रविवार, 19 मार्च, 2006 को 04:41 GMT तक के समाचार
आलोक प्रकाश पुतुल
बिलासपुर
देश भर में सूचना का अधिकार लागू होने के बाद माना जा रहा था कि सरकारी कामकाज में इससे पारदर्शिता आएगी.
समाज के अंतिम आदमी को मनचाही सूचना उपबल्ध करवाने संबंधी इस क़ानून को एक क्रांतिकारी क़दम माना जा रहा था. लेकिन अक्टूबर 2005 से लागू सूचना के अधिकार ने छत्तीसगढ़ सरकार की नाक में दम कर रखा है.
लोगों को एक-एक सूचना उपलब्ध कराने में राज्य सरकार को हज़ारों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं. सैकड़ों कर्मचारी इन सूचनाओं को एकत्र करने में दिन-रात एक कर रहे हैं.
हालत ये है कि इन सबों से तंग आ कर राज्य सरकार ने केंद्र को पत्र लिखने का फ़ैसला किया है.
सूचना के अधिकार के तहत रक्षा और गोपनीय सूचनाओं को छोड़ कर कोई भी सामान्य नागरिक किसी भी सरकारी कार्यालय से बिना कारण बताए कोई भी सूचना प्राप्त कर सकता है.
इससे संबंधित दस्तावेज़ प्राप्त करने के लिए सामान्य नागरिक से प्रत्येक पन्ने की छाया प्रति के लिए 2 रुपए शुल्क लेने का प्रावधान है. लेकिन सरकार ने ग़रीबी रेखा से नीचे के नागरिकों के लिए यह सुविधा मुफ़्त रखी है.
एक सूचना लाख की
छत्तीसगढ़ के विभिन्न सरकारी कार्यालयों में सूचना पाने के लिए जो आवेदन आ रहे हैं, उनमें से अधिकांश ग़रीबी रेखा से नीचे के नागरिकों के हैं.
बड़ी मुश्किल से दो जून की रोजी-रोटी कमाने वाले ग़रीबी रेखा से नीचे के कार्डधारी शासन से ऐसी-ऐसी सूचनाएं मांग रहे हैं, जिसे इकट्ठा करने में शासन के हाथ पांव फूल जा रहे हैं.
बस्तर के कांकेर ज़िले में एक नागरिक राकेश शुक्ला ने उप पंजीयक सहकारी समिति कार्यालय को आवेदन दे कर जानना चाहा कि पिछले 5 वर्षों में सरकार द्वारा कुल कितने की धान की ख़रीदी की गई है और इसमें सरकार को कितना नफ़ा-नुकसान हुआ है.
जब समिति ने जानकारी एकत्र करनी शुरु की तो उसके पसीने छूट गए. केवल धान ख़रीदी के पत्रक की 91 हज़ार प्रतियों को एकत्र करने में कार्यालय का एक कमरा भर गया.
इन सूचनाओं की फ़ोटो कॉपी कराने में ही लगभग 1 लाख 8 हज़ार रुपए खर्च हो गए. शासन ने जब राकेश शुक्ला को सूचनाओं से संबंधित दस्तावेजों के एवज़ में 1 लाख 82 हज़ार रुपए जमा कराने का निर्देश दिया तो पता चला कि राकेश ग़रीबी रेखा से नीचे के कार्डधारी हैं और उनसे कोई शुल्क नहीं लिया जा सकता.
कांकेर के ज़िलाधीश कहते हैं- “ यह ख़बर हमारे लिए भी चौंकाने वाली थी. फिलहाल पूरे मामले में राज्य सरकार से हमने दिशा-निर्देश मांगा है.”
संभावित खर्चे
इसी तरह पंचायत में एक व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के तहत आवेदन लगाया कि शिक्षाकर्मियों की भर्ती के लिए आए आवेदन व उनके साथ लगे शैक्षणिक प्रमाण पत्र उसे उपलब्ध कराए जाएँ.
जिला पंचायत में शिक्षाकर्मी के पद के लिए 9 हज़ार आवेदन आए थे और उपलब्ध दस्तावेज़ों की फ़ोटो कॉपी कराने का खर्चा था 75 हज़ार रुपए.
जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालक अधिकारी एम डी दीवान कहते हैं, “ज़िला पंचायत में इतना मद ही नहीं होता. एक-एक सूचना पर अगर इतने रुपए खर्च होंगे तो पंचायत काम कैसे करेगी? हमने सरकार को पत्र लिखकर राय मांगी है.”
हालांकि राज्य के कई विभागों में ऐसा भी हुआ कि ग़ैर बीपीएल कार्डधारी ने किसी सूचना के लिए आवेदन लगाया और जब उसके शुल्क के रुप में बड़ी रकम देने की बारी आई तो उसने शुल्क जमा करने से मना कर दिया.
ऐसे मामलों में कई सरकारी विभागों के लाखों रुपए खर्च हो गए हैं.
अब विभागों ने तय किया है कि सूचना चाहने वाले आवेदकों को पहले से ही संभावित खर्च बता दिया जाए.
सूचना किसके लिए
लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह इसे कोई हल नहीं मानते.
वे उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सूचना के अधिकार के तहत एक व्यक्ति ने राज्य के तालाबों का विस्तृत विवरण मांग लिया और सरकार को यह सूचना एकत्र करने में ढाई लाख रुपए खर्च करने पड़ गए.
मुख्यमंत्री के अनुसार बीपीएल कार्डधारी के नाम पर जो सूचनाएं मांगी जा रही हैं, आम तौर पर उसके पीछे दूसरे साधन-संपन्न लोग हैं.
रमन सिंह कहते हैं “ जिसने जानकारी चाही है, उसके लिए उस सूचना की कोई उपयोगिता है या नहीं, यह तय किया जाना ज़रुरी है.”
मुख्यमंत्री चाहते हैं कि केंद्र सरकार सूचना की व्यापकता को भी तय करे.
सूचना का अधिकार क़ानून को लागू करने के बाद आ रही परेशानी को लेकर वो जल्दी ही केंद्र को पत्र लिखने वाले हैं.
देश भर में सूचना के अधिकार को लेकर आंदोलन और प्रारुप पेश करने वाले मज़दूर किसान शक्ति संगठन, राजस्थान के संस्थापक सदस्य निखिल डे का कहना है कि उनके संगठन ने पहले ही यह मांग रखी थी कि ग़रीबी रेखा से नीचे के जो लोग हैं, उन्हें भी केवल उनसे संबंधित सूचना ही मुफ़्त में उपलब्ध कराई जाए.
निखिल कहते हैं- " ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों को भी अगर कोई दिगर सूचना लेनी है, तो उनसे भी शुल्क का प्रावधान रखा जाना चाहिए."
हालांकि निखिल स्वीकारते हैं कि सूचना का दायरा तय हो जाने के बाद सरकार इस क़ानून का मनमाना इस्तेमाल कर सकती है.
नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉर्मेशन के राष्ट्रीय संयोजक शेखर सिंह का कहना है कि जनता जो सूचनाएं चाहती है, उसे सरकार पहले से स्वयं ही उपलब्ध करा दे तो समय और पैसे दोनों की बचत होगी.
वे देश के कई राज्यों के अपने अनुभवों के आधार पर दावा करते हैं कि सूचना के अधिकार के कारण भ्रष्टाचार में कमी आई है और देश का पैसा बचा है.
शेखर सिंह पूछते हैं- “ सूचना का अधिकार आम जनता का बुनियादी अधिकार है. अगर सरकार आम जनता के जीवन औऱ स्वतंत्रता की रक्षा को महंगा बता कर पुलिस और सेना को भंग करने की बात कहने लगे तो क्या यह स्वीकार्य होगा?”