शुक्रवार, 16 जून, 2006 को 13:47 GMT तक के समाचार
सुनील रमन
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
छह साल सत्ता में रहे भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने तेल के दाम छह बार बढ़ाए थे जबकि पिछले दो साल में यूपीए गठबंधन ने पेट्रोल और डीज़ल के दाम पाँच बार बढ़ाए हैं.
सरकार का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम लगातार बढे़ हैं. इसके बावजूद भारत अपनी ज़रूरत का 75 प्रतिशत तेल आयात करता है.
भारत सरकार ने उपभोक्ता पर दाम के भार को कम करने का प्रयास किया है और आयात कर रही तेल कंपनियों से कहा कि घाटे में रह कर भी वो उपभोक्ता को पेट्रोल डीज़ल और अन्य पेट्रोलियम पदार्थ कम दाम पर मुहैय्या करवाए.
हालांकि भारत सरकार का यह तर्क अब राजनीतिक दल मानने से इनकार कर रहे हैं.
मौजूदा यूपीए गठबंधन को सत्ता में रहने के लिए वामपंथी दल बाहर से महत्वपूर्ण समर्थन दे रहे हैं. यूपीए और वामपंथी दलों की समन्वय समिति में भी यह मुद्दा ज़ोर से उठाया गया.
उत्पाद शुल्क
केंद्र सरकार ने कहा है कि राज्य चाहे तो अपने टैक्स घटाकर कीमतें कम कर ले लेकिन वामदल केंद्रीय टैक्स की बात कर रहे हैं.
ऐसा पहली बार है कि पेट्रोल और डीज़ल पर सरकार के लगाए शुल्क को लेकर एक बहस शुरू हुई है. तेल कंपनियां विदेश से पेट्रोल और डीज़ल आयात करती हैं और उपभोक्ता तक पहुंचने तक उस पर तीन महत्वपूर्ण शुल्क लगाए जाते हैं – आयात शुल्क, सीमा शुल्क, केंद्र सरकार का उत्पाद शुल्क. राज्य सरकारें उस पर बिक्री कर लगाती है. इस तरह उपभोक्ता तक पहुँचते-पहुँचते तेल का दाम कई गुना बढ़ जाता है.
भाजपा और वामदलों ने स्पष्ट कर दिया है कि जब तक केंद्र सरकार पेट्रोलियम पदार्थों पर से उत्पाद शुल्क कम नहीं करती तब तक उनकी राज्य सरकारें बिक्री कर में कटौती नहीं करेंगी.
भारत सरकार पेट्रोल पर 32 प्रतिशत उत्पाद शुल्क लगाती है जबकि पाकिस्तान में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 2 प्रतिशत है, चीन में 5 प्रतिशत, इंडोनेशिया में 4 प्रतिशत, बांग्लादेश में 11 प्रतिशत, और थाइलैंड में 12 प्रतिशत.
दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में केवल श्रीलंका ऐसा देश है जो पेट्रोल पर 23 प्रतिशत उत्पाद शुल्क लगाता और वो भारत के 32 प्रतिशत की तुलना में बहुत कम है.
इसी तरह डीज़ल पर भारत सरकार द्वारा लगाए 16 प्रतिशत उत्पाद शुल्क की तुलना में पाकिस्तान और फिलीपींस में डीज़ल पर उत्पाद शुल्क नहीं लगता. जबकि चीन में 2 प्रतिशत, बांग्लादेश में 11 प्रतिशत और इंडोनेशिया में 4 प्रतिशत उत्पाद शुल्क है.
ऊर्जा मामलों की विशेषज्ञ सोमा बनर्जी का कहना है कि भारत कुछ ऐसे चुने हुए देशों में से एक है जहां पेट्रोलियम पदार्थों पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम के उतार-चढ़ाव से उपभोक्ता नहीं बचता.
बड़ी बहस
सोमा बनर्जी कहती हैं, “कर संरचना केंद्र सरकार के पक्ष में है. साल 2005 में कच्चे तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री कम हुई लेकिन उसके बाद भी केंद्र सरकार को उत्पाद शुल्क की आमदनी में 6 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ. यह साफ दिखाता है कि कर संरचना केंद्र को ज़्यादा राजस्व दे रही है.”
आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि भाजपा और वामदलों की शुरू की हुई इस बहस ने पहली बार सबका ध्यान इस महत्वपूर्ण बात की ओर आकर्षित किया है कि हर एक लीटर पेट्रोल ख़रीदने पर उपभोक्ता की जेब से निकले पैसे का क़रीब 50 प्रतिशत सरकार को टैक्स में चला जाता है.
एनडीए सरकार में रहे वित्त सचिव और पूर्व पेट्रोलियम सचिव डॉ. एस नारायण कहते हैं, “इस बात में कोई शक नहीं है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर कर संरचना में बहुत फेरबदल की ज़रूरत है.
भारत सरकार तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) को देश में तेल उत्पादन के लिए अंतरराष्ट्रीय क़ीमतों के स्तर पर ही भुगतान करती है. यानी हमें घर पर भी तेल उतना ही महंगा पड़ता है जितना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर."
तेल के बढ़े दामों पर उठे विवाद ने जहाँ कर संरचना पर बहस छेड़ी है वहाँ राजनीतिक दल इस मुद्दे पर लाभ उठाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं.
कांग्रेस शासित राज्यों ने बिक्री कर कम करके आम आदमी के लिए पेट्रोल और डीज़ल के दाम कम करने की कोशिश की. जबकि वामदलों और भाजपा ने स्पष्ट कर दिया कि उत्पाद शुल्क कम करने पर ही उनकी राज्य सरकारें ऐसा करेंगी.
इकोनॉमिक टाइम्स के राजनीतिक संपादक पी आर रमेश का मानना है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस ने भाजपा और वामदलों से बाज़ी मार ली है.
उनका कहना है, "समस्या खड़ी हो गई तो सरकार ने दाम बढ़ा दिए. विरोध हुआ तो कांग्रेस ने अपनी सरकारों को बिक्री कर कम करने को कहा लेकिन इस पूरे विवाद में राजनीतिक दल एक आम राय बनाने की कोशिश नहीं कर रहे. जबकि महंगाई का सीधा प्रभाव आम जनता पर हो रहा है."
फिलहाल बाज़ी भले ही कांग्रेस ने मारी हो लेकिन तेल के बढ़े दामों से आम ज़रूरतों की चीज़ों के दाम भी बढ़े हैं.
बहरहाल, इस विवाद ने जो सवाल खड़े किए हैं वो अपने आप में बड़े सवाल हैं और देर-सवेर सरकारों को इसके जवाब ढूंढ़ने ही पड़ेंगे.