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गुरुवार, 04 दिसंबर, 2003 को 22:57 GMT तक के समाचार
 
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चुनावों परिणामों से कौन लेगा सबक?
 

 
भाजपा समर्थक
इन चुनाव परिणामों के दूरगामी असर होंगे
 

भारत के ताज़ा विधान सभा चुनावों के परिणाम देश की दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए सबक़ के समान हैं. लेकिन क्या वे कुछ सीख ले पाएँगे?

जब उमा भारती को भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश में भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया तो मैंने सोचा कि पार्टी ने एक बार हिंदुत्व को मुख्य चुनावी मुद्दा के रूप में पेश करने की ठानी है.

साध्वी उमा भारती हिंदुत्व के सबसे मुखर समर्थकों में से हैं.

वह 1992 के दिसंबर में अयोध्या में मस्जिद ढहाए जाने के विवाद के केंद्र में रही हैं.

लेकिन इस बार चुनाव अभियान शुरू करने से पहले उन्होंने मुझसे कहा कि हिंदुत्व उनकी व्यक्तिगत आस्था से जुड़ा है.

उन्होंने विकास पर केंद्रित चुनाव अभियान चलाने की बात की. राज्य में 10 साल से सत्ता में मौजूद कांग्रेस की आलोचना की.

ख़ास कर उन्होंने मध्य प्रदेश में सड़क और बिजली की ख़राब स्थिति का ज़िक्र किया.

भाजपा ने बाकी तीन राज्यों में विकास का मुद्दा उछाला.

परिणाम से विकास के मुद्दे की अहमियत ज़ाहिर हो जाती है.

जिन चार राज्यों में चुनाव हुए उनमें से सभी में कांग्रेस का शासन था. लेकिन कांग्रेस सिर्फ दिल्ली में अपनी सत्ता बचा पाई.

दिल्ली में मुख्यमंत्री की पहचान अच्छे प्रशासन, बेहतर सड़कों, बिजली की अच्छी स्थिति, स्वच्छ हवा, बढ़िया स्कूल आदि से जुड़ी रही है.

अन्य तीन राज्यों में भाजपा मतदाताओं को ये समझाने में सफल रही कि कांग्रेस पार्टी और विकास साथ-साथ नहीं चल सकते.

दबाव

सो भाजपा के लिए एक सीख ये है कि हिंदुत्व उसका तुरूप का पत्ता नहीं है.

लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर अब भी दबाव है कि वे आगामी आम चुनावों में हिंदुत्व के मुद्दे को भुनाएँ.

भाजपा के आम कार्यकर्ता आम तौर पर उन संगठनों से संबद्ध होते हैं जो कि हिंदुत्व के प्रति समर्पित हैं. ज़ाहिर है वे अगली बार अपनी माँगों पर ध्यान दिए जाने की बात करेंगे.

वाजपेयी जानते हैं कि यह सफलता आम चुनाव में जीत की गारंटी नहीं बन सकती
 

भाजपा के एक प्रवक्ता ने कह भी दिया है कि सुशासन इस चुनाव की सीख है लेकिन उसके लिए ब्रितानी शासन से विरासत में मिली व्यवस्था में व्यापक सुधार की ज़रूरत होगी.

अभी तक वाजपेयी समेत भारत का कोई भी नेता प्रशासनिक सुधारों को लेकर राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के विरोध की अनदेखी नहीं कर पाया है.

कांग्रेस को सीख

कांग्रेस के लिए इस चुनाव के सबक़ और गंभीर है.

स्वतंत्रता बाद की भारतीय राजनीति पर क़ाबिज़ रही कांग्रेस पार्टी अब भी उस दौर की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाई है.

ऐसा भी नहीं है कि लोग आँख मूँद कर नेहरू-गाँधी परिवार की मौजूदा प्रतिनिधि सोनिया गाँधी को वोट देने के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं.

भाजपा के प्रभावशाली चुनाव अभियान के मुक़ाबले कांग्रेस के आभाहीन अभियान से साफ ज़ाहिर है कि नेहरू-गाँधी परिवार का तानाशाही रवैया स्थानीय नेताओं को खुल कर अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाने का मौक़ा नहीं देता.

कांग्रेस के छोटे नेताओं को अब भी अहम फ़ैसलों के लिए आलाकमान का मुँह देखना पड़ता है.

राजस्थान में इस बार के चुनाव अभियान के दौरान मुझे एक विक्षुब्ध कांग्रेसी नेता ने बताया कि उनके ज़िले में अधिकतर उम्मीदवार सोनिया गाँधी के सलाहकारों में शामिल एक नेता के बेटे को निगाह में रखते हुए चुने गए हैं.

लेकिन कांग्रेस पार्टी तभी ख़ुश रह पाती है जब उस पर नेहरू-गाँधी परिवार के किसी सदस्य का मुकम्मल शासन हो.

कांग्रेस पार्टी में यह समझ नहीं आ पाती कि उसे लोकतांत्रिक होने की ज़रूरत है. इसका मतलब ये हुआ कि इस बार का ख़राब प्रदर्शन भी सोनिया के लिए कोई ख़तरा नहीं है. वह जाती भी हैं तो अपने द्वारा तय समय पर ही.

शीघ्र चुनाव

तो क्या ये माना जाए कि प्रधानमंत्री वाजपेयी भाजपा की सफलता को अपने पक्ष में हवा के रूप में देखें और लोकसभा के आम चुनावों को समय से पहले आयोजित करने का ऐलान कर दें?

ऐसा लगता है कि वह दो तरह से सोच रहे हैं.

वोटों की गिनती शुरू होने से पहले उन्होंने कहा कि भाजपा सांसदों को आम चुनाव के लिए तैयार रहना चाहिए. अब उनका कहना है कि प्रधानमंत्री के पद पर उन्हें एक और साल बने रहना है.

वाजपेयी अच्छी तरह जानते हैं कि राज्य विधान सभा चुनावों के परिणाम लोक सभा चुनावों पर पूरी तरह फ़िट नहीं बैठ सकते.

तीन राज्यों में भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छिनी
 

जैसे पिछले विधान सभा चुनाव में राजस्थान में भाजपा की बुरी गत बनी थी, लेकिन साल भर बाद ही लोक सभा चुनावों में राज्य में उसका प्रदर्शन बहुत बढ़िया रहा.

और अभी तो भाजपा को उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में नए सहयोगी दलों की भी तलाश है.

मतलब इन चुनावों से इस बात की कोई गारंटी नहीं मिलती कि आम चुनाव में जीत कर भाजपा केंद्र में फिर सत्तारूढ़ हो जाएगी.

लेकिन परिणामों से सभी दलों को ये सीख लेनी ही होगी कि कुशासन से ध्यान बँटाने के लिए प्रयुक्त मुद्दों पर मतदाताओं को बहकाया नहीं जा सकता.

धर्म, विचारधारा या वंशवाद के ज़रिए वोट नहीं जुटाए जा सकते.

भारतीय चाहते हैं सुशासन और अच्छे शासन के ज़रिए आने वाला विकास.

 
 
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