|
जेएनयू, जवानी और वामपंथ | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
वामपंथ और वामपंथी. ये दो शब्द ज़ेहन में आते ही छवि उभरती है एक ऐसे शख्स की जिसकी दाढ़ी और बाल बढ़े हुए है, मुंह में सिगरेट, घुटनों पर फटी हुई जींस और सींक सलाई जैसे तन पर खादी का स्टाइलिश कुर्ता. मुंह खुलता है तो मार्क्स और लेनिन की चौपाइयों के साथ ढेर सारा सिगरेट का धुंआ भी बाहर आता है ऐसा सुना था, लेकिन उत्तर भारत में वामपंथ का द्वीप कहे जाने वाले जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में सन् 2000 में पढ़ने आया तो ऐसी कई शख्सियतों को देखने-सुनने और जानने का मौका मिला. यूनिवर्सिटी के चर्चित गंगा ढाबे पर रात में पानी के पतलेपन को मात देती चाय और बिना आलू के आलू परांठे खाते हुए कई रातें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर बहस में शरीक हुआ हूं. जिसमें यदा कदा नीत्से, दांते, हॉब्स, रुसो जैसे नाम भी सुनने को मिलते थे. यहां चुनावों के दौरान बहस थोड़ी गर्मागर्म होती है. लोग बताते हैं अब ढाबे पर बहस की संस्कृति कम हो गई है. अब मेरे वामपंथी मित्र छात्रावास के कमरों में प्यालों के साथ बातचीत करने में यकीन रखते है क्योंकि ढाबे पर अब विचारों की उत्तेजना हाथापाई तक पहुंच जाती है. जेएनयू के चार साल के प्रवास में मैं न तो कभी वामपंथी रहा और न ही दक्षिणपंथी. मुझ पर अराजकतावादी होने के आरोप अलबत्ता लगते रहे. एक कॉमरेड को देखकर सीटी बजाने के कथित आरोप में कॉमरेडों ने मेरे ख़िलाफ़ जूलूस निकाला तो कभी दुर्गा पूजा में शामिल नही होने के कारण संघ समर्थक छात्रों ने मुझे नास्तिक क़रार दिया. इन सबके बावजूद मेरे मित्रों में दोनों ही तरह के लोग हैं.
वामपंथी विचारधारा को सही मायने में मानने वालों की एक बात बहुत ही अच्छी है कि वो अपने साथियों का बचाव करते हैं अगर उससे ग़लती हो गई हो तो भी. बहस और तर्क में विश्वास रखते हैं. उनका अपना अस्तित्व नहीं होता. वो पहले कॉमरेड होते हैं बाद में कुछ और. कई पढ़ने वाले होते है जिनमें से ज़्यादातर अब ब्रिटेन और अमरीका का रुख करने लगे हैं. यहीं पर सीताराम येचुरी, प्रकाश करात और गदर को सुनने का भी मौका मिला और सवाल पूछने का भी. छोटा सा बदलाव देखा कि ये नेता पहले अंग्रेज़ी बोलते थे, धीरे धीरे हिंदी भी बोलने लगे हैं. मैंने एक वोट से चुनाव हारने वाले वामपंथियों का गम देखा है और भारी अंतर से जीतनेवाले वामपंथियों की खुशी भी देखी है. दुख में भी वही गंगा ढाबा और खुश हों तो भी उसी ढाबे पर इनकी पार्टियां होती हैं. वामपंथी छात्रों को देखकर एक बात का अहसास ज़रुर होता है कि विचारों में शक्ति होती है लेकिन फिर यह देखकर दुख होता है कि अधिकतर वामपंथी नेता जेएनयू की चहारदीवारी से निकलते ही दूसरी पार्टियों में शामिल हो जाते हैं. जब मैने ऐसे ही एक छात्र नेता से इसका कारण पूछा तो जवाब मिला "जवानी में वामपंथी न हुए तो जवानी किस काम की. बाद में तो बहुत कुछ सोचना पड़ता है." लेकिन सब ऐसे नहीं होते. कई वामपंथी छात्र नेता बाहर निकल कर भी आम लोगों के लिए काम करते हैं. कई छात्र विदेशों का भी रुख कर रहे हैं ख़ासकर अमरीका. सालों साल अमरीका का विरोध करने के बाद इन बुद्धिजीवियों का अमरीका की ओर रुख करना चौंकाता ज़रुर है लेकिन इस सवाल का जवाब लंदन में मिला कि अब जेएनयू में बहस के लिए न तो जगह है और न ही तर्क करने वाले. तर्क करने वाले का सम्मान तक नहीं होता लिहाज़ा विदेश का रुख करना पड़ता है. |
| ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||