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'बस अब घर वापस आ जाओ' | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सऊदी अरब के दुनिया भर में मशहूर शहर दुबई में दो तरह की आवाज़ों से आप बच नहीं सकते, और वो हैं - मस्जिदो में से पाँच वक़्त आने वाली अज़ान की आवाज़ और 24 घंटे घर्र-घर्र करती मशीनों की आवाज़ जो इमारती सामग्री तैयार करती हैं. दुबई में कुछ इमारतें तो दुनिया भर में मशहूर हैं. लंबा टॉवर ब्लॉक दुनिया का पहला सात सितारा होटल है. और इतना ही नहीं यहाँ पर अब बर्फ़ीले चट्टान भी बनाने की योजना है. लेकिन ख़ुद इमारती उद्योग के बारे में कुछ ऐसा भी है जो कम चकाचौंध वाला है. यानी यहाँ इमारती निर्माण कार्य में ज़्यादातर लोग दक्षिण एशियाई देशों से हैं जो दिन रात काम करते हैं, ख़ासतौर से मजदूर तबका. ख़ुदकुशी यह एक ख़ुदकुशी की दास्तान है. अरुमुगम वेंकटेशन को एक मजदूर शिविर में उनके कमरे में ही पंखे की छत से लटका हुआ पाया गया है. उनके साथ रहने वाले अवधेश अपने 25 वर्षीय दोस्त की मौत से ग़मगीन हैं, सदमे की वजह से शांत हैं और बोलते हैं तो बहुत आहिस्ता-आहिस्ता. जब मैं मिलती हूँ तो अवदेश सबसे पहली चीज़ मुझे दिखाते हैं - वेंकटेशन के बिस्तर पर पड़ा हुआ सामान. कुछ बैग और सूटकेस जिन्हें तरतीब से रखे जाने का इंतज़ार है. अवधेश बताते हैं, "मैं काम से घर क़रीब शाम को साढ़े सात बजे लौटा. कमरा बंद था. जब मैंने दरवाज़ा खोला तो अंदर घुप्प अंधेरा था." "मैंने वेंकटेशन को आवाज़ दी लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. तभी मेरी नज़र पंखे से लटके उसके शरीर पर पड़ी. उसकी टाँगें ज़मीन पर टिकी थीं और गर्दन टूट चुकी थी." दक्षिण एशियाई देशों से हज़ारों-लाखों की संख्या में मज़दूर और तकनीशियन रोज़ी-रोटी की तलाश में दुबई आते हैं. वेंकटेशन का दुबई आना कुछ अलग था. उन्हें एक कंपनी भारत से दुबई में इमारती निर्माण क्षेत्र में काम करने के लिए लाई थी. खाड़ी में अपनी जीविका और कामकाज के लिए वह उस कंपनी पर निर्भर थे.
वह कंपनी के ही दिए हुए एक मज़दूर शिविर में रहते थे, उस शिविर में नौ कमरे थे जिसमें कुल 85 लोग रहते थे. एक कमरे में आमतौर पर आठ और कभी-कभी तो 12 लोग सोते थे. स्नानघर तो किसी कबूतरख़ाने की तरह हैं और एक ग़ुसलख़ाने का इस्तेमाल 25 लोग करते हैं. हालात तो बहुत ख़राब हैं लेकिन वेंकटेशन जैसे लोगों का यहाँ आना एक मजबूरी है और उस मजबूरी का नाम है - धन कमाना या यूँ कहें कि रोज़ी - रोटी का जुगाड़ करना. इमारती निर्माण क्षेत्र में काम करके एक मज़दूर दुबई में भारत के मुक़ाबले दस गुना ज़्यादा कमाई कर सकता है. कुछ लोगों के लिए यह अच्छी आमदनी होती है जिससे देश में पीछे छोड़े अपने परिवार को अच्छा सहारा मिल जाता है, नया मकान बन जाता है और क़र्ज़ से भी छुटकारा मिल जाता है. "बस घर आ जाओ" दुबई में कारोबार भले ही बढ़ रहा हो लेकिन अवधेश बताते हैं कि उन्हें पिछले अगस्त से तनख़्वाह नहीं मिली है और उनके बहुत से साथी बिना सही दस्तावेज़ों को ही वहाँ रहकर काम करते हैं. "ये मेरे साथी हैं जिनका वीज़ा ख़त्म हो गया है लेकिन वह यहीं रहकर ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से काम कर रहे हैं." ऐसे भी आरोप लगाए जाते हैं कि कुछ कंपनियाँ जानबूझकर पासपोर्ट ग़ायब करा देती हैं ताकि मज़दूर वापस अपने घर को नहीं लौट सकें. वेंकटेशन ने उन्हें दुबई लाने वाली कंपनी को रक़म अदा करने के लिए उच्च ब्याज दर पर क़र्ज़ लिया था. वह अपने परिवार में भी थे अकेले ही कमाने वाले थे और छह लोगों की रोज़ी-रोटी उन्हीं की कमाई से चलती थी.
उनके साथ काम करने वालों ने वेंकटेशन का ख़ुदकुशी बयान भी दिखाया. वे बताते हैं कि ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी ही जान इसलिए ले ली क्योंकि वह उच्च दर वाला क़र्ज़ चुकाने में नाकाम रहे. वेंकटेशन को भारत से दुबई लाने वाली कंपनी के प्रबंधक रेगिस जॉन्स से जब पूछा गया कि उन्हें मज़दूरों को तनख़्वाह क्यों नहीं दी है तो उनका जवाब था, "हमारी कंपनी पिछले क़रीब डेढ़ साल में कुछ वित्तीय मुश्किलों का सामना कर रही है, हम कहते हैं कि हम उनका भुगतान ज़रूर करेंगे." जॉन्स ने स्वीकार किया कि वे सभी मज़दूरों के पासपोर्ट अपने पास रखते हैं, हालाँकि यह ग़ैरक़ानूनी है लेकिन सभी कंपनियाँ ऐसा ही करती हैं. वहाँ हड़ताल करना भी ग़ैरक़ानूनी है. जॉन्स इन आरोपों का खंडन करते हैं कि वह मज़दूरों को उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ वहाँ रखते हैं. वेंकटेशन की मौत के बाद अवधेश जैसे मज़दूर अब अपनी कंपनियों के साथ अपना ठेका रद्द करके अपने घर को लौटना चाहते हैं. अवधेश कहते हैं, "मैंने दुबई के बारे में बड़ी-बड़ी बातें सुनी थीं लेकिन जब मैं यहाँ आया तो मैं यहाँ की ज़िंदगी से नफ़रत करने लगा. मैं यहाँ फिर से कभी नहीं आना चाहूँगा, मेरा परिवार मुझसे वापस लौटने की गुहार लगा रहा है, जैसे भी हालात हैं, बस घर वापस आ जाओ." |
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