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महाराष्ट्र: 'स्विंग' और 'स्प्लिट फ़ैक्टर' का चक्कर

इस बार महाराष्ट्र में जनमत संग्रह और चुनावों के अध्ययन वाले शास्त्र के हिसाब से चुनाव ‘स्विंग फ़ैक्टर’ बनाम ‘स्प्लिट फ़ैक्टर’ का बेहतरीन उदाहरण है.

अब चुनाव का अंतिम नतीजा ही बताएगा कि इनमें से कौन सा कारक ज़्यादा असरदार रहा.

फिर अगर आम भाषा में इसी मसले को रखें तो कहना होगा कि कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस गठबंधन का लाभ चुनाव पर भारी पड़ेगा या इन दोनों दलों की साझा राज्य सरकार की अलोकप्रियता, यही मुख्य सवाल है.

इन्हीं दो कारकों से न सिर्फ़ राज्य की राजनीति ही प्रभावित होगी बल्कि राष्ट्रीय परिदृश्य पर भी इसका असर होगा क्योंकि महाराष्ट्र से लोकसभा की सीटें सिर्फ़ उत्तर प्रदेश से ही कम है.

सबसे पहले तो गठबंधन वाले कारक पर विचार करें.

पिछले चार लोकसभा चुनावों पर सरसरी नज़र डालने से यह साफ दिखेगा कि महाराष्ट्र ऐसा प्रदेश है जिसमें हर बार लोग पार्टियां बदल-बदल कर जितवाते हैं.

पर इस ऊपरी धारणा से राय बना लेने से ग़लती हो सकती है.

कांग्रेस का दबदबा

महाराष्ट्र में भी कांग्रेस का दबदबा उसी तरह का रहा है जैसा कई अन्य राज्यों में था. 1995 तक किसी भी गैर कांग्रेसी पार्टी ने राज्य विधानसभा के चुनाव नहीं जीते.

शिंदे ने भी समझौता कराने में भूमिका निभाई

कांग्रेस की पकड़ सहकारिता आंदोलन के चलते बहुत नीचे तक रही है.

इसके बाद 1989 में जब भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन किया तब कांग्रेस को गंभीर चुनौती मिलनी शुरू हुई और 1995 में इसी गठबंधन ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हटाकर सत्ता हासिल की थी.

इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन ने अपनी जीत को और ठोस किया.

लेकिन यह आखिरी दफ़े ही था जब इस भगवा गठबंधन ने कांग्रेस की पूरी शक्ति को पीछे छोड़ा था.

अगले चुनाव में कांग्रेस कमर कसके खड़ी हुई, उसने रिपब्लिकन पार्टी से गठबंधन किया और चुनावी नतीजे पलट दिए.

पिछला लोकसभा चुनाव विधानसभा चुनावों के साथ ही हुआ था और तब बहुत अजीबोगरीब नज़ारा दिखा.

कांग्रेस की टूट का असर

1999 में हुए चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस पार्टी टूट गई और शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के नाम से अलग होकर चुनाव लड़ा.

पिछली बार काँग्रेस की टूट का लाभ मिला था भाजपा-शिवसेना को

फिर दोनों कांग्रेस पार्टियों ने अलग-अलग गठबंधन बनाए.

कांग्रेस ने रिपब्लिकन पार्टी और भारतीय बहुजन महासंघ के साथ तालमेल किया तो राष्ट्रवादी कांग्रेस ने शेतकारी कामकार पार्टी, जनता दल (एस), समाजवादी पार्टी और रामदास आठवाले के नेतृत्व वाली दूसरी रिपब्लिकन पार्टी के साथ.

कांग्रेसी मतों के विभाजन से इन दोनों दलों और गठबंधनों पर प्रभाव पड़ा.

दोनों के कुल वोट तो 56 फीसदी हो गए पर भाजपा-शिवसेना ने 58 फीसदी वोट पाकर ही लोकसभा की बहुत ज्यादा सीटें जीत लीं.

उसे 48 में से 28 सीटें मिलीं, कांग्रेस को 10 और राष्ट्रवादी कांग्रेस को 6 सीटें मिलीं.

मत बँटने से चुनाव हारने का यह बहुत अच्छा उदाहरण था.

भाजपा-शिवसेना अपने पक्ष में ‘स्विंग’ होने के चलते नहीं जीते बल्कि विपक्ष के वोट बँटने के कारण जीते.

भाजपा और शिवसेना को अपने प्रत्येक चार लाख वोट पर ही संसद की एक सीट मिली.

कांग्रेस का विख्यात ‘वोटों का इंद्रधनुष’ बिखर गया.

राज्य की आबादी में एक तिहाई हिस्सा रखने वाली और कांग्रेस का सबसे बड़ा आधार रही मराठा-कुनबी जाति के वोट दोनों कांग्रेसों में बँट गए.

दलित, मुसलमान और आदिवासी जैसे कांग्रेस के पारंपरिक आधार काफी हद तक कांग्रेस के पास थे पर राष्ट्रवादी कांग्रेस ने इसमें भी सेंध लगाकर कांग्रेस को परेशानी में डाला.

बनते बिगड़ते गठबंधन

इस बार कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस अपने वोटों का बँटवारा न होने देने के लिए चौकस हैं.

उन्होंने न सिर्फ अपना गठबंधन किया है बल्कि अपने पुराने कुछ साथियों को भी इसमें शामिल किया है.

पर कुछ छोटे दल छूटे भी हैं.

भारतीय बहुजन महासंघ, शेतकारी कामगार पार्टी और समाजवादी पार्टी इस बार अलग हैं.

अगर ये सभी साथ होते और 1999 जैसा प्रदर्शन हो जाता तब तो इस गठबंधन को प्रदेश की 48 में से 41 सीटें मिल जातीं.

पर अभी भी गठबंधन की ताकत बहुत है.

अभी भी शामिल दलों को उनका वोट मिल जाए तो 38 स्थान मिल जाएंगे और भाजपा-शिवसेना 7 स्थान पर आ जाएगी.

पर यह सिर्फ़ काग़जी हिसाब है.

असली बात यह है कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस अपने-अपने साथ कितने वोट ले आते हैं.

अगर इस गठबंधन को पहले की तुलना में छह फ़ीसदी कम वोट आए तो भी उसे 28 सीटें मिलेंगी.

और अगर उनके साझा वोटों में दस फीसदी की कमी आ गई तो इस गठबंधन का लाभ शून्य हो जाएगा.

ऐसी स्थिति में भाजपा-शिवसेना को 27 स्थान मिलेंगे अर्थात पहले से एक कम.

अब असली सवाल यह है इस नए गठबंधन को पिछली बार अलग-अलग मिले मतों में से कितने वोट मिलते हैं.

इस सवाल को लेकर दोनों ही दल 'नर्वस' हैं और इसी के चलते विधानसभा के चुनाव साथ-साथ नहीं कराने का फैसला हुआ.

और उनकी बेचैनी अकारण नहीं है.

प्रदेश में साथ सरकार बनाकर भी उनके रिश्ते सामान्य नहीं हुए हैं.

फिर दो अलग-अलग दल रहने से काफ़ी सारे लोगों की महत्वाकांक्षाएँ पूरी होने की गुंजाइश रहती है.

एकजुट होगा वोट?

इस बार जैसे ही दोनों दलों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया, दोनों के काफी सारे स्थानीय नेता भाजपा-शिवसेना की तरफ चले गए.

प्रधानमंत्री वाजपेयी भी महाराष्ट्र में कई रैली कर चुके हैं

फिर अभी यह भी तय नहीं है कि साझा उम्मीदवार के लिए दोनों दलों के स्थानीय कार्यकर्ता पूरे उत्साह से चुनाव प्रचार में लगते हैं या नहीं.

इससे उलट स्थिति भाजपा-शिवसेना खेमे में है- वहां तालमेल हर स्तर पर और बेहतर दिखता है.

फिर राज्य सरकार का कामकाज कतई संतोषजनक नहीं रहा है.

पिछले कई वर्षों से राज्य में सूखा पड़ रहा है और सरकार उचित ध्यान नहीं दे रही है.

उसने सिर्फ जरूरी धन न देने के लिए केन्द्र सरकार को कोसने का काम किया है.

आम लोग इस सरकार को पिछली सरकार की तुलना में तेलगी कांड के लिए ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं.

यह मसला भी चुनाव के लिए संवेदनशील और इसी सवाल पर उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल इस्तीफा दे चुके हैं.

सितंबर 2003 में हुए शोलापुर लोकसभा उप चुनाव में सरकार के कामकाज की अलोकप्रियता उजागर हुई.

यह मुख्यमंत्री की सीट थी पर यहां राष्ट्रवादी कांग्रेस के एक मंत्री का भाई भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत गया.

भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने कांग्रेस के मराठा वोट बैंक में भी सेंध लगाई है.

इसका चुनाव पर भारी असर पड़ेगा ख़ासकर पश्चिमी महाराष्ट्र के कांग्रेसी गढ़ पर.

एक सर्वेक्षण के अनुसार दलित और मुस्लिम वोट में कांग्रेस गठबंधन को बढ़त है पर पिछड़ों और अगडों में भाजपा-शिवसेना आगे हैं.

पश्चिमी महाराष्ट्र में अनेक प्रभावी मराठा नेता राष्ट्रवादी कांग्रेस से निकलकर भाजपा-शिवसेना की ओर गए हैं.

इनका चीनी सहकारी संघों में काफी असर है. अभी तक भगवा गठबंधन का इस ताकतवर लॉबी में प्रवेश नहीं हुआ था. केन्द्र की सत्ता के प्रभाव ने इसमें मदद की है.

आज हर आदमी प्रदेश के शासक गठबंधन से वोट खिसकने की भविष्यवाणी कर रहा है पर असली सवाल है कितना वोट खिसकेगा.

राष्ट्रवादी कांग्रेस द्वारा कराए गोपनीय सर्वेक्षण की अब शरद पवार की ओर से जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि गठबंधन के वोटों में छह फीसदी की कमी आ रही है.

वहीं एक अन्य सर्वेक्षण आठ फीसदी वोट घटने की बात करता है.

ऐसे में ‘स्विंग’ और ‘स्प्लिट’ दोनों ही कारक एक स्थान पर आकर एक दूसरे को बराबर भरते लग रहे हैं.

पर अभी चुनाव में तीन से चार हफ्ते का समय है.