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ग्लोबल वॉर्मिंग और भारत पर ख़तरा | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
18वीं शताब्दी के अंतिम दौर से 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर को औद्योगिक क्रांति का दौर कहा जाता है जब वाष्प की शक्ति का पता चला और फिर बड़े-बड़े उद्योगों ने दुनिया की शक्लो-सूरत बदल दी. पहले पहल तो कहा गया कि दुनिया सुंदर होती जा रही है लेकिन फिर पर्यावरण में कुछ ऐसी हलचलें होने लगीं कि औद्योगीकरण के इस सरपट भागते घोड़े पर लगाम लगाने की बात होने लगी. लेकिन ब्रेक लगाना इतना आसान नहीं होता. कहते हैं कि पिछले लगभग 200 साल में धरती का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इससे क्या कुछ हो सकता है उसकी एक बानगी अभी तक पर्यावरण में हुई हलचलों से मिल चुकी है. लंबे अर्से से धरती के तापमान में आई वृद्धि या ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर तरह-तरह की आशंकाएँ और चेतावनी प्रकट की जाती रही हैं और पिछले दिनों ब्रिटेन सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर डेविड किंग ने भी एक ऐसी चेतावनी दी जिसे सबसे गंभीर चेतावनी बताया गया. वो चेतावनी ये थी कि अगर पर्यावरण को दूषित करनेवाले कारणों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो जल्दी ही वो दिन आएगा जब धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस ऊपर चला जाएगा. तीन डिग्री वृद्धि का अर्थ
धरती के तापमान का मतलब होता है धरती के विभिन्न स्थलों के तापमान का वार्षिक औसत. अमरीका स्थित अंतरिक्ष संस्था नासा के गोडार्ड इंस्टीच्यूट ऑफ़ स्पेस स्टडीज़ के अनुसार वर्ष 1950 में धरती का तापमान 13.8 डिग्री सेल्सियस था और वो वर्ष 1999 में बढ़कर लगभग 14.5 डिग्री सेल्सियस हो गया. उष्णकटिबंधीय देशों में अपनी तरह के एकमात्र संस्थान पुणे के भारतीय उष्णकटिबंध मौसम विज्ञान संस्थान के प्रोफ़ेसर जी बी पंत बताते हैं कि तीन डिग्री तापमान का बढ़ना वाकई चिंताजनक हो सकता है. प्रोफ़ेसर पंत ने कहा,"भारत में कई जगह गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है और धरती के तापमान के तीन डिग्री बढ़ने से ये हो सकता है कि उन गर्म स्थलों पर तापमान पाँच-छह डिग्री तक ऊपर जा सकता है". "अगर किसी स्थान का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस हो गया तो वह असह्य हो जाएगा और इसलिए ऐसा अगर 200 साल में भी होता है तो भी वो काफ़ी गंभीर बात होगी." प्रभाव
धरती के गर्म होते जाने के प्रभाव काफ़ी ख़तरनाक हो सकते हैं. एक ख़तरनाक प्रभाव तो ये बताया जाता है कि धरती के गर्म होने से पर्वतों पर ग्लेशियर या हिमखंड पिघलेंगे, फिर समुद्र के पानी का आयतन बढ़ेगा और फिर ये होगा कि समुद्र जल स्तर के बढ़ने से तटीय इलाक़े डूब जाएँगे. लेकिन जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम के तहत जलवायु परिवर्तन पर बनी अंतर्सरकारी समिति के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र कुमार पचौरी बताते हैं कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में ख़तरे और भी हैं. डॉक्टर पचौरी ने कहा,"भारत-चीन जैसे देशों में मुश्किल ये है कि ग्लेशियर तेज़ी से पिघलते जा रहे हैं जिससे पीने के पानी का संकट खड़ा हो सकता है और साथ ही बाढ़ और सूखे का ख़तरा पैदा हो सकता है". "इसके अलावा स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा क्योंकि ऐसे कीटाणु जो पहले नहीं जीवित रह सकते थे वे तापमान बढ़ने पर जी सकते हैं जिनसे बीमारियों का ख़तरा हो सकता है". कृषि पर असर
भारत में जिन क्षेत्रों पर असर पड़ा है उसका एक उदाहरण मिलता है कृषिक्षेत्र में गेहूँ के उत्पादन में आई गिरावट से. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर ने जलवायु परिवर्तन के खेती पर असर का पता लगाने के लिए एक बड़ा प्रोजेक्ट शुरू किया है. आईसीएआर में कार्यरत सहायक महानिदेशक पी डी शर्मा बताते हैं,"अचानक गर्मी बढ़ने से गेहूँ की बालियों में अन्न विकसित नहीं हो पाता है." उन्होंने बताया कि गेहूँ का उत्पादन एक समय में 21 करोड़ 20 लाख टन तक चला गया था लेकिन उसके बाद वो ऊपर नहीं जा रहा है बल्कि उसमें कमी आती गई है. जानकारों का मत है कि धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए समय रहते कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता है और इसके लिए अमरीका आदि विकसित देशों के अतिरिक्त भारत-चीन जैसे देशों को भी मिलकर प्रयास करने होंगे. |
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