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सेक्स को कवर स्टोरी बनाने पर विवाद

गीता पांडेय

भारत भले ही 'कामसूत्र' का देश हो और वहाँ मंदिरों तक में 'काम' से जुड़ी मूर्तियाँ बनाने का प्रचलन रहा हो लेकिन आम भारतीय परिवार में अभी भी सेक्स पर बात नहीं की जाती.

शायद इसलिए एक समाचार पत्रिका ने सेक्स पर सर्वेक्षण करके उसे कवर पर छापा तो लोग नाराज़ हो गए.

'इंडिया टुडे' ने सेक्स पर सर्वेक्षण किया और उसके परिणाम प्रकाशित किए हैं.

बच्चों की उत्सुकता

इस पत्रिका में सेक्स के बारे में कुछ बातें तो बहुत ही साफ़ ढंग से कही गईं हैं और बच्चों का कहना है कि उनकी धारणा ही बदल गई.

गीतिका टंडन को यह जानने की उत्सुकता है कि 'जी-स्पॉट' क्या है तो प्रणय मनचंदा को यह जानने की इच्छा है कि आख़िर क्यों लोग आईने के सामने सेक्स को पसंद करते हैं.

कबीर नाथ को लगता है कि शायद उत्सुकता में लोग ऐसा करते होंगे तो अर्जुनवीर खन्ना को लगता है कि बीमार मानसिकता का कोई व्यक्ति ही कर सकता है.

लेकिन कुलमिलाकर बच्चों को लग रहा है कि सेक्स पर इस खुलेपन से उन्हें फ़ायदा ही होने वाला है.

शायद इसी बहाने

अलीशा बैनर्जी का कहना है, ''समाचारों की एक पत्रिका यदि सेक्स को कवर स्टोरी बनाती है तो अच्छा ही है, शायद इसी बहाने माँ बाप बच्चों से सेक्स पर बात करना शुरु करें.''

इसका सीधा अर्थ है कि जब तक माँ बाप इस पत्रिका को देख पाए होंगे बच्चों ने पहले ही इसके पन्ने पलट लिए होंगे.

नब्बे के दशक के पहले तक तो सिनेमा में भी सेक्स को प्रतीकों से ही दिखाया जाता था लेकिन केबल टीवी के ज़माने में बहुत कुछ बदला है.

ज़ाहिर है प्रिंट मीडिया को भी अपनी रफ़्तार बदलनी पड़ी है.

एक और समाचार पत्रिका 'आउटलुक' के प्रधान संपादक विनोद मेहता कहते हैं, ''मीडिया को अब ऐसा करना पड़ता है जिससे लोगों की भावनाएँ भड़काई जा सकें लेकिन यह ध्यान में रखना ज़रुरी है कि लोग आहत न हों.''

''भारत में लोग जो देखते हैं उससे उनकी भावनाएं आहत होती हैं. सेक्स भी उनमें से एक है. यह कहना ग़लत है कि सेक्स से किसी भी प्रकाशन को बेचने में सहायता मिलती है, उल्टे आप अपने कई नियमित पाठक को गवाँ ज़रुर सकते हैं.''

माँ बाप नाराज़

नीलू और कैप्टन हरमिंदर सिंह ग्यारह साल की बच्ची के माँ-बाप हैं. वे बताते हैं कि पत्रिका को देखने के बाद उन्होंने इस बार उसे नहीं ख़रीदा.

फ़ेडरेशन ऑफ़ पेरेंट्स एसोसिएशन, दिल्ली के महासचिव मुकेश जैन कहते हैं, ''मैंने पत्रिका देखी तो रख दी. ऐसी पत्रिका को मैं दफ़्तर में नहीं रख सकता और न घर ले जा सकता हूँ. यह अश्लील है, भद्दा है और बच्चों को नहीं दिखाया जाना चाहिए.''

नाराज़ होने वालों में यही अकेले नहीं हैं.

इंडिया टुडे के अगले अंकों में पाठकों के पत्र वाले कॉलम में नाराज़गी भरे पत्र प्रकाशित हुए हैं.

ख़ासकर उन लोगों में नाराज़गी अधिक है जो क्षेत्रीय भाषाओं में पत्रिका पढ़ते हैं.

विनोद मेहता कहते हैं, ''भारतीय भाषाओं में 'ओरल सेक्स' 'एनल सेक्स' और 'फ़ेलैशियो' के लिए कोई अच्छा शब्द नहीं है. जब उनका अनुवाद किया जाता है तो वह बहुत भद्दा हो जाता है.''

दूसरी ओर 'इंडिया टुडे' मानता है कि उनका यह अंक 'बोल्ड' था.

पत्रिका के एक प्रवक्ता ने कहा कि हो सकता है कि कुछ रुढ़िवादी पाठकों को बुरा लगा होगा लेकिन ऐसे पाठकों के भी बहुत पत्र आए हैं जिन्होंने इस अंक की तारीफ़ की है.

दरअसल भारतीय समाज में अब भी सेक्स पर परिवार के भीतर बात नहीं की जाती.

दिल्ली यूनिवर्सिटी की समाजशास्त्री रजनी पालरीवाला कहती हैं, ''हमारे समाज में दोहरापन बहुत ज़्यादा है.पूरा परिवार बैठकर हिंदी फ़िल्म देखता है जो ख़राब दृश्यों से भरा पड़ा होता है. बच्चे सब जानते हैं. बुरा यह है कि माँ बाप उनसे सेक्स के बारे में बात नहीं करते.''

प्रो. पालरीवाला कहती हैं कि एक पारिवारिक पत्रिका के कवर पर सेक्स छापना क़तई बुरा नहीं है.