिस्तान क्रिकेट उतर गई और फ़िक्सिंग का दाग़ भी हम आज तक अपने दामन से नहीं मिटा पाए.
अगले ही साल सामने आने वाली जस्टिस क़य्यूम रिपोर्ट ने एक और धक्का दिया. हालांकि, 1999 की वर्ल्ड कप हार पर संदेह के बाद मैचों की जांच के लिए बने बंधारी कमिशन ने तमाम खिलाड़ियों को फ़िक्सिंग के आरोपों से बरी कर दिया लेकिन क़य्यूम रिपोर्ट ने पाकिस्तान क्रिकेट की जो तस्वीर खींची, वही काफ़ी थी.
वो अंकल जो हर जुमले में फ़िक्सिंग शब्द का इस्तेमाल करते थे अब क़य्यूम रिपोर्ट भी लहराने लगे.
सेंचुरियन 2003, सबाइना पार्क 2007, मोहाली 2011, सिडनी 2010, लॉर्ड्स 2010, नॉटिंघम 2019... ये सूची बहुत लंबी और न जाने कब ख़त्म होगी.
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प्रतिभाशाली खिलाड़ियों का समूह
99 की टीम के लिए दुख इसलिए भी ज़्यादा होता है कि ये कोई आम टीम नहीं थी, बेहद प्रतिभाशाली खिलाड़ियों का एक ऐसा समूह था कि उसमें वक़ार यूनुस और मुश्ताक़ अहमद जैसे प्रमुख गेंदबाज़ मुश्किल से जगह बना पाते.
वर्ल्ड कप से पहले बीबीसी को दिए गए एक ख़ास इंटरव्यू में वसीम अकरम ने कहा था कि 'पाकिस्तान में लोग अभी से ये समझ बैठे हैं कि हम वर्ल्ड कप जीत चुके हैं.'
"मेरे लिए ये एक सम्मान की बात है कि मैं इतने प्रतिभावान खिलाड़ियों की कप्तानी कर रहा हूं."
उस्मान समीउद्दीन अपनी किताब 'दि ऑन क्वाइट वंस' में लिखते हैं कि 'जहाँ साल 1999 के दौरान देश में बेहद तनाव था वहीं पाकिस्तान क्रिकेट टीम ने कई बार उत्कृष्ट प्रदर्शन किया लेकिन ये संभवतः एक शानदार टीम की आख़िरी आग की लपटें थीं जो कम पड़ गईं.'
तो फिर ये बात कैसे मान लें कि सईद अनवर, अब्दुर रज़्ज़ाक़, शोएब अख़्तर, सक़लैन मुश्ताक़, मोहम्मद यूसुफ़ और वक़ार यूनुस जैसे उम्दा खिलाड़ी कोई वनडे वर्ल्ड कप नहीं जीत पाए.
इस टीम में कौन नहीं था एक शानदार ओपनर जिसे कमेंटेटर 'विश्व क्रिकेट का सबसे मनमोहक दृश्य' कहते थे और लेजेंड स्पिनर शेन वॉर्न आज भी उन्हें पाकिस्तान की सबसे बेहतरीन 11 खिलाड़ियों की टीम का हिस्सा बताते हैं.
एक ऐसा स्पिनर जिसने ऑफ़ स्पिन गेंदबाज़ी को नई रफ़्तार दी और 'दूसरा' नाम की गेंद से परिचय कराया.
लेजेंड बल्लेबाज़ इंज़माम उल हक़, उभरते हुए ऑलराउंडर अब्दुर रज़्ज़ाक़ और दुनिया के तेज़ गेंदबाज़ शोएब अख़्तर.
जहां यूसुफ़ योहाना की बल्लेबाज़ी तकनीक और क्लास तारीफ़ के क़ाबिल थी वहीं मोईन ख़ान की अगली टांग पर मारे गए छक्के भी प्रशंसा पाते थे.
और इन सबके कप्तान विश्व क्रिकेट के इतिहास के सबसे प्रसिद्ध बाएं हाथ के तेज़ गेंदबाज़ वसीम अकरम थे.
महान टीम से मामूली टीम का सफ़र
अगर आप इन्हीं खिलाड़ियों का करियर देखें तो एक दो के अलावा ज़्यादातर वो नहीं पा सके जिसके वो हक़दार थे.
इस तरह वो खिलाड़ी जिनके करियर का अंत शानदार होना चाहिए था वो कहीं गुम हो गए और साथ ही वो पीढ़ी भी जो उनसे प्रभावित होकर क्रिकेट में आना चाहती थी.
सईद अनवर जैसे ओपनर की तलाश आज भी जारी है, आत्मविश्वास की कमी वैसी ही है और आज भी बल्लेबाज़ों की लाइन लगने में देर नहीं लगती.
इन सबके लिए 1999 के वर्ल्ड कप की हार को ही अपराधी ठहराना ग़लत होगा लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि अगर 20 जून 1999 की शाम वर्ल्ड कप वसीम अकरम ने उठाया होता तो आने वाले सालों में यहां क्रिकेट से जुड़ी व्यवस्था ज़रूर मज़बूत हुई होती.
एक दशक में दो वर्ल्ड कप जीतने से विश्व स्तर पर पाकिस्तान की अहमियत में बढ़ोतरी होती और क्रिकेट के हवाले से किए जाने वाले फ़ैसलों में इसकी बात का भी वज़न होता लेकिन इसके मुक़ाबले पाकिस्तान के हिस्से में स्पॉट फ़िक्सिंग, डोपिंग स्कैंडल्स और बस जग हंसाई ही आई.
जब इस टीम के अधिकतर पुराने खिलाड़ी सन 2003 में क्रिकेट को अलविदा कह गए तो उसके बाद निश्चित रूप से नई टीम एक 'महान' टीम का विकल्प नहीं थी.
यही नहीं पाकिस्तानी क्रिकेट की पारंपरिक आक्रामक शैली भी धीरे-धीरे जाती रही और परफ़ॉर्मेंस भी गिरती गई. हम एक महान टीम से एक मामूली टीम बन गए.
उस साल बड़ों की ओर से बोले गए कम से कम तीन झूठ मुझे अब भी याद हैं.
एक ये कि हम कारगिल की जंग न जीते न हारे, दूसरा ये कि फ़ौजी हुकूमत बहुत अच्छी साबित होगी और तीसरा ये कि हार-जीत होती रहती है ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं है.
हमारी पीढ़ी और पाकिस्तान में क्रिकेट के प्रशंसकों की ज़ुबान पर ये जुमले कि 'अगर ये हो जाता तो' भी शायद इसी हार के बाद चढ़ा.
'अगर वसीम अकरम टॉस जीतकर पहले बोलिंग कर लेता तो. अगर सईद अनवर बल्ले की ग्रिप तब्दील न करते तो... वग़ैराह वग़ैराह.'
अगर ये वर्ल्ड कप जीत जाते तो... शायद कुछ न बदलता, 92 के बाद क्या बदला था, सत्ता? कल्चर में कौन सी तब्दीली आई थी? हां, एक पीढ़ी का दिल न टूटता, क्रिकेट से दिल उचाट न होता.
दिल का क्या है, दिल मान भी जाए लेकिन जब दो दशकों में पांच बार एक ही करतब दोहराया जाए, तो निराशा बनती है.
लॉर्ड्स के मैदान पर खेले गए उस फ़ाइनल ने घटनाओं के एक ऐसे क्रम को जन्म दिया जो आज तक थम नहीं सका.
21वीं सदी में दाख़िल होने से पहले चंद बेहतर फ़ैसलों के ज़रिए क्रिकेट का ही नहीं पूरे राष्ट्र की दिशा तय करने का मौक़ा गंवाया और आज मेरे जैसे लोग यही सोचते हैं कि..
ज़िंदगी जबरे मुसलसल की तरह काटी है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं
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