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आख़िर लौहपुरूष पिघल ही गए | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
लंबे नाटक के बाद आख़िरकार लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफ़ा वापस लेने के साथ ही भाजपा में चार दिन से चले आ रहे नाटक का पटाक्षेप हो गया. आडवाणी पार्टी में लौह पुरुष माने जाते हैं और भारी मशक्कत के बाद वो अपने बयान पर झुकने को तैयार हो गए. पार्टी ने जो प्रस्ताव पारित किया, उसमें साफ़ तौर से कहा गया कि क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के प्रतिपादक थे और उन्हीं के कारण देश का धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ. जबकि आडवाणी ने पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष क़रार दे चुके थे. भाजपा में पिछले चार दिनों से आडवाणी के इस्तीफ़े को लेकर महज नाटक नहीं चल रहा था बल्कि विचारधारा को लेकर संग्राम छिड़ा हुआ था. लेकिन आडवाणी ने अपने बयान पर बहस के बजाय इसे व्यक्तिगत संघर्ष में तब्दील कर दिया.. आडवाणी के इस्तीफ़ा वापस लेने से संघ परिवार के संगठन अब भी संतुष्ट नहीं हैं. विहिप के वरिष्ठ नेता गिरिराज किशोर तो सवाल उठाते हैं कि भाजपा ने तो अपना पुराना रुख़ दोहराया है लेकिन विवाद तो आडवाणी के रुख़ को लेकर है. वो उन्होंने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है. दरअसल आडवाणी भाजपा में संघ की विचारधारा के प्रतिनिधि के तौर पर जाने जाते हैं. संघ को यदि यशवंत सिन्हा का मंत्रालय बदलवाना होता था तो वह सीधे अटल बिहारी वाजपेयी के पास जाने के बजाय आडवाणी के माध्यम से इसे क्रियान्वयन करवाता था. लेकिन आडवाणी के जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष क़रार देने से संघ को भारी झटका लगा.. आडवाणी के बयान के बाद उन पर कई भाजपा नेताओं ने निशाना साधा था. मुरली मनोहर जोशी को तो छोड़ दें क्योंकि वो तो आडवाणी के चिरप्रतिद्धंद्वी माने जाते हैं. लेकिन यशवंत सिन्हा, बाबूलाल गौर, कल्याण सिंह और मरांडी जैसे नेताओं ने खुलकर आडवाणी की आलोचना की. देखना यह है कि अब ये नेता आडवाणी को अब किस तरह स्वीकार करते हैं. लेकिन इतना तो साफ़ है कि इस प्रकरण ने पार्टी में आडवाणी के नैतिक बल को कम कर दिया है. फिलहाल भाजपा का संकट टल गया है लेकिन माना जा रहा है कि अभी यह समाप्त नहीं हुआ है. वरिष्ठ पत्रकार उदय सिन्हा का कहना है कि आडवाणी की विदाई गीत गा दिया गया है लेकिन इतना तय हुआ है कि बहू की विदाई शुक्रवार के बजाय किसी और दिन होगी. |
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