गुरुवार, 08 सितंबर, 2005 को 07:59 GMT तक के समाचार
महेश रंगराजन
विश्लेषक एवं लेखक
मंडल आयोग की सिफ़ारिश लागू करने का फ़ैसला भारत में पिछले 55 साल में एक बड़ा ऐतिहासिक क़दम था ख़ास तौर पर उत्तरी भारत में मध्य भारत में और हिंदी भाषी क्षेत्रों में.
मंडलीकरण जो एक प्रक्रिया थी वह केवल मंडल आयोग के प्रस्तावों के कारण शुरु नहीं हुई.
लेकिन मंडल आयोग को जब सरकार ने लागू किया तो उसके पीछे अनेक तत्व थे. समाज की अनेक धाराएं आपस में जुड़ गई थीं.
1990 और 1993 के बीच दो बहुत विचित्र चीज़ हुई. शायद इतिहास में पहली बार ख़ास करके उत्तर प्रदेश और बिहार में दलित और पिछड़ा वर्ग साथ-साथ जुड़कर कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे और सवाल यह था कि क्या आरक्षण को बढ़ाया जाए या आरक्षण को रोका जाए.
यह मंडलीकरण की प्रवृति थी जो मंडल विरोधी तत्वों की वजह से ज़्यादा मजबूत हुई. दूसरी वजह थी कि उस समय में भगवाकरण का एक दौर चला था, ख़ास करके रथयात्रा के बाद. मध्य भारत में पश्चिमी भारत में और उत्तरी भारत में, उसको रोकने में मंडलीकरण का बहुत बड़ा हाथ था.
अगर देखें कि पिछले 15 साल में कौन-कौन से शख़्स राजनीति में उभरकर सामने आए हैं. उनमें से ऐसे कई लोग हैं जिनकी जाति प्रथा और जातिवाद के ख़िलाफ़ लड़ने में और निम्न वर्ग की जातियों को इकट्ठा करने में जिनका बड़ा योगदान रहा.
इनमें कई लोगों के नाम हो सकते हैं कांशीराम, मायावती, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि. इन सबमें एक ख़ासियत है और वह है कि अगर मंडल आयोग लागू न होता तो शायद इनके पास इतना बड़ा मंच नहीं मिलता.
यह संयोग भर नहीं था कि मंडल से जुड़ी जाति का एक व्यक्ति आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के छह साल बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचा. वे भारत के 14 प्रधानमंत्रियों में से एक एचडी देवेगौड़ा थे जो कर्नाटक से आए थे.
दक्षिण और उत्तर भारत
जो लोग मंडल का और इस प्रक्रिया का समर्थन करते हैं, उनके लिए यह चिंतन की बात है कि दक्षिण भारत और पश्चिम भारत में इस तरह की प्रवृत्तियों के कारण न केवल वहाँ की राजनीति बदली, लेकिन वहाँ का समाज, वहाँ के संस्कृति में भी परिवर्तन हुआ.
वहाँ पिछड़ी जातियों से नए उद्योगपति उभरकर आए हैं, नारी जाति का स्थान समाज में स्थान बदला है और शिक्षा बदली है.
लेकिन इस तरह के मापदंडों से देखें तो उत्तर भारत का समाज नहीं बदला है.
इस तरह देखने पर पता चलता है कि दक्षिण और उत्तर भारत में मंडलीकरण जिस तरह से हुआ है उसमें बहुत फ़र्क है.
वहाँ पहले सांस्कृतिक परिवर्तन और सामाजिक चेतना के आंदोलन चले थे उसके बाद राजनीतिक परिवर्तन हुआ.
यहाँ समाज में चेतना लाने के लिए संस्कृति को परिवर्तित करने के लिए धाराएं थीं लेकिन वह निर्बल और बिखरी हुई थीं.
इसकी वजह से यहाँ सांस्कृतिक परिवर्तन के बिना राजनीतिक परिवर्तन हुआ है.
राजनेताओं का चेहरा तो बदल गया है लेकिन उसके साथ चरित्र उतना बदला नहीं है जितना बदल सकता था.
इसके लिए एक चिंतन के लिए बहुत ज़रूरी है कि समाज में जो परिवर्तन की बात हो रही थी वह फिर से आगे बढ़े.
जाति व्यवस्था
एक सवाल बार-बार उठता है कि क्या मंडल आयोग की सिफ़ारिशों ने जाति व्यवस्था को मज़बूत किया?
लेकिन इस सवाल का जवाब तभी दिया जा सकता जब हम जाति व्यवस्था के परिभाषा पर थोड़ा ग़ौर से सोचें.
जाति व्यवस्था के कई मतलब हो सकते हैं. लेकिन शायद एक यह है कि आपका समाज में आपका स्थान जो है वह कहीं पर आपके जात-पात पर निर्भर करता है.
हालाँकि दुनिया में कई तरह की विषमताएँ हैं. ऊँच-नीच की, ग़रीबी-अमीरी की. लेकिन भारत में सदियों से उनको नीचा माना जाता है जो बौद्धिक काम नहीं करते, हाथ के काम करते हैं. चाहे सफ़ाई का काम हो, कृषि का काम हो, भेड़-बकरे पालने का काम हो, बाल काटने का काम हो.
इनको नीची जाति का मानने की प्रथा थी.
रजनी कोठारी ने एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था जिसमें कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है.
जाति व्यवस्था तो ख़त्म नहीं हुई लेकिन एक बड़ा परिवर्तन हुआ है.
मान लीजिए कि एक किसान है. क्या वह चाहेगा कि उस पर यह ठप्पा रहे कि वह पिछड़ा है, बैकवर्ड है. देखने में तो लगता है कि कोई आपको गाली दे रहा है, अपमानित कर रहा है.
लेकिन यह एक बड़ा और तेज़ी से हुआ परिवर्तन है कि पिछड़े गर्व से कहते हैं कि वे पिछड़े हैं.
मंडल की वजह से जाति प्रथा ख़त्म नहीं हुई है लेकिन यह कहना कि वह मज़बूत हो गई है ग़लत होगा. क्योंकि जाति प्रथा को जिस तरह से मंडल आयोग ने हिलाया पिछले 50 सालों में, बहुत ही कम घटनाओं ने हिलाया है.
राजनीतिक परिवर्तन
मंडल आयोग के लागू होने से पहले भी कल्याण सिंह भाजपा के नेता रहे थे. लेकिन मंडल की सिफ़ारिशें लागू होने की वजह से वे जल्दी ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए.
उत्तर भारत के हर प्रांत में दो क़िस्म की राजनीति है एक होती है पार्टी पॉलटिक्स, जिसमें एक दल दूसरे दल के आमने-सामने हैं और दूसरे एक क़िस्म की सामाजिक राजनीति. हर दल में ये परिवर्तन धीरे-धीरे से हो रहा है.
निम्न जातियों का उत्थान हो रहा है तो उनमें एक आत्मविश्वास बढ़ रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हर किसी को फायदा हो रहा है, जिस तरह भारत आज़ाद हुआ, इसकी वजह से सब भारतवासी धनवान नहीं हुए. लेकिन पुरानी जो एक व्यवस्था थी वह खत्म हो गई है.
सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि गंगा की जो घाटी है उसमें उत्तरप्रदेश में सबसे बड़े दल हैं वह बसपा है और सपा है. एक का नेतृत्व किसान वर्ग के लोग कर रहे हैं दूसरे का दलित वर्ग के लोग. उसी तरह बिहार में देखे कि सबसे बड़े जो तीन नेता हैं उनमें कुर्मी, यादव और तीसरे दलित हैं.
पश्चिम बंगाल में भी, हालांकि पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का नेतृत्व भद्र लोक के सदस्य ही करते हैं, ज्योति बसु हों, बुद्धदेव हों लेकिन उनका जो राजनीतिक आधार है उसमें यही सब ताक़ते हैं दलित हैं, पिछड़ा वर्ग हैं.
कांग्रेस ने कई सालों तक हिंदी भाषी क्षेत्रों में तीन बड़े समुदायों को बटोर कर रखा था. ब्राह्मणों को, दलितों को, अल्पसंख्यकों को. वह राजनीति अब खत्म हो गई है.
इस परिवर्तन की वजह से नई पार्टियाँ उभरकर आई हैं. नई राजनीतिक शक्तियाँ उभरकर आई हैं. क्षेत्रियता को बढ़ावा मिला है. इसकी वजह से कांग्रेस और संघ परिवार को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी है.
मंडल न होता तो क्या होता. मंडल न होता तो मिली-जुली सरकारें न होतीं. मिली-जुली सरकारें न होती तो हमारे राजनीति का बिलकुल परिदृश्य अलग होता. चाहे वह भगवाकरण का हो या कांग्रेस की अपनी जो एक ख़ास तरह की परिवारवाद की राजनीति का.
सकारात्मक परिवर्तन तो कई हुए हैं लेकिन कुछ नकारात्मक बाते भी हैं. इसमें प्रमुख यह है कि उत्तर भारत में सामाजिक स्तर पर और आर्थिक स्तर पर अभी भी पिछड़े उस तरह नहीं उभर रहे हैं जैसा कि दक्षिण भारत में उभरे हैं.
(विनोद वर्मा से हुई बातचीत के आधार पर)