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राजस्थान में जातिवाद की लहर
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राजस्थान में जात पात की उठी लहर ने चुनावी मैदान में उतरे राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है क्योंकि प्रत्याशी चयन में जाति ही
सबसे बड़ा पैमाना बन गया है.
जातियों में भी बात उप जातियों तक जा पहुँची है. जाति पंचायतों के सामने सियासी पार्टियाँ बौनी साबित हो रही हैं. दुनिया भर के हिन्दुओं को एक करने में जुटी विश्व हिंदू परिषद भी इसे लेकर चिंतित है मगर राजनीतिक विश्लेषक कहते है कि जात-पात का बोलबाला ऐसे ही जारी रहा तो लोकतंत्र ही दांव पर लग जाएगा.
राज्य की सियासी फिज़ां में घुले नारों में अब जाति का आवेग और उन्माद है. चुनावों की घोषणा के साथ ही जाति पंचायतों ने अपना दबाव और दायरा इतना बढा लिया है कि उसके आगे राजनीतिक दल ख़ुद को बेबस महसूस करने लगे हैं. सतारूढ़ बीजेपी के अध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर साफ़गोई से स्वीकार करते हैं, "मैं बहुत ही विचलित महसूस करता हूँ, हमारे कार्यकर्ता भी ये नहीं कहते कि उन्होंने पार्टी में काम किया है और संगठन की सेवा की है. वो सीधा बताते हैं कि उनकी जाति क्या है और उस जाति के इतने वोट हैं. वो काडर के आधार पर टिकट की मांग नहीं कर करते. बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और चुनौतीपूर्ण है." वसुंधरा ज़िम्मेदार पर क्या इसके लिए उनकी पार्टी जिम्मेदार नहीं है. माथुर कहते हैं, "ये सब दस-पन्द्रह वर्ष से चल रहा था. जिसने भी जाति की संस्कृति शुरू की, उसका असर हमारे ऊपर भी आया है. दरसल ये शुरूआत बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से हुई है. ये मैंने गुजरात में भी देखा है. हमारी पार्टी को इसके लिए दोष देना ठीक नहीं है."
कोई समाज जब प्रगति करता है तो उससे सौहार्द्र बनता है, शास्त्र बनते हैं लेकिन राजस्थान में किसी ने जाति के नाम पर लाठियां चलाईं तो किसी ने शस्त्र. पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इसके लिए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को जिम्मेदार बताते हैं, "मुख्यमंत्री ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है. उन्होंने जातियों के प्रमुखों को भोज पर बुलाने की शुरूआत की. जाति सम्मेलनों को बढ़ावा दिया. जातियों को आपस में लड़ाया. इसी का ही परिणाम राजस्थान आज भुगत रहा है." हर जाति अपनी संख्या का हिसाब लगाकर पार्टियों से टिकट मांग रही है. इन जाति संगठनो के बताये आंकड़ों पर भरोसा करें तो राजस्थान की जनसंख्या बहुत ज्यादा हो जाती है. ब्राह्मण महासभा के श्यामसुंदर शर्मा का दावा है कि राज्य में उनकी बिरादरी ग्यारह फीसद है और उस हिसाब से उन्हें 22 टिकट चाहिए. उनका कहना है कि ऐसा न हुआ तो वे दोनों पार्टियों को धूल चटा देंगे. जब सारी जातियां इसी आधार पर टिकट मांग रही हैं तो ब्राह्मण क्यों नहीं मांगें. 70 साल के गोकुलचंद साहू तीन दशक से एक पार्टी के कार्यकर्ता हैं. वे कहते हैं, ''जब जाट-जाट की मदद कर रहा है, माली-माली के लिए टिकट मांग रहा है. मैं जो जाति से तेली हूँ, मुझे क्यों नहीं इसी आधार पर टिकट मिले.'' गोकुलचंद जिस पार्टी के सदस्य हैं कभी उस पार्टी ने 'न जात पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर' जैसे नारे रचे थे. पर अब यह पार्टी भी जातिगत गणित में उलझी है और टिकट के लिए यह एक प्रमुख पैमाना हो गया है. जाति की पैठ बढ़ी वो राममंदिर आन्दोलन का दौर था जब "जो हिंदू हितों की बात करेगा वही भारत में राज करेगा'' जैसे नारे गूंजे थे. अब इन नारों को जाति के गौरव गान ने पीछे छोड़ दिया है. अब जाति पंचायतें कह रही हैं जिसकी जितनी ताकत, उसकी उतनी सत्ता में हिस्सेदारी.
इसे लेकर विश्व हिंदू परिषद जैसी हिंदू संस्थाओं की चिंता बढ़ गई है. परिषद् के अध्यक्ष नरपत सिंह शेखावत चिंता के साथ कहते हैं, "हिंदू समाज में जाति के नाम पर हो रहा ये विभाजन हमारे लिए चिंता का विषय है. राजनीति ने ये विभाजन पैदा किया है. हम जाति में विश्वास नहीं करते और पूरे हिंदू समाज को एक करने में लगे हैं लेकिन इन हालात ने हमारे सामने दिक्कत पैदा कर दी है. मगर हम समाज को एक करेंगे." राजस्थान विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर रूप सिंह बारेठ कहते हैं, "चुनावी राजनीति में जाति की पैठ गहरी हो गई है. चुनाव में जाति को तरजीह देना तो राजनीति के हाथ में है मगर चुनाव के बाद जाति के जिन्न को वापस बोतल में बंद करना नेताओं के हाथ में नहीं होगा. ये लोकतंत्र के लिए बहुत ही ख़तरनाक है क्योंकि चुनाव के बाद यही जातियां अपनी मांगें रखेंगी और न माने जाने पर पर सड़क पर उतरेंगी." पिछले पॉच साल में राजस्थान के राजमार्ग और सड़कें जातियों के उत्तेजक जुलूस देख चुकी हैं और जतिगत आरक्षण को लेकर हुई हिंसा में 65 लोग मारे भी जा चुके हैं. सियासत ने पहले इंसानियत को मज़हब में बांटा और फिर समाज को जातियों के सांचे में. पर क्या वो दिन भी आयेगा जब राजनीति समाज में सद्भाव का संदेश लेकर आयेगी. |
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