लोग देखेंगे चंद्रग्रहण, पर कंपनियों की नज़रें पूरे चांद पर

इमेज स्रोत, NASA
- Author, जस्टिन पार्किन्सन
- पदनाम, बीबीसी न्यूज़
रविवार रात से इस साल का पहला चंद्र ग्रहण होने वाला है. यह पूर्ण चंद्र ग्रहण होगा. इसे 'सुपर ब्लड मून' का नाम दिया गया है.
इसे ब्लड मून नाम इसलिए दिया गया क्योंकि ग्रहण के दौरान चंद्रमा लाल रंग का हो जाएगा और धरती के बेहद करीब होगा.
ज़ाहिर है, इस ख़ूबसूरत नज़ारे का दीदार करने के लिए कई लोगों की निगाहें आसमान पर टिकी होंगी. मगर चांद पर हाल के दिनों में उन लोगों की नज़र भी है, जो उसकी सतह के नीचे छिपे खनिज का दोहन करके मालामाल होना चाहते हैं.
कई कंपनियां चांद की सतह से कीमती पदार्थों का खनन करना चाहती हैं. लेकिन चांद पर स्वामित्व का दावा करने वाले इंसानों के लिए क्या कुछ कायदे-कानून मौजूद हैं?
आज से पचास साल पहले नील आर्मस्ट्रॉंन्ग ने चांद पर कदम रखा था, ऐसा करने वाले वो पहले इंसान हैं. उस वक्त उन्होंने कहा था, "एक आदमी का छोटा कदम, मानवता के लिए बड़ी छलांग."
इस मिशन पर उनके साथ उनके सहयोगी बज़ एल्ड्रिन भी गए थे. जिन्होंने नील के बाद चांद की सतह पर कदम रखा. इन दोनों ने चांद के उस मैदानी हिस्से का भ्रमण किया जो हमें धब्बे की तरह दिखाई देता है.
अपने स्पेसक्राफ्ट से नीचे उतरकर जब उन्होंने दाएं-बाएं देखा तो उनके मुंह से निकल पड़ा वहां क्या शानदार वीरानी है.

इमेज स्रोत, AFP
जुलाई 1969 के इस ओपोलो 11 अभियान के बाद से अबतक चांद पर कोई दूसरा मिशन नहीं गया है. 1972 के बाद वहां किसी इंसान ने कदम नहीं रखा.
मगर जल्दी स्थिति बदल सकती है क्योंकि कई कंपनियां चांद पर जाने और इसकी सतह पर सोना, प्लैटिनम या इलेक्ट्रोनिक्स में इस्तेमाल किए जाने वाले उन खनिजों का खनन करने की संभावनाएं तलाश रही हैं जो धरती पर दुर्लभ हैं.
इससे पहले इसी महीने चीन ने चांद की उस पार वाली सतह पर एक जांच अभियान उतारा है और उसने वहां पर कपास का बीज अंकुरित करने में कामयाबी पाई. चीन यहां पर शोध के लिए नया बेस स्थापित करने की संभावनाएं तलाश रहा है.
जापान की कंपनी आईफ़र्म पृथ्वी और चांद के बीच आने-जाने के लिए एक प्लैटफॉर्म बनाने की योजना कर रही है ताकि जांद के ध्रुवों पर पानी की तलाश की जाए.
मगर क्या ऐसे नियम हैं जो यह सुनिश्चित करें कि एल्ड्रिन जिस वीरानी की बात कर रहे थे, वह बनी रहे? या ऐसा तो नहीं कि पृथ्वी का इकलौता बड़ा प्राकृतिक उपग्रह कारोबार का शिकार हो जाएगा और इसके संसाधनो व ज़मीन पर नियंत्रण के लिए राजनीति होने लगेगी?
अंतरिक्ष में खोगलीय चीज़ों पर मालिकाना हक़ का मसला शीत युद्ध के समय का है, जब अंतरिक्ष अभियानों की शुरुआत हुई थी. जिस समय नासा चांद के लिए पहले अभियान की तैयारी कर रहा था, संयुक्त राष्ट्र ने 1967 में आउटर स्पेस ट्रीटी पेश की, जिसपर अमरीका, सोवियत संघ और ब्रिटेन ने हस्ताक्षर किए.
इस समझौते में कहा गया है, "बाहरी अंतरिक्ष, जिसमें चंद्रमा और अन्य खगोलीय पिंड हैं, उसे कोई राष्ट्र अपना नहीं बना सकता, कब्ज़ा करके या अन्य तरीकों से नियंत्रण करके संप्रभुता का दावा नहीं कर सकता."
स्पेस स्पेशलिस्ट कंपनी एल्डन अडवाइज़र्स के निदेश जोएन वीलर इस संधि को अंतरिक्ष की महत्वपूर्ण संधि बताती हैं. इससे आर्मस्ट्रॉंग और उनके बाद जिन लोगों ने चांद पर झंडा गाड़ा, उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता. क्योंकि यह संधि किसी भी व्यक्ति, कंपनी या देश को किसी तरह के अधिकार नहीं देती.
व्यावहारिकता में 1969 में चांद पर मालिकाना हक़ और खनन आदि के अधिकारों का कोई ख़ास महत्व नहीं था. मगर अब तकनीक का विकास हुआ है और इस कारण भले ही आज नहीं, मगर भविष्य में फ़ायदे के लिए संसाधनों के दुरुपयोग की आशंका पैदा हो गई है.
1979 में संयुक्त राष्ट्र ने मून अग्रीमेंट के नाम से पहचाना जाने वाला नया समझौता पेश किया. यह चांद और अन्य खगोल पिंडों में चलने वाली गतिविधियों को संचालित करने को लेकर था. यह समझौता कहता है कि ये गतिविधियां सिर्फ शांतिपूर्वक उद्देश्यों के लिए की जा सकती हैं और किसी भी तरह का बेस बनाने से पहले संयुक्त राष्ट्र को सूचित करना ज़रूरी होगा.
समझौते में यह भी कहा गया था, "चांद और इसके प्राकृतिक संसाधन मावता की साधी विरासत है" और इस तरह के संसाधनों का इस्तेमाल करना संभव हो जाएगा तो इसके लिए अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाई जाएगी.
मून अग्रीमेंट के साथ समस्या यह है कि 11 देशों ने ही इसपर हस्ताक्षर किए हैं. भारत और फ्रांस भी इनमें शामिल हैं. जबकि अंतरिक्ष में दखल रखने वाले चीन, अमरीका, रूस और ब्रिटेन ने इसपर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.
मगर वीलर कहती हैं कि इस तरह के समझौतों के नियमों को लागू करना आसान नहीं है. विभिन्न देशों को इस तरह की संधियों को अपने यहां क़ानून के तौर पर लागू करना पड़ता है और फिर कंपनियों और लोगों को उस क़ानून का पालन करने के लिए बाध्य करना पड़ता है.
जरनल ऑफ़ स्पेस लॉ की पूर्व एडिटर-इन-चीफ़ प्रोफ़ेसर जोएन आइरीन गैब्रिनोविक्ड़ मानती हैं कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून किसी तरह की गारंटी नहीं देते क्योंकि इन्हें लागू करने के पीछे राजनीति, अर्थव्यवस्था और लोगों के विचारों की भूमिका रहती है.
हाल के सालों में वैसे भी मौजूदा समझौतों और आकाशीय पिंडों पर किसी देश के मालिकाना हक़ न होने के नियमों को चुनौती मिली है.
2015 में अमरीका ने कमर्शियल स्पेस लॉन्च कॉम्पिटीटिवनेस एक्ट पारित किया था, जिससे अमरीकी नागरिकों यह अधिकार मिल गया था कि वे किसी क्षुद्रग्रह से निकाले खनिज पर अधिकार जता सकते हैं. यह चांद पर तो लागू नहीं होता, मगर इस नियम का विस्तार किया जा सकता है.
2017 में लक्सेमबर्ग ने अपने यहां एक क़ानून बनाया जिससे अंतरिक्ष में मिले संसाधनों पर इसी तरह का मालिकाना हक़ दिए जाने को मंज़ूरी मिल गई. उप प्रधानमंत्री एटिएन श्नाइडर ने कहा कि इससे उनका देश इस क्षेत्र में यूरोप का अग्रणी देश बन जाएगा.
इस तरह के खोजी अभियान चलाने और पैसा कमाने की इच्छा तो लोगों में पहले से ही थी, मगर अब देश भी इस मामले में कंपनियों की मदद करने में पहले से ज़्यादा इच्छुक नज़र आ रहे हैं.

इमेज स्रोत, Getty Images
नलेडी स्पेस लॉ एंड पॉलिसी में वकील हेलेन ताबेनी कहती हैं, "स्पष्ट है कि किसी भी तरह का खनन हो, वह चाहे वहां से चीज़ों को धरती पर लाने के लिए हो या चांद पर रखकर वहीं पर इस्तेमाल करने के लिए हो, यह चांद को नुकसान पहुंचाना है."
उनके मुताबिक़ यह कहा जा सकता है कि अमरीका और लक्सेमबर्ग ने बाहरी अंतरिक्ष के मामले में दादागीरी करते हुए बाहरी अंतरिक्ष पर हुए समझौतों की उपेक्षा की है. वह कहती हैं, "मुझे इस बात को लेकर शक़ है कि अंतरिक्ष में मिलकर और बराबरी से खोजबीन करने के नैतिक विचारों का सम्मान हो पाएगा."
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)















