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कंप्यूटर वायरस की उम्र बीस साल हुई

कंप्यूटरों की नींद हराम करे देने वाला वायरस इस सप्ताह बीस साल का हो रहा है.

फ्रेड कोहेन नाम के एक अमरीकी छात्र ने कंप्यूटर सुरक्षा में प्रयोग के तहत पहला वायरस बनाया था.

कोहेन ने पहले वायरस की ईजाद तब की थी जब वह कैलीफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में शोध कर रहे थे.

लेकिन इस समय तो क़रीब साठ हज़ार तरह-तरह के वायरस बन चुके हैं और वे समय-समय पर कंप्यूटरों को अपना शिकार बनाते रहते हैं.

कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया में अफ़रा-तफ़री मचाने के लिए वायरस बनाने वालों ने अब नए-नए तरीक़े अपनाने शुरू कर दिए हैं.

हालाँकि वायरस बनाने का श्रेय कोहेन को को जाता ही है लेकिन कोहेन ही ऐसे पहले कंप्यूटर वैज्ञानिक थे जिन्होंने उसका प्रयोग करके दिखाया.

उन्होंने वायरस की परिभाषा कुछ इस तरह दी थी, "यह एक ऐसा कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर है जो अन्य कंप्यूटरों को सॉफ़्टवेयर को अपनी तरह से ढाल लेता है और उसमें ख़ुद को मिला लेता है."

कोहेन ने वायरस को एक ग्राफ़िक सॉफ़्टवेयर में जोड़ दिया जिसे वीडी नाम दिया गया. यह साफ़्टवेयर मूल रूप से वैक्स नाम के एक छोटे से कंप्यूटर के लिए बनाया गया था.

कोहेन ने जो तमाम परीक्षण किए उनमें वायरस एक घंटे के अंदर उस कंप्यूटर के सभी हिस्सों में पहुँचने में कामयाब हो गया. उसके बाद के प्रयोगों में यह समय एक घंटे से घटकर पाँच मिनट रह गया.

कोहेन ने वायरस के इस प्रयोग के नतीजे दस दिसंबर 1983 को एक सेमिनार में पेश किए थे.

वायरस के ख़तरे को देखते हुए इस तरह के प्रयोगों पर पाबंदी लगा दी गई लेकिन कोहेन अन्य कंप्यूटरों पर असर दिखा सकने वाले वायरसों के प्रयोग करते रहे.

धार बढ़ती गई

कोहेन ने सेमिनार में पेश किए गए अपने पर्चे में लिखा था, "वायरस अनेक कंप्यूटरों के नेटवर्क में भी उसी तरह फैल सकता है जैसे एक कंप्यूटर के सॉफ़्टवेयर में फैलता है और विभिन्न साफ़्टवेयरों को ख़तरा पैदा कर सकता है.

बस उसके बाद से तो वायरसों के हमलों का सिलसिला शुरु हो गया.

पहला मुख्य वायरस ब्रेन नाम का था जो 1986 में पाकिस्तान से वजूद में आया. इस वायरस का निर्माण मुख्य रूप से यह देखने के लिए किया गया था कि कहीं उनके सॉफ़्टवेयर की कोई नक़ल तो नहीं कर रहा है.

1992 में माइकलेंजेलो नाम के वायरस को छह मार्च को हमला करना था जिसने मीडिया में अफ़रा-तफ़री मचा दी लेकिन उससे जिस नुक़सान का अंदाज़ा लगाया गया था वह हुआ नहीं.

उसके बाद जब माइक्रोसॉफ़्ट का विंडोज़ साफ़्टवेयर आया तो वायरस निर्माताओं ने उसे निशाना बनाना शुरु कर दिया.

विंडोज़ के वर्ड साफ़्टवेयर के ज़रिए वायरस तेज़ी से फैला क्योंकि लोग अधिकतर इसी के ज़रिए इंटरनेट पर अपने दस्तावेज़ों का आदान-प्रदान करने लगे थे.

विंडोज़ ने जैसे-जैसे अपने सॉफ़्टेयर में सुधार किया,वायरस निर्माता भी उसी रफ़्तार से आगे बढ़ते रहे.

मार्च 1999 में मेलीसा नाम के वायरस ने तो तहलका ही मचा दिया. इसने अपने साथ एक छोटा सा वायरस भी बनाया जो माइक्रोसॉफ़्ट आउटलुक की पता सूची पर हमला करता था और वहीं से ख़ुद को अन्य कंप्यूटरों को ई-मेल करने का इंतज़ाम कर देता था.

यानी यह जिस कंप्यूटर पर हमला करता था उस कंप्यूटर का माइक्रोसॉफ़्ट एक नए मेल के रूप में इसे अन्य कंप्यूटरों को ई-मेल करने लगता था.

इंटरनेट की लोकप्रियता बढ़ने से इस वायरस का चलन भी बढ़ा और इसने कामयाबी भी हासिल की.

मेलिसा एक ऐसा ताक़तवर वायरस रहा है जो ई-मेल प्रणाली की ख़ामियों को सामने लाया.

अब तो हालत ये है कि सन 2000 के बाद से लगभग हर साल ही कोई न कोई ख़तरनाक वायरस हमला करता रहता है और ये वायरस इंटरनेट को अपने साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

लव बग नाम के वायरस ने 2000 में हमला किया था उसके बाद निमदा और कोड रेड ने क़हर ढाया था.

हाल ही में सोबिग, स्लेमर और एमएस ब्लास्ट जैसे वायरसों ने कंप्यूटर इस्तेमाल करने वालों की नींद उड़ा दी थी और इन्होंने इतना नुक़सान किया जिसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया गया था.