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आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध की सच्चाई | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
ग्यारह सितंबर की घटना के बाद शुरू हुई आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई अपनी दिशा खो बैठी है. 9/11 के बाद ये ज़रूरी था कि इस घटना की जाँच होती और दोषियों को सज़ा दी जाती. लेकिन अमरीका ने सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी. पहले अफ़ग़ानिस्तान पर हमला हुआ और फिर इराक़ पर. भले ही अफ़ग़ानिस्तान पर हमले के कारण अल क़ायदा को नुक़सान हुआ लेकिन अमरीका उनका पूरी तरह ख़ात्मा नहीं कर सका. और तो और इराक़ पर हमला करने के बाद आतंकवादियों की संख्या बढ़ी है. इसे अब एक राजनीतिक लड़ाई के रूप में बदल दिया गया है. दुनिया के शक्तिशाली देश आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध को एक नारे के रूप में देखते हैं. ये देश इससे अपनी सैनिक और राजनैतिक शक्ति बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं. अफ़सोस की बात है कि आतंकवाद के बारे में कोई नहीं सोचता. लोकतंत्र और लड़ाई आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई का लोकतंत्र स्थापित करने से कोई रिश्ता नहीं. अब फ़लस्तीनी क्षेत्र का उदाहरण देखिए. यहाँ के चुनाव अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी में संपन्न हुए.
लेकिन हमास की जीत को अमरीका और इसराइल ने मानने से इनकार कर दिया. जबकि पर्यवेक्षकों ने इन चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष कहा था. और तो और हमास की जीत के बाद फ़लस्तीनी प्रशासन को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद कर दी गई. अगर वाकई ये लड़ाई लोकतंत्र के लिए लड़ी जा रही है, तो क्या ये ज़रूरी नहीं था कि फ़लस्तीनी जनता की भावना का सम्मान किया जाता. ऐसी नीति से आतंकवादियों को ही बढ़ावा मिलता है और लोगों में हताशा-निराशा फैलती है. आतंकवाद के नाम पर फैल रहे भय का इस्तेमाल बड़े-बड़े मुल्क अपने सियासी फ़ायदे के लिए करने लगे हैं. आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध के नाम पर नागरिक अधिकारियों का हनन हो रहा है. इंग्लैंड और अमरीका में कई क़ानून पास किए गए हैं. पुलिस के अधिकार बढ़ा दिए गए हैं. इन सबके बीच सबसे ज़्यादा हमला तो लोकतंत्र पर ही हो रहा है. दुनियाभर में आतंकवादी हमला तो कर रही रहे हैं लेकिन आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ने के नाम पर कई सरकारें लोकतंत्र के ख़िलाफ़ काम कर रही हैं. आलम ये है कि आम आदमी की ज़िंदगी काफ़ी तनाव में गुज़र रही है. जिन शहरों में धमाके हुए हैं- वहाँ के लोग तो अजीब से भय के माहौल में जी रहे हैं. आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू हुए क़रीब पाँच साल हो चुके हैं. लेकिन अमरीका के नागरिक, ब्रिटेन के नागरिक या फिर भारत के नागरिक अपने आप को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं? शायद नहीं. दरअसल इन पाँच सालों के दौरान लोगों में असुरक्षा की भावना ज़्यादा बढ़ी है. सरकारों को सोचना चाहिए कि ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई. असुरक्षा आतंकवादियों की शिनाख़्त के नाम पर कई बार निर्दोष लोगों को पकड़ लिया जाता है. जाँच एजेंसियों में व्यापक सुधार की आवश्यकता हो.
कई बार तो दाढ़ी वाले व्यक्तियों को सिर्फ़ इस आधार पर पकड़ लिया जाता है क्योंकि वे मुसलमान है. इससे जातीय और नस्लवादी विभेद भी बढ़ता जा रहा है. इन सबसे यही लगता है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध पर दोबार विचार करने की आवश्यकता है. इसी नीति के तहत इराक़ पर हमला किया गया लेकिन इसका आतंकवादियों से कोई लेना-देना नहीं था. अमरीका ने अपनी विदेश नीति के आधार पर इराक़ पर हमला किया. यह बहुत बड़ी ग़लती थी, जिसे सारा इलाक़ा भुगत रहा है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आतंकवाद की समस्या नहीं है. समस्या है. आतंकवादी गुट सक्रिय हैं. उनको पकड़ना बहुत ज़रूरी है. इससे कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता कि दुनिया के किसी कोने में अत्याचार के कारण आतंकवाद जायज़ है. दरअसल इस समस्या से बहुत सावधानी पूर्वक निपटने की आवश्यकता है. कहीं ऐसा ना हो कि ग़लत नीतियों की वजह से आतंकवादी गुटों का समर्थन बढ़े और एक धर्म विशेष के लोगों को शक की नज़र से देखा जाए. (पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित) |
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