रविवार, 19 नवंबर, 2006 को 08:58 GMT तक के समाचार
सलीम रिज़वी
न्यूयॉर्क से
मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बारे में चर्चा करने के लिए न्यूयॉर्क में एक सम्मेलन हो रहा है जिसमें विश्व भर से आईं महिलाएँ हिस्सा ले रही हैं.
इस सम्मेलन में मुसलिम समाज में महिलाओं के अधिकारों को लेकर ऐतिहासिक बदलाव की भी मांग की जा रही है.
लगभग 20 देशों से आयीं 100 से ज़्यादा महिलाएँ विभिन्न प्रकार के कामों से जुड़ी हैं. इनमें साहित्यकार, प्रोफ़ेसर, फ़िल्मकार और कवि जैसे कई पेशों से जुड़ी महिलाएँ शामिल हैं.
इस सम्मेलन में अमरीका, कनाडा, अफ़्रीका और यूरोपीय देशों के अलावा सऊदी अरब, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और मलेशिया जैसे देशों से भी महिलाएँ शिरकत कर रही हैं.
इनमें कुछ मशहूर महिलाएँ भी शामिल हैं. जैसे अफ़गानिस्तान की राजनीतिज्ञ डॉक्टर मसूदा जलाल, ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ लॉर्डस की पहली मुस्लिम महिला सदस्य बेरोनस उद्दीन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विशेष सलाहकार रह चुकीं डा. नफ़ीस सादिक.
इस सम्मेलन के ज़रिए इन महिलाओं का मक़सद है कि दुनिया भर में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हनन को रोका जाए.
इनकी यह भी मांग है कि महिलाओं को भी मुसलिम समाज में मर्दों के साथ बराबरी का दर्जा दिया जाए.
सम्मेलन की आयोजक डेज़ी ख़ान कहती हैं,'' महिलाओं के हक़ के बारे में वे बुद्विजीवी बहस करते हैं जो महिला नहीं हैं, हमारा मानना है कि महिलाओं में खुद इतनी क्षमता और क़ाबलियत है कि वे अपने मुददों के बारे में खुद ज्ञान प्राप्त करके फ़ैसले ले सकती हैं.''
इस सम्मेलन में शामिल महिलाओं की कोशिश है कि महिलाओं के अधिकारों के सिलसिले में कोई ऐतिहासिक फ़ैसला लिया जाए.
महिलाओं के लिए शूरा
इसमें सबसे अहम कोशिश यह की जा रही है कि अगले एक साल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खासकर महिलाओं के लिए एक धार्मिक संसद या शूरा बनाई जाए, जो अहम धार्मिक फ़ैसले लेने में सक्षम हो.
इसके लिए शूरा में सिर्फ़ महिलाएँ मुफ़्तिया बनाई जाएंगी जो इस्लाम धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के बाद इस पद पर आसीन होंगी और उन्हें फ़तवे देने का भी हक होगा.
सम्मेलन में शिरकत करने वाली एक पाकिस्तानी मूल की अमरीकी महिला रुबीना न्याज़ महिलाओं को इस ऐतिहासिक हक़ दिए जाने के बारे में कहती हैं,'' मर्दों ने जो आज तक इस्लाम की व्याख्या की है वह अपने ढंग से औऱ अपने फ़ायदे के लिए ही की है. और इसीलिए औरतों द्वारा इस्लाम की नए सिरे से व्याख्या किया जाना ज़रूरी हो गया है.''
उनका कहना था,'' जिस दिन मुसलमान औरतें दोबारा विद्वानों की तरह ज्ञान प्राप्त करने लगेंगी और सही मायने में इस्लाम का ज्ञान प्राप्त करके उसकी व्याख्या करेंगी, उस दिन से उनके हालात बदलने शुरू हो जाएंगे.''
लेकिन क्या यह ऐतिहासिक क़दम आम मुसलमानों को भी मान्य होगा, वह इसे क़बूल करेंगे, इस सवाल पर रुबीना न्याज़ का जवाब है, '' देखिए कभी भी जब आप कोई काम शुरू करते हैं जो लोगों की नज़र में नया होता है तो उसको फ़ौरन समर्थन तो नहीं मिलता है. उसकी निंदा की जाती है. जब निंदा होती है तो और अच्छा काम करने की कोशिश की जाती है. तो हम निंदा से बिल्कुल परेशान नहीं हैं.''
बदलाव की मांग कर रही ये महिलाएँ विश्व के अलग अलग हिस्से से आकर इस सम्मेलन में एक दूसरे से अपने अनुभवों का आदान प्रदान भी कर रही हैं और इनमें से सभी हर बात पर सहमत भी नहीं हैं.
भारतीय मूल की एक सऊदी महिला असमा सिद्दीकी इस सम्मेलन में सऊदी अरब से खासतौर भाग लेने आईं हैं.
उनका कहना है कि ज़रूरी नहीं कि सम्मेलन में शिरकत करने वाली हर महिला हर बात पर राज़ी हो जाए और एक क्रांति ला दे.
उनके लिए तो मिलकर एक साथ एक दूसरे के दुख सुख सुनना भी महिलाओं के लिए अहम बात है.
वो कहती हैं,'' जब तक मुसलमान औरतें एक दूसरे से बात नहीं करेंगी और एक दूसरे के मसले नहीं समझेंगी तब तक वे एक दूसरे की मदद नहीं कर सकेंगी. विश्व के कुछ इलाकों में कुछ मुस्लिम महिलाएं तो काफ़ी आगे बढ़ गई हैं तो कुछ अब भी ज़िंदगी की दाल रोटी से जूझ रही हैं. इसलिए ये महिलाएं एक दूसरे से मिलकर काफ़ी मदद कर सकती हैं.''
इस सम्मेलन में विभिन्न वक्ताओं ने महिलाओं से मिलकर काम करने की अपील की. खासकर उन महिलाओं को चेताया जो ऊंचे पदों पर आसीन होती हैं तो दूसरी महिलाओं की मदद करना कम कर देती हैं.
इस मौके पर अफ़गानिस्तान की राजनीतिज्ञ मसूदा जलाल ने भी अपने देश में महिलाओं के अधिकारों के हनन के इतिहास का खुलासा किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि अब समय आ गया है कि महिलाएं अपना भविष्य खुद संवारें.
तीन दिन चलने वाले इस सम्मेलन का आयोजन अमेरिकन सोसाइटी फॉर मुस्लिम एडवांस्मेंट नामक अमरीकी मुस्लिम संस्था ने किया है.