सोमवार, 10 दिसंबर, 2007 को 15:48 GMT तक के समाचार
संजीव श्रीवास्तव
भारत संपादक, गुजरात से लौट कर
किसी भी पत्रकार के लिए सबसे टेढ़ा और खतरनाक प्रश्न होता है जब चुनावों के संदर्भ में उससे यह पूछा जाता है कि वह बताएँ कि चुनावों में क्या होने वाला है, आपको क्या लगता है, कौन जीतेगा चुनाव.
अब इस तरह के प्रश्न का उत्तर तो सिर्फ़ वह दे सकते हैं जिनमें या तो गजब की दूरदृष्टि हो या जबर्दस्त दुस्साहस. चूँकि मुझ में दोनों की ही कमी है इसलिए यह आकलन राजनीतिक संभावनाओं को ही आपके समक्ष रखने तक सीमित रहेगा.
अगर हम इन चुनावों का परंपरागत राजनीतिक पैमानों पर आकलन करेंगे तो नरेंद्र मोदी की स्थिति कमजोर पाएंगे. मैं बताता हूँ क्यों?
तीसरी बार सरकार
नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के लिए गुजरात में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के लिए वोट माँग रहे हैं.
पश्चिम बंगाल में वामदलों के अलावा ऐसा कोई उदाहरण हाल की भारतीय राजनीति में नहीं है जब कोई मुख्यमंत्री लगातार चुनाव जीतने में कामयाब हुआ हो.
तो पहला कारण जो मोदी के चुनाव जीतने के विपरीत जाता है वह है उनका पिछले इतने वर्षों से लगातार सरकार में रहना जिसे अंग्रेज़ी में एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर कहते हैं.
दूसरा कारण है विपक्ष का एक जुट होना. काँग्रेस मोदी को हटाने के लिए एकजुट है और 2002 के चुनावों कि ग़लती सुधारने की कोशिश में एनसीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है.
तीसरी समस्या जिससे मोदी जूझ रहे हैं वह है भितरघात की. केशुभाई पटेल, काशीराम राणा, प्रवीण तोगड़िया, सुरेश मेहता इत्यादि सभी हर क़ीमत पर मोदी की हार चाहते हैं. मतलब यह कि हिंदुत्व परिवार बिखरा हुआ है और विपक्ष संगठित.
विकास और हिंदुत्व दो अन्य मुद्दे हैं जिनपर मोदी समर्थकों को विश्वास है. पर विकास पर चुनाव जीतने के उदाहरण एकदम याद नहीं पड़ते और हिंदुत्व का मुद्दा आज 2002 विधानसभा चुनावों के मुकाबले कम ही रंग दिखाएगा, ज़्यादा नहीं, इस पर भी कोई विवाद नहीं हो सकता.
तो अगर हिंदुत्व का असर पहले से कम है, विकास आमतौर पर चुनावी मुद्दा बनता नहीं, संघ परिवार बँटा हुआ है, विपक्ष संगठित है और ऊपर से है एंटी इनकम्बेंसी की मार तो फिर भला मोदी यह चुनाव कैसे जीत सकते हैं?
सिर्फ़ एक कारण है जिसकी वजह से यह सारे परंपरागत राजनीतिक समीकरणों पर आधारित विश्लेषण बिल्कुल ग़लत साबित हो सकते हैं.
नरेंद्र मोदी से बड़ा नेता इस समय गुजरात में कोई नहीं है. वो चुनावों के केंद्र बिंदु हैं और इन विधानसभा चुनावों का एकमात्र मुद्दा भी जैसे मोदी ही हैं.
दलगत राजनीति
या तो आप मोदी के साथ हैं या ख़िलाफ़. भाजपा, काँग्रेस, वामदलों की राजनीति जैसे मोदी कि शख्सियत के सामने गुजरात चुनावों के संदर्भ में बौनी पड़ गई है.
मोदी चुनाव तभी जीत सकते हैं जब उनके पक्ष में कोई लहर चल रही हो. यानी मतदान प्रतिशत भारी हो और जिस तरह मोदी का प्रयास है कि यह चुनाव कम उनपर हो रहा एक जनमत संग्रह या रेफरेंडम ज़्यादा बन जाए.
कुल मिलाकर मोदी की हार या जीत जो भी होगी, भारी अंतर से होगी.
आज जो ज़्यादातर प्रेक्षक इसे काँटे का चुनाव मान रहे हैं, मैं उस आकलन से सहमत नहीं हूँ. जीत जिस पक्ष की भी होगी, शायद निर्णायक और काफ़ी अंतर से होगी.