गुरुवार, 14 अक्तूबर, 2004 को 13:54 GMT तक के समाचार
फ़ैसल मोहम्मद अली
बीबीसी संवाददाता
कच्ची-पक्की सड़कों और गलियों के बीच ऊंची दीवारों से घिरे पक्के मकानों में रहते हैं-भारत के कुल खाद्यान का एक चौथाई अनाज उगाने वाले पंजाब के खुशहाल किसान.
खुशहाली के सारे लक्षण वहाँ मौजूद हैं, आँगन के भीतर अच्छी नस्लों की गाय-भैसों की जोड़ियाँ, ट्रैक्टर, कार या फिर स्कूटर और खेतों में सिंचाई के लिए लगे पम्पिंग सेट.
लेकिन इस तस्वीर का एक दर्दनाक पहलू भी है.
पिछले चंद सालों में कर्ज के बोझ से दबे राज्य के 2000 किसानों ने आत्महत्या कर ली. यह आंकड़ा पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह के अपने बयान के मुताबिक है.
गैर सरकारी आँकड़ों के अनुसार ख़ुदकुशी करने वाले किसानों की संख्या लगभग 6,000 है.
गाँव बेचने को तैयार
हालत यह है कि क़र्ज के बोझ, महाजनों के उलाहने और कुड़की की धमकियाँ सह रहे किसान सामूहिक तौर पर गाँव के गाँव बेचने को तैयार हैं.
कुछ ऐसा ही हुआ भटिंडा जिले के हरकिशनपुरा ग्राम में जहाँ 125 घरों का कुल कर्ज साढ़े तीन करोड़ हो गया था.
लाल सिंह, हरकिशनपुरा के नंबरदार हैं. वे बताते हैं, "सारी पंचायत ने मिलकर फैसला किया कि गाँव को ही बेच दें. क्या करते. लोगों पर लाखों-लाख का कर्ज हो गया है. कई लोगों ने खुदकुशी कर ली. 8-10 लोगों को दिल का दौरा पड़ा. चिंता से कई लोग पागलों की स्थिति में पहुँच गए हैं. हमेशा कुर्की-जब्ती का डर बना रहता है. हमने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों को लिखा. हम खेत-जायदाद सब बेचने को तैयार. कोई इसे ले लो अगर कुछ पैसे बच जाए तो हमे दे दे. हम इसके लिए भी तैयार है कि कोई यहाँ फैक्ट्री लगा लें."
गाँव के बुर्जुग और ग्राम पंचायत सदस्य लाल सिंह ने एक ही साँस में अपनी व्यथा सुना दी.
पिछले साल से लेकर अब तक हरकिशनपुरा गाँव की कुल 1100 एकड़ खेती की ज़मीन में से 500 एकड़ बिक चुकी है. खेत को अभिन्न अंग मानने वाले यह खेतिहर पुऱखों की ज़मीन-जायदाद से नाता तोड़ रोज़ी-रोटी की तलाश अब अनजान जगहों पर कर रहे हैं.
कभी साढ़े चार एकड़ ज़मीन जोतने वाले कुण्डा सिंह की तरह. वे कहते हैं, "मजदूरी करता हूँ. 70-75 रूपए रोज के मिलते हैं. खेत बेचने के बाद भी कर्ज नहीं चुक पाया. बड़े भाई ने उसी चक्कर में ख़ुदकुशी कर ली. परजाई ने भी इसके एक साल बाद कीट नाशक पीकर अपनी जान ले ली."
हरित क्रांति का दोष
कृषि क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संस्था 'खेती विरासत' के निदेशक उमेन्दर दत्त कहते हैं, "उस राज्य में जो कभी हरित क्रांति में अग्रणी था, उसका मॉडल समझा जाता था, वहाँ के किसान आत्महत्या करें यह बड़े शर्म की बात है. लेकिन यह हरित-क्रांति संप्रदाय की देन है. जिसका पूरा मतलब ही शोषण."
दूसरे गाँवों ने हरकिशनपुरा की तरह सारी सम्पत्ति बेचने की सार्वजनिक घोषणा भले ही न की हो, लेकिन उनके हालात भी कुछ भिन्न नहीं.
हरित क्रांति में अग्रणी और समस्त देश में आदर्श के तौर पर पेश किए जाने वाले पंजाब के मेहनती किसान की इस दुदर्शा का कारण शोधकर्त्ता और अर्थशास्त्री हरित-क्रांति के स्वरूप में ही देखते हैं. जिसका पूरा ध्यान सिर्फ उत्पादन बढ़ाने पर था.
किसानों को आधुनिक उपकरण खरीदने के लिए बड़े-बड़े ऋण दिए गए और पैदावार बढ़ाने के इसी क्रम में प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों का शोषण की हद तक उपयोग ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ गया.
पंजाब की खेती व्यवस्था के कई पहलुओं पर शोध कर चुके भटिंडा स्थित सुरिन्धु सिंह कहते हैं- "शुरू में ठीक है हरित क्रांति ने हमें अच्छा रिजल्ट दिया. हमारे गोदाम भर गए. फसल अच्छी हुई. लेकिन कुल मिलाकर आज जो स्थिति है उसमें हमें अपने उस कृषि के कारण खेत में लगने वाला लागत हर साल बढ़ रहा है. ज्यादा खाद और अधिक सिंचाई ने ज़मीन की उर्वर क्षमता बर्बाद कर दी. ग्राउंड वाटर नीचे चला गया है, पानी खारा हो गया है."
असिमित खाद और कीटनाशक
अपनी आर्थिक स्थिति बनाए रखने और बैंक से लिए कर्जों की वापसी के लिए पैदावार बढ़ाना जरूरी था.
किसानों ने ज़्यादा से ज़्यादा सिँचाई और खाद तथा कीटनाशकों का इस्तेमाल शुरू कर दिया.
पंजाब के कपास उगाने वाले मानवा क्षेत्र को ही लें. जहाँ किसान कपास की एक फसल पर कीटनाशकों का 32-32 बार छिड़काव कर रहे हैं. जबकि लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय सात छड़काव की सलाह देता है.
ज़ाहिर है इन सबके लिए कर्ज लेने पड़े. जो अगर बैंकों से नहीं मिले तो महाजनों या अनाज के थोक व्यापारियों से ऊँचे ब्याज पर आए.
चक्रव्यू
अगर बाजार में फसलों के अच्छे दाम नहीं मिले या किसी कारण फसल बर्बाद हो गई तो नौबत फिर नए ऋण लेने की आई. इस तरह शरू हुआ ऋण का एक चक्रव्यूह.
खाद के ज्यादा इस्तेमाल से ज़मीन की जो उर्वरक क्षमता घटने या फिर पानी के स्तर के नीचे जाने का जो प्रश्न उठा उसे सिर्फ नैतिक मानकर उसकी उपेक्षा कर दी गई. न सिर्फ किसानों द्वारा बल्कि सरकार के योजना बनाने वाले द्वारा भी. लेकिन कभी नैतिक लगने वाले यह मुद्दे अब विकराल रूप अख्तियार कर चुके हैं.
राज्य ग्रामीण विकास संस्थान में काम कर रही अर्थशास्त्री रोज़ी वैद कहती हैं, "हरित क्रांति व्यवस्था के उस पहलू को भी दोषी मानती हैं जिसमें किसानों को आधुनिक तरीके से खेती करने के लिए ऋण मेले लगाकर बड़े-बड़े ऋण तो दिए गए लेकिन उन्हें कर्ज के अदायगी के गुर नहीं बताए गए."
वे कहती हैं, "हमारे पास कैसी जायदाद है, खेत कैसे हैं, हम कैसी लागत लगा पाएंगे, या हम इस कर्ज को वापस कर पाएंगे या नहीं. इस चीज को किसान नहीं समझ सकते थे. और कोई भी एजेंसी चाहे वह सरकारी हो या कोई और किसानों को यह बात नहीं समझाई. दूसरी बात, उन लोगों ने जो कर्ज खेती के लिए उसे दूसरी चीजों पर खर्च कर दिया."
नई पीढ़ियों और परिवार के बीच ज़मीन के बँटवारे ने रही सही कमी पूरी कर दी.
आज हालात यह है कि पंजाब का किसान दशकों पहले की उसी स्थिति में पहुंच गया है - जहाँ उसकी पूरी ऊपज महाजनों की नज़र हो जाती थी.