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रिपोर्ट राजनीतिक दबाव से लागू हुई | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जिस जनता दल से हमारा संबंध था वह एक आंदोलन के गर्भ से निकली थी. वो चाहे लोहिया हों या जयप्रकाश नारायण हों, कर्पूरी ठाकुर हों चाहे चौधरी चरण सिंह हों, सबकी प्रतिबद्धता समाजवादी आंदोलन से थी. इसलिए हमारे सामने तो सामाजिक बदलाव एक आंदोलन था. जब 1989 में सरकार बनी तो मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने के लिए चौधरी देवीलाल को समिति अध्यक्ष बना दिया था. चूंकि उसमें देवीलाल उसके हक में नहीं थे, इसलिए मंडल की सिफ़ारिशें लागू नहीं हो रही थीं. जब उनको पार्टी से निकाल दिया गया तो हमारे सामने सवाल यह था कि चौधरी देवीलाल के साथ हमारे जो रिश्ते थे उसको निभाएँ या फिर सरकार का साथ दें. वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे. उनसे हमने सीधी-सीधी बातचीत की कि या तो मंडल को लागू कर दीजिए या फिर हम देवीलाल जी के साथ जाते हैं. नौ अगस्त को दिल्ली के बोट क्लब में उनकी रैली थी. वीपी चाहते थे मंडल 15 अगस्त को लागू किया जाए तो हमने कहा कि नौ को लागू करें. फिर यही तय हो गया कि नौ से पहले लागू होगा. हम दूसरो का नहीं जानते हैं. लेकिन अपना जानते हैं, पार्टी का जानते हैं. जनता दल के अधिकांश लोग उस समय हमारे साथ थे. सब एक ही आंदोलन से निकले हुए थे. इसलिए प्रधानमंत्री को यह स्वीकार भी करना पड़ा. जहाँ तक सामाजिक बाध्यता का प्रश्न है तो हमारा स्पष्ट मानना है कि भारतीय समाज में सारी बीमारियों की जड़ जाति व्यवस्था में हैं. इसी जाति व्यवस्था के कारण देश में उसमें हर तरह का कीड़ा पलता है चाहे विषमता का हो, चाहे भ्रष्टाचार का हो, चाहे ग़रीबों को दबाए रखने का हो. चाहे वह सामाजिक तौर पर हो, संस्कृति के तौर पर हो, शिक्षा के तौर पर हो या फिर नौकरी आदि तमाम तरह की चीज़ों पर. यानी हिंदुस्तान में वास्तविक व्यवस्था का मतलब है जाति व्यवस्था. हम लोग इस जाति व्यवस्था को पूरी तरह से ख़त्म करना चाहते थे और इसके लिए मंडल एक क़दम था. भारत जागा यह कहना ग़लत होगा कि मंडल की सिफ़ारिशें लागू होने से जाति व्यवस्था मज़बूत हुई. दरअसल जाति व्यवस्था तो गहरे तक हमारे समाज में समाई हुई थीं. हमने तो सिर्फ़ पर्दा उठाया. इस देश की सारी जातियाँ, चाहे पिछड़ी जातियाँ हों, चाहे वो किसान हों, चाहे ऊँचे तबके के लोग हों, मुस्लिम समाज के लोग हों, मंडल के बाद सब में एक तरह की जागृति आई. सौ फीसदी भारत जग गया. लेकिन जागे हुए भारत में बीमारी वही पुरानी है. यानी जाति व्यवस्था की बेड़ियाँ पहन करके भारत जगा हुआ है. हमको मालूम है कि जाति व्यवस्था बुरी चीज़ है तो इसे ख़त्म करना चाहिए. हम करते भी लेकिन लोग पार्टी छोड़कर चले गए. मुलायम सिंह हैं, लालू हैं, रामविलास हैं, कर्नाटक के लोग थे, ये सब पार्टी छोड़कर चले गए. यदि सब बने होते तो अगला कदम जो होता कि जाति व्यवस्था तोड़ो. जाति व्यवस्था के ख़ात्मे का रास्ता अब खुला हुआ है. अब तो सब लोग जगे हुए हैं. राजनीतिक लाभ मंडल का लोगों को राजनीतिक लाभ मिला यह कहना आधा सच बताना होगा. यह तो है कि इसी पार्टी के जरिए कई नेताओं को ज़िंदगी मिली, मुख्यमंत्री बने, अनेक पदो पर गए. इतिहास बोध के चलते वहाँ उनके सूबे की जो जाति थी उनके साथ लग गईं.
उनका इतिहास में जिक्र ही कहीं नहीं है. लेकिन जब 14 करोड़ और नौ करोड़ लोगों के मुख्यमंत्री बने तो पहली बार ये देखा उन्होंने. इतिहास की भूख भी बहुत बड़ी भूख है. उस भूख से, भले वे इस पार्टी के भरोसे बने, इस पार्टी के गर्भ से पैदा हुए, लेकिन उन्होंने पार्टी को अपने परिवार की पार्टी बना ली. और लोगों की इस भूख का शोषण किया. लेकिन मंडल आयोग की रिपोर्ट को सामाजिक परिवेश से अगल करके नहीं देखा जा सकता. वह सामाजिक आंदोलन का एक स्वभाविक नतीजा था. काका कालेलकर आयोग ने भी रिपोर्ट दी थी लेकिन वह नहीं लागू हुई. वह आयोग जवाहरलाल नेहरू के जमाने में बना था. जब 1977 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और उसमें मंडल में आने वाली जातियों का वर्चस्व था, तब मडंल आयोग का गठन हुआ. मंडल आयोग का बनाना भले एक घटना थी लेकिन उसके पीछे बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा था मंडल के बाद जो जाति व्यवस्था के ऊपर जो चोट करना था वह तो इन लोगों ने किया नहीं मुख्यमंत्री बनकर जाति व्यवस्था को बढ़ा दिया. अपनी जातियों को अलग-अलग टुकड़ों में कर दिया. भारतीय समाज के परिवर्तन का जो चक्र था, उसको रोकने का काम कर दिया. आरक्षण और जातियाँ ये आरक्षण तभी तक है जब तक जाति है. जाति तोड़ने का रोडमैप बनेगा तो आरक्षण नहीं रहेगा. उसके लिए आने वाले 50 वर्ष में सब चीज़ हो सकती है. रोडमैप ऐसा बने कि आप लॉटरी व्यवस्था से जातियाँ निकालिए. और उन जातियों के लोगों को नौकरी दीजिए. नौकरी में बड़ी सुरक्षा है. जाति से बड़ी सुरक्षा नौकरी में है. लोग के लिए इस समय जाति एक सुरक्षा है, मरने में, शादी में. यदि आप उससे बड़ी सुरक्षा देंगे तभी तो लोग छोड़ेंगे. यह लोकतांत्रिक तरीके से हो सकता है. जातियाँ लोकतांत्रिक तरीके से टूट सकती हैं. इसका प्रयास हमने शुरु किया था. उसे आगे बढ़ाना चाहिए. जाति व्यवस्था हज़ारों वर्ष की है. उस पर जब चोट हुई तो पूरे देश में हलचल हो गई थी. राजनीतिक बाध्यता मंडल तो निश्चित तौर राजनीतिक बाध्यता के चलते लागू हुआ था. उस समय की सरकार के सामने परिस्थित विकट नहीं होती तो वह भी इसे लागू नहीं करती. इसके लिए यह बताना ही पर्याप्त है कि उस सरकार ने तो देवीलाल को लागू करने वाली समिति का मुखिया बनाके रखा था. वह तो परिस्थितियाँ ऐसी बनीं की मंडल की सिफ़ारिशें लागू करनी पड़ीं. वह लोगों की इच्छा से नहीं दबाव से लागू हुआ. दबाव मतलब ज़मीनी राजनीतिक ताक़त का दबाव. मंडल आयोग की बाकी सिफारिश हैं, प्रमोशन में हैं, आर्थिक विकास का रास्ता है, वह तब बनेगा जब देशव्यापी स्तर पर जो कमजोर तबके के लोग हैं एक होंगे. वह तब हो सकता है जब पहले की तरह कभी राजनीतिक ताक़त फिर लौटे. अब वह ताक़त बिखर गई है इसलिए कोई काम नहीं हो रहा है. जिन लोगों ने इस आंदोलन को बिखराया है, खंड-खंड किया है, जिसके चलते भारतीय समाज का एक समरस समाज बनाने का सपना था, उसपर विराम लगा है. लेकिन मेरा मानना है कि यह विराम रहेगा नहीं. भारत को अगर आगे जाना है तो भारतीय समाज की जो जाति व्यवस्था है उस ठीक करना होगा. एक दिन यह आंदोलन नए सिरे से गोलबंद होगा. (विनोद वर्मा से हुई बातचीत के आधार पर) |
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