गुरुवार, 25 अगस्त, 2005 को 15:17 GMT तक के समाचार
विनोद वर्मा
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
निजी व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के एक फ़ैसले ने एक विवाद खड़ा कर दिया है.
संसद में बहस चल रही है और संसद के बाहर भी इसका साया दिखाई पड़ रहा है.
इस विवाद के बहाने एक बड़ा सवाल फिर पूछा जा रहा है अदालतों की या न्यायाधीशों की जवाबदेही को लेकर. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है कि आख़िर ये अदालतें किसके लिए हैं?
ये ग़रीबों के लिए हैं या फिर अमीरों के लिए, छोटे कुटीर उद्योग चलाने वालों के लिए है या फिर बड़े उद्योगपतियों के लिए, छोटे कर्ज़दारों की ख़बर लेने के लिए है या भारी भरकम कर्ज़ लेकर मज़ा कर रहे बड़े व्यावसायिक घरानों को अनदेखा करने के लिए.....ये अदालतें क्या उन मज़दूरों की हैं जिनसे हड़ताल करने का अधिकार तक छीन लिया गया है?
जनहित याचिका
एक धारणा सी बन रही थी कि अदालतों तक ग़रीब आदमी की पहुँच कठिन हो रही है उसी समय जनहित याचिकाओं का दौर शुरु हुआ.
एक उम्मीद की किरण दिखाई पड़ी थी. पूर्व केंद्रीय मंत्री जगमोहन भी मानते हैं, "यह एक ऐसी प्रणाली थी जिससे ग़रीब भी अपनी आवाज़ लेकर अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकते थे."
समय के साथ जनहित याचिकाओं की संख्या तो बढ़ी और न्यायालयों ने उस पर तुरत फ़ुरत फ़ैसला देना भी जारी रखा लेकिन जनहित याचिकाओं को लेकर जो कल्पना थी क्या वह सच्चाई की कसौटी पर भी खरी उतरी?
सर्वोच्च न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण जनहित याचिकाओं की स्थिति से निराश दिखते हैं.
वे कहते हैं, "जब यह शुरु किया गया था तो लगा था कि ग़रीब लोग या ग़रीब लोगों की ओर से कुछ लोग घुसकर उनके हित की बात कर सकेंगे लेकिन अदालतों ने जब फ़ैसला देना शुरु किया तो पता चल रहा है कि वे तो मध्यम वर्ग या उच्च मध्य वर्ग के हितों की बात कर रहे हैं, ग़रीबों की बात कोई नहीं कर रहा है."
जनहित याचिकाओं से आम आदमी का कितना भला हुआ इस पर तो बहस होती रहेगी लेकिन एक बात निश्चित तौर पर हुई वो यह कि बरसों से अपनी बारी का इंतज़ार करते हज़ारों-लाखों मामलों की सुनवाई को रोककर अदालतें जनहित याचिकाओं की सुनवाई में लग गईं.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रह चुके रंगनाथ मिश्र इसे ठीक नहीं मानते. वे कहते हैं कि हज़ारों मामले पड़े रहें और जनहित याचिकाओँ पर सुनवाई होती रहे यह ठीक नहीं.
वे कहते हैं कि जनहित याचिकाओं के लिए जो नियम बनाए गए थे उनका पालन होना चाहिए.
बदला हुआ रुख़
पता नहीं अदालतें कभी आम आदमी के लिए थीं या नहीं लेकिन अब लोगों को लगता है कि अदालतों का रुख़ बदला हुआ सा है.
प्रशांत भूषण इसे बदलते दौर से जोड़कर देखते हैं.
वे कहते हैं, "उदारीकरण के दौर में कोर्ट का रुख़ भी वही हो गया है जो उन लोगों का है जो इस उदारीकरण को चला रहे हैं."
प्रशांत भूषण कहते हैं, "यानी ख़ुला बाज़ार है जिसमें जो ख़रीद सके वो ख़रीद ले जो न ख़रीद सके उसके लिए कुछ नहीं है."
जहाँ प्रशांत भूषण इसे उदारीकरण और बाज़ारवाद से जोड़कर देखते हैं तो मज़दूर नेता और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरुदास दासगुप्ता मानते हैं कि यदि अदालतें जनता का हित नहीं देख पा रही हैं तो यह राजनीति का प्रभाव है.
वे कहते हैं, "कोर्ट और ज्यूडिशियरी राजनीति को ध्यान में रखकर चल रहे हैं जनता को ध्यान में रखकर नहीं."
एलपीजी
इस बात से किसे इंकार हो सकता है कि समय बदल रहा है लेकिन इस बदलते वक़्त के साथ चलने के लिए विधायिका और कार्यपालिका की तैयारी वैसी नहीं दिखती जैसी कि न्यायपालिका की है.
पाँच जुलाई को भोपाल के राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का एक सेमीनार हुआ.
तीन दिनों के इस सेमीनार में न्यायाधीशों को उदारीकरण, नई अर्थव्यवस्था और नई तकनीक जैसे विषयों से परिचित करवाया गया और इनसे उपजने वाली चुनौतियों पर चर्चा की गई.
यह महज संयोग नहीं था कि दो हफ़्ते बाद यानी 23 जुलाई को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी ने कहा कि आने वाला समय एलपीजी का है, यानी लिब्रलाइज़ेशन – प्राइवेटाइज़ेशन और ग्लोबलाइज़ेशन का. जिसका अर्थ हिंदी में है उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण.
जस्टिस लाहोटी ने न्यायप्रणाली को इसके लिए तैयार रहने को कहा.
इस बयान पर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गहरी चिंता जताई और कहा कि इसके संकेत अच्छे नहीं हैं.
सर्वोच्च न्यायालय के वकील और कांग्रेस के सांसद राशिद अल्वी भी मानते हैं कि सार्वजनिक मंच पर मुख्य न्यायाधीश का ऐसा बयान उचित नहीं है.
राशिद अल्वी कहते हैं, "मुख्य न्यायाधीश अगर कुछ कहते हैं तो उस पर सभी की नज़र होती है, सरकार के भीतर भी और सरकार के बाहर भी. इसलिए अगर वे कुछ कहते हैं तो उनको एहतियात के साथ बात करनी चाहिए."
गुरुदास गुप्ता से इस विषय पर टिप्पणी मांगी तो उन्होंने कहा कि एलपीजी आर्थिक नीति है और उससे अदालतों का क्या लेना देना.
उन्होंने कहा कि अदालतों को सरकार की नीति के अनुसार नहीं बदलना चाहिए क्योंकि वह तो सरकारों के साथ बदल जाती है.
लेकिन जब जस्टिस बालाकृष्णन से इस पर टिप्पणी मांगी तो वे तपाक से बोले कि अब तो ज़माना ही एलपीजी का है.
भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे तो मानते हैं कि अपने विचार रखना तो मुख्य न्यायाधीश का कर्तव्य भी है.
वे कहते हैं, "मुख्य न्यायाधीश भारत के वरिष्ठ नागरिक हैं और उन्होंने अपने लंबे न्यायिक जीवन में बहुत कुछ देखा है और अगर उनको लगता है कि ये सब देश के लिए अच्छा है तो इसे उन्हें सामने रखना ही चाहिए."
विभाजन कैसा
लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती क्योंकि मुख्य न्यायाधीश आने वाले समय पर कुछ आगे तक नज़र डालते हैं वे आने वाले समय में भारतीय समाज में विभाजन को संकुचित होता देखते हैं और कहते हैं कि विभाजन सूचना क्रांति तक या डिज़िटल डिवाइड तक सिमटने वाला है.
उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में न ग़रीबी रेखा रहेगी न अगड़े पिछड़े का विभाजन.
मुख्य न्यायाधीश की इस आकलन पर टेलीग्राफ़ के संपादक भारत भूषण की टिप्पणी बहुत कुछ कहती है.
वे कहते हैं, "ये सिर्फ़ नारा है और जिस समाज में ग़रीबी और अमीरी तथा अगड़े और पिछड़े का विभाजन है वहाँ ये काम नहीं आता. जहाँ ग़रीब हैं वहाँ ग़रीबी रेखा तो रहेगी ही."
राशिद अल्वी तो इस कल्पना को ही असंभव मानते हैं कि भारत में ग़रीबी की जगह सूचना क्रांति की बात शुरु हो जाए.
वे कहते हैं, "जहाँ लोग भूखे हैं, जहाँ किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं वहाँ अगर आप किसी से ये कहेंगे तो उसे समझ में ही नहीं आएगा कि डिजिटल और सूचना क्रांति क्या है."
विश्लेषक इसे संयोग नहीं मानते कि अदालत कभी सरकार से अल्पसंख्यकों की सूची कम करने को कह रहा है और कभी आरक्षण पर ऐसा फ़ैसला आ रहा है जिससे समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित होगा.
राजनीति ने 70 के दशकों के बाद जो परिवर्तन देखे उसने एक नई राजनीतिक पौध पैदा की है जो अपना राजनीतिक भविष्य भारतीय समाज के वर्ग विभाजन में भी देखती है.
लेकिन अब जबकि न्याय प्रणाली भी उदारीकरण की धारा को आत्मसात करती दिख रही है तो लगता है कि आने वाले दिनों में राजनीति और न्याय प्रणाली के बीच टकराव बढ़ेगा ही.