बुधवार, 03 सितंबर, 2008 को 16:37 GMT तक के समाचार
सुशील कुमार झा
बीबीसी संवाददाता, अररिया से
अररिया ज़िले से क़रीब पचास किलोमीटर दूर सिरसुर के बाद सड़क यूं ख़त्म हो जाती है मानो किसी ने उसे कुल्हाड़ियों से काट दिया हो.
आगे निगाह की हद तक सिर्फ पानी ही पानी दिखता है और उसमें मरे हुए जानवरों की लाशें भी. इसी छोर से सीमा सुरक्षा बल के जवान स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर बचाव कार्य में लगे हुए हैं.
बुधवार को इस बचाव केंद्र ने 100 से अधिक लोगों की जान बचाई.
चनपुर ब्लाक से कुछ लोग नावों में आए तो उनका कहना था कि अब भी करीब 100-150 लोग बाहर निकलना चाहते हैं.
बचाव कार्य में लगे अधिकारी कहते हैं कि अब बहुत कम लोग ही घरों को छोड़ कर आ रहे हैं क्योंकि पानी का स्तर तेज़ी से घट रहा है. प्रखंड विकास अधिकारी परवेज़ उल्लाह तो कहते हैं कि "कोई नहीं फंसा है बल्कि अब जो भी लोग हैं वो स्वयं ही आना नहीं चाहते हैं".
इस बात में सच्चाई थी कि लोग आना नहीं चाहते और यह संख्या हज़ारों में है. बचाव कार्य में जुटे नाविक शिवनारायण मंडल कहते हैं, "अब देखिए बहुत लोग गांवों में है और वो लोग मवेशी के साथ हैं. वो आना नहीं चाहते हैं. हम तो आज भी नाव लेकर गए थे लेकिन वो कहते हैं कि बचाव नहीं, राहत चाहिए".
हालांकि कुछ लोग अभी भी ऐसे हैं जो रो रोकर कह रहे थे कि उनके बच्चे अभी फंसे हुए है. ऐसी ही एक महिला का कहना था कि चनपुर में वो अपने तीन बच्चों को पड़ोसियों के पास छोड़कर आई थी और उन्हें लाने के लिए वो जाना चाहती हैं.
इस महिला की समस्या सुनने के लिए अधिकारी बिल्कुल तैयार नहीं थे और इसके लिए उनका तर्क था कि पानी घटने के कारण अब सब लोग वापस जाना चाहते हैं. विशेष एडीएम का कहना था कि अब लोग अपना घर बार देखने वापस जाना चाहते हैं और कोई भी नहीं फंसा है.
सरकार इनकी मदद करने को तैयार नहीं क्योंकि उनका कहना है कि "हमारा काम जान बचाना है, सामान नहीं".
इसके अलावा एक और समस्या है जिससे बचावकर्मी जूझ रहे हैं. बीएसएफ के अधिकारी अमर कुमार पांडे कहते हैं, "अब असल में पानी बहुत तेज़ी से घट रहा है तो सड़कों पर से पानी हट गया है. ऐसे में नाव जा नहीं सकती. वो सड़कों पर लग जाती है. कुछ नाव टूट भी गए हैं".
लोग क्यों न वापस जाना चाहें. किसी का संबंधी छूटा हुआ है, किसी का घर, मवेशी. लोग अपने जीवन भर की पूंजी छोड़कर जान बचाने के लिए भाग आए हैं.
ज़ाहिर है कि अब वो जल्दी जल्दी लौटना भी चाहते हैं. शायद उन्हें भी पता है कि राहत शिविरों में ज़िंदगी कैसी हो सकती है.