बुधवार, 17 मई, 2006 को 08:03 GMT तक के समाचार
एलआर जगदीशन
बीबीसी संवाददाता, चेन्नई
तमिलनाडु सरकार का नया फ़ैसला है कि मंदिरों में पुजारी बनने के लिए ब्राह्मण या उच्च जाति का होना ज़रूरी नहीं है.
इस निर्णय के पीछे राज्य सरकार की मंशा है कि राज्यभर के मंदिरों में पुजारी बनने के लिए ब्राह्मणों और ऊंची जातियों का जो एकाधिकार है उसे समाप्त किया जाए.
ग़ौरतलब है कि राज्य में अभी तक की व्यवस्था के अनुसार पुजारी बनने का अधिकार केवल उच्च जातियों और उनमें भी ख़ासकर ब्राह्मणों को प्राप्त था.
दो दिनों पहले ही राज्य में डीएमके के नेतृत्व वाली सरकार का गठन हुआ है.
डीएमके का इतिहास रहा है कि वे शिक्षा, रोज़गार, घर्म और सामाजिक स्थिति में बाह्मणों के वर्चस्व के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे हैं.
इससे पहले 1970 में भी पार्टी के अध्यक्ष और वर्तमान मुख्यमंत्री करुणानिधि ने इस आदेश को अपने तत्कालीन शासनकाल में लागू करने का प्रयास किया था.
हालांकि उस समय उनका यह आदेश राज्य के न्यायालयों ने निरस्त कर दिया था.
विधिसंगत
मुख्यमंत्री करुणानिधि ने अपने इस नए आदेश के बारे में कहा है कि उनकी सरकार का यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2002 के उस आदेश पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि यदि किसी अन्य जाति का व्यक्ति भी पूजा करा पाने में सक्षम है तो उसे भी पुजारी बनने का अधिकार है.
ऐसा नहीं है कि राज्य में केवल ब्राह्मण ही पुजारियों के रूप में काम करते हैं. कई ऐसे गांव है जहाँ अन्य जातियों के स्थानीय लोग ही पूजा कराने का दायित्व संभालते हैं.
हाँ, मगर राज्य के सभी प्रमुख और प्रसिद्ध मंदिरों में केवल ब्राह्मण ही पुजारियों के रूप में नियुक्त हैं. इन मंदिरों में बड़ी तादाद में श्रद्धालु पहुँचते हैं और इनकी आमदनी भी अच्छी है.
वैसे राज्य में ब्राह्मणों और अन्य जातियों के बीच राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थिति को लेकर संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है.
इसी संघर्ष के कारण एक अलग द्रविड़ राष्ट्र की मांग के लिए आंदोलन भी राज्य के इतिहास में दर्ज है.
कुछ विश्लेषक करुणानिधि को इस आंदोलन के अंतिम पुरोधा के रूप में भी देखते हैं.
राज्य के हाल के विधानसभा चुनावों में सत्ता से बाहर हुई करुणानिधि की विरोधी, जयललिता भी एक ब्राह्मण परिवार से हैं.