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डींगल का अपने वजूद के लिए संघर्ष | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राजस्थान में भक्ति, शौर्य और श्रृंगार रस की भाषा रही डींगल अब चलन से बाहर होती जा रही है. अब हालत ये है कि डींगल भाषा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राचीन ग्रंथों को पढ़ने की योग्यता रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं. कभी डींगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में रणबाँकुरों में उत्साह भरा करते थे लेकिन वक़्त ने ऐसा पलटा खाया कि राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कुछ भागों में सदियों से बहती रही डींगल की काव्यधारा अब ओझल होती जा रही है. जोधपुर विश्वविद्यालय में राजस्थानी भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष और डींगल के विद्वान डॉक्टर शक्तिदान कबिया कहते हैं कि डींगल अभी जीवित तो है लेकिन इसे अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. डींगल का शब्द भंडार अत्यंत समृद्ध है. इसमें एक-एक शब्द से तीस-तीस पर्यायवाची शब्द मौजूद हैं. मिसाल नहीं भारत के पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह डींगल के बड़े प्रशंसक हैं. उन्होंने जोधपुर में चारण कवियों के एक समारोह में डींगल की महत्ता का बयान किया.
जसवंत सिंह कहते हैं, "विश्व में तमिल को छोड़कर कोई भी ऐसी भाषा नहीं है जो डींगल के बराबर समृद्ध हो. इसमें श्रृंगार और शौर्य का अदभुत मिश्रण है." राजस्थान में शायद ही कोई ऐसा हो जिसकी प्रशस्तियों में डींगल के गीत ना हों. कुछ आलोचक कहते हैं कि डींगल महलों और राजदरबारों तक ही सीमित रही लेकिन डॉक्टर कविया कहते हैं, "डींगल आम अवाम की ज़ुबान रही है." "डींगल कवियों ने हर विषय पर कविताएँ लिखी हैं. बल्कि अनेक मौक़ों पर राजाओं को फटकार भी लगाई है." बंगाल में भी जब आज़ादी के प्रति चेतना के स्वर नहीं फूट रहे थे तब राजस्थान में डींगल कवि स्वाधीनता के गीत लिख रहे थे.
जोधपुर के राजकवि बाँकीदास ने 1805 में 'आयो अंग्रेज़ मुल्क के ऊपर' जैसा अमर गीत लिखकर राजाओं को उलाहना दिया था. डींगल गीतों का वाचन और गायन बहुत सरल नहीं है. इसमें विकटबंध गीत और भी कठिन माना जाता है. डॉक्टर कविया एक विकटबंध गीत की मिसाल देते हैं जिसमें पहली पंक्ति में 54 मात्राएँ थीं, फिर 14-14 मात्राओं की 4-4 पंक्तियाँ एक जैसा वर्ण और अनुप्राश! इसे एक स्वर और साँस में बोलना पड़ता था और कवि गीतकार इसके लिए अभ्यास करते थे. प्रसिद्ध साहित्यकार डॉक्टर लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत चिंता के स्वर में कहती हैं कि यही हाल रहा तो डींगल का वजूद ही ख़तरे में पड़ जाएगा. साहित्यकार पूनमचंद बिश्नोई कहते हैं कि पहले डींगल को सरकारी सहारा मिलता था और यह रोज़गार से जुड़ी हुई थी पर अब ऐसा नहीं है. अनेक जैन मुनियों ने बी डींगल में रचनाएं की हैं. थार मरुस्थल में आज भी अनपढ़ लोग डींगल की कविता करते मिल जाएंगे. वक़्त बहुत तेज़ी से बदल रहा है. ज़माना फ़ास्ट फूड का है. पहले जीभ का स्वाद बदला और अब मुँह की बोली भी पीछे छूटती जा रही है. यह विडंबना ही है कि सदियों तक नीति और नैतिकता की सदा बुलंद करने वाली डींगल भाषा को अब अपने वजूद के लिए मदद की गुहार लगानी पड़ रही है. |
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