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BBC ISWOTY- पूजा गहलोतः वॉलीबॉल खिलाड़ी जो पहलवान बनीं
पूजा गहलोत की रूचि बचपन से ही खेलों में थी. वो सिर्फ़ छह साल की थीं जब उन्होंने अपने पहलवान चाचा धर्मवीर सिंह के साथ अखाड़े में जाना शुरू कर दिया था.
पूजा पहलवानी की तरफ़ आकर्षित हो रहीं थीं लेकिन उनके पिता विजेंद्र सिंह उनके पहलवान बनने के समर्थन में नहीं थे. उन्होंने उनसे पहलवानी के अलावा कोई और खेल चुनने को कहा.
उन्होंने पिता की बात मानी भी और अपनी पसंद का खेल वॉलीबॉल खेलना जारी रखा. वो इस खेल में राष्ट्रीय स्तर तक खेलीं.
लेकिन नई दिल्ली में साल 2010 में हुए कॉमनवेल्थ खेलों में गीता और बबीता फोगाट की कामयाबी देखकर उनकी ज़िंदगी बदल गई. हरियाणा की इन दोनों बहनें ने राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीते थे.
पूजा जान गईं थीं कि उन्हें भी फोगाट बहनों के ही नक़्शेक़दम पर चलना है. हालांकि उनके पिता इससे बहुत प्रभावित नहीं थे. उन्होंने पूजा से कहा कि वो उसे पहलवानी करने से तो नहीं रोकेंगे लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें खुद अपने इंतज़ाम करने होंगे. उन्हें लगा था कि पहलवानी के प्रति उनकी बेटी का आकर्षण बहुत ज़्यादा दिन नहीं रहेगा.
शुरुआती चुनौतियों को चित करना
पहलवान बनने की चाह रखने वाली युवा पूजा के लिए शुरूआती दौर में पहलवानी करना आसान नहीं था. उस वक्त वो बाहरी दिल्ली के नरेला इलाक़े में रहती थीं और वहां लड़कियों के लिए पहलवानी की कोई सुविधा नहीं थी.
उन्हें ट्रेनिंग के लिए दिल्ली आना पड़ता था. पूजा बताती हैं कि उन्हें रोज़ाना बस से तीन घंटे का सफ़र करना होता था. इसके लिए वो सुबह तीन बजे उठ जाती थीं.
जो समय उन्हें अपनी ट्रेनिंग में लगाना था वो केवल ट्रेनिंग लेने के लिए आने-जाने पर ही ख़र्च हो रहा था. आख़िरकार उन्होंने दिल्ली में ट्रेनिंग लेना बंद किया और अपने घर के पास ही लड़कों के साथ अभ्यास शुरू कर दिया.
उनका अभ्यास और लगन देखकर आख़िरकार उनके पिता भी प्रभावित हुए और उनकी बेहतर ट्रेनिंग के लिए वो पूरे परिवार को लेकर रोहतक में रहने चले गए.
और फिर कामयाबी ने दस्तक दी
कड़ी मेहनत और परिवार के समर्थन ने पूजा में जोश भर दिया और वो साल 2016 में रांची में हुई जूनियर रेसलिंग चैंपियनशिप में 48 किलोभार वर्ग में गोल्ड जीतने में कामयाब रहीं. लेकिन इसी साल उन्हें चोट लग गई और वो एक साल तक पहलवानी से दूर रहीं.
लेकिन लगन और अच्छी चिकित्सकीय देखभाल के बाद वो फिर से रिंग में उतरीं. साल 2017 में ताइवान में हुई एशियन जूनियर चैंपयिनशिप में उन्होंने 51 किलोभार वर्ग में गोल्ड मेडल जीता. ये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहली कामयाबी थी.
2019 में हंगरी के बुडापेस्ट में अंडर-23 वर्ल्ड रेसलिंग चैंपयिनशिप में रजत पदक जीतकर उन्होंने कामयाबी की एक और सीढ़ी चढ़ी. जब वो पदक जीतकर सोनीपत लौटीं तो जनसमूह ने उनका स्वागत किया. वो इन दिनों अपने परिवार के साथ यहीं रहती हैं.
उनके कई रिश्तेदार और पड़ोसी जो एक समय उनके पहलवानी करने के कारण उनसे नाराज़ थे और उनके पिता पर उनकी पहलवानी रोकने के लिए दबाव बनाते थे- अब वो सभी उन पर गर्व करते हैं.
पूजा कहती हैं कि महिलाओं और ख़ास कर कम आय वर्ग की महिलाओं के लिए खेलों में आने के लिए माहौल बेहतर होना चाहिए. वो कहती हैं कि आमतौर पर ग़रीब परिवारों की लड़कियां ही खेल को करियर के तौर पर चुनती है.
वो कहती हैं, सरकार और दूसरे संस्थानों को महिला खिलाड़ियों का हौसला बढ़ाना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए जो अपने खानपान और ट्रेनिंग पर होने वाला ख़र्च नहीं उठा सकतीं.
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