शुक्रवार, 30 जून, 2006 को 16:25 GMT तक के समाचार
रेणू अगाल
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में किसानों की आत्महत्या के मामले बढे हैं. कर्ज़ के बोझ तले पिस रहे किसानों की चिंता अब यह है कि कहीं विश्व व्यापार संगठन में भी उनके हितों को ताक पर न रख दिया जाए.
केंद्र सरकार का कहना है कि 1993 से 2003 के बीच दस वर्षों में एक लाख किसानों ने आत्महत्या की है. वहीं 2001 और 2006 के बीच आंध्रप्रदेश, केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र में 8900 किसानों ने आत्महत्या की है.
किसानों में गुस्सा इस बात का है कि उनकी जान की कीमत सरकारों की नज़र में कुछ भी नहीं है.
जब आपके सामने भारत उदय और आम आदमी के नाम वोट माँगने वाले आते हैं और इसी आम आदमी की चीख उन्हें सुनाई नहीं देती तो गुस्सा वाजिब भी है.
हालत ऐसी हो गई है कि देश में 65 करोड़ कृषि पर निर्भर लोगों में 40 प्रतिशत खेती छोड़ना चाहते हैं.
डब्लूटीओ से ख़तरा
जहाँ विदर्भ के किसानों की आत्महत्या राजनीतिक गलियारों में गूँजी है वहीं किसान इस बात से चिंतित हैं कि विश्व व्यापार संगठन में कहीं कुछ ऐसी बातों पर समझौता नहीं हो जाए जो किसानों हितों के विपरीत हो.
डब्ल्यूटीओ के अब तक के सफ़र से उनकी आशंका बढ़ी ही है कम नहीं हुई है.
फ़ोरम ऑफ़ बायोटेक्नॉलॉजी एंड फूड सेक्यूरिटी के अध्यक्ष देवेंद्र शर्मा कहते हैं, "कोशिश ये हो रही है कि भारत के किसान अब खेती छोड़े. अगर आप दुनिया में देखें तो डब्ल्यूटीओ आने के बाद एक देश के किसान दूसरे देश के किसानों से डरते हैं. अमरीका के किसानों को डर है कि कहीं सस्ता अनाज उनके देश में न आ जाए. भारत में किसान डरते हैं कि अमरीका से सस्ता अनाज आएगा."
वो कहते हैं, "डब्ल्यूटीओ एक ऐसा मॉडल है जिसमें किसान लड़ रहे हैं तो कुछ किसान धराशाई भी होंगे और एग्री बिजनेस कॉर्पोरेशंस को आगे बढ़ने का मौक़ा मिलता है. हमारे देश में 65 करोड़ किसान हैं और हमारा ये मानना है कि 2015 तक 40 करोड़ किसान खेती छोड़कर शहरों में पलायन कर चुके होंगे."
तक़लीफ में आए किसान डब्लूटीओ से कृषि को हटाने की माँग कर रहे हैं. उनका आरोप है कि किसानों की आत्महत्या डब्ल्यूटीओ की नीतियों से जुड़ा हुआ है.
भारत कृषक समाज के अध्यक्ष कृष्णवीर चौधरी कहते हैं, "जब डब्ल्यूटीओ पर हस्ताक्षर किए गए थे उस समय अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कृषि उत्पादों का मूल्य भारत के कृषि उत्पादों से ज़्यादा था. आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं. जो वायदे उस समय किए गए थे उसको विकसित देशों ने नहीं निभाया."
उन्होंने बताया कि समझौते में सब्सिडी कम करने, विकासशील और ग़रीब देशों को बराबरी का दर्जा देने की बात कही गई थी. लेकिन आज बराबरी का दर्जा है कहाँ. तो कैसा मुक़ाबला. आज मार्केट एक्सेस की बात हो रही लेकिन धनी देश सब्सिडी कम करने पर तैयार नहीं है.
सरकारी नजरिया
लेकिन जैसा अक्सर होता है जब तक़लीफे बढ़ती है तो कोई दुश्मन निशाने पर होता है. इस वक़्त किसानों को डब्ल्यूटीओ दुश्मन का तरह नज़र आ रहा है.
जीन कैंपेन की सुमन सहाय कहती है, "डब्ल्यूटीओ से बाहर निकल जाना हमेशा संभव है. लेकिन क्या निकल जाने से हमारी स्थिति आज से बेहतर होती है या बिगड़ती है. अगर आप डल्ब्यूटीओ से बाहर निकलते हैं तो आप द्विपक्षीय संबंधों को दोराहे पर होते हैं जिसमें बहुपक्षीय प्लेटफ़ॉर्म का फ़ायदा नहीं मिल सकता. बहुपक्षीय मंच पर हमेशा बचाव होता है क्योंकि आप उसमें साथी बटोर सकते हैं."
डब्ल्यूटीओ की बैठक में पहुँचे वाणिज्यमंत्री कमलनाथ ने विकासशील देशों के संगठन जी-20 की आवाज़ को मज़बूत स्वर दिया है.
वे कहते हैं, "विकसित देशों के भारी सब्सिडी प्राप्त कृषि उत्पादों को अगर भारत में बेचा जाता है तो वो बराबर का व्यापार नहीं है. अगर विकसित देश भारतीय किसानों को ख़त्म करना चाहते हैं तो उस पर कोई विचार नहीं हो सकता. भारत में खेती 65 करोड़ लोगों की आजीविका है जो कि भारत की आबादी का 65 प्रतिशत हिस्सा है न की अमरीका जहाँ खेती पर केवल दो प्रतिशत लोग निर्भर हैं."
मज़दूरी
किसानों का कहना है कि छठे वेतन आयोग की चर्चा हो रही है. अगर सरकार किसानों की आत्महत्याएँ रोकना चाहती है तो उसे चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के बराबर कृषि मज़दूरी दी जाए या फिर सरकार उतनी ही सब्सिडी भारतीय किसानों को दे जितना अमरीका और यूरोपीय संघ देता है.
सुमन सहाय कहती हैं, "भारत कृषि प्रधान देश है. जब तक हमारी आबादी का 70 या 80 फीसदी हिस्सा कृषि पर निर्भर रहेगा तब तक इस क्षेत्र को प्राथमिकता देनी होगी. कौन अर्थशास्त्री कह पाएगा कि 80 फ़ीसदी जनता जिस पर निर्भर है उसको नकार कर 20 फीसदी को बढ़ावा दें तो विकास हो जाएगा. यह अव्वल दर्जे की मूर्खता मानी जाएगी."
पर एक ओर अमरीका से परमाणु संधि का दबाव और दूसरी ओर कुछ बड़े ओहदे पर बैठे लोगों की विश्व बैंक जैसे संगठनों से नज़दीकियाँ सरकार को देश की रीढ़ से दूर कर रही है. किसानों को खुश करने के लिए कुछ पैकेज ज़रूर बन रहे हैं.