कोर्नेलिया सोराबजी: भारत की पहली महिला वकील, जिन्हें ज़हर देने की कोशिश की गई

वो भारत की पहली महिला वकील थीं. उन्होंने पर्दा प्रथा झेलती और मर्दों के अत्याचार का सामना करती कई औरतों को इंसाफ़ दिलाने में मदद की. वो भी बिना किसी सरकारी मदद के. लगभग अकेले लड़ाई लड़कर और कई दफ़ा अपनी जान जोख़िम में डालकर.
उन पर कई जानलेवा हमले हुए लेकिन हर बार वो बच निकलीं और अपने लक्ष्य पर डटी रहीं.
उन्हें भारत और ब्रिटेन में महिलाओं को क़ानूनी क्षेत्र में उतारने और वकालत की इजाज़त दिलवाने का श्रेय जाता है.
उनका नाम है- कोर्नेलिया सोराबजी.
बीबीसी विटनेस हिस्ट्री के लिए बीबीसी संवाददाता क्लेयर बोस से उनके भतीजे और इतिहासकार सर रिचर्ड सोराबजी ने बात की जिन्होंने कोर्नेलिया के बारे में कई दिलचस्प बातें बताईं.
उन्होंने बताया कि कैसे कोर्नेलिया ने अकेले दम पर संघर्ष करके अपना मुक़ाम भी बनाया और कई महिलाओं की ज़िंदगियाँ भी बचाईं.
कैसे शुरुआत हुई?
कोर्नेलिया का जन्म नवंबर, 1866 में नाशिक में हुआ था. भारत में तब ब्रिटिश राज था. उनके माता-पिता पारसी थे लेकिन बाद में उन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया. वो ब्रिटिश राज से प्रभावित थे और उन्हें लगता था कि उनके बच्चों की कामयाबी का रास्ता इंग्लैंड से होकर ही जाएगा.
कोर्नेलिया पढ़ाई में अच्छी थीं और तब बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाख़िला पाने वाली वो पहली महिला बन गईं. उन्होंने वहाँ ब्रिटेन में आगे की पढ़ाई करने के लिए स्कॉलरशिप भी हासिल की.
वो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में क़ानून पढ़ने वाली पहली महिला बनीं लेकिन अंतिम परीक्षा में उन्हें मर्दों के साथ बैठकर परीक्षा देने की इजाज़त नहीं दी गई. उन्होंने इसके ख़िलाफ़ अपील की.

इमेज स्रोत, Richard Sorabji
आख़िरकार परीक्षा शुरू होने से चंद लम्हों पहले ही यूनिवर्सिटी ने अपने नियमों में बदलाव करके उन्हें परीक्षा देने की इजाज़त दे दी. इस तरह से 1892 में ब्रिटेन में वो पहली महिला थीं जिन्हें बैचलर ऑफ़ सिविल लॉ परीक्षा में बैठने की अनुमति मिली.
वो अपने एक ख़त में लिखती हैं, "मैं क़ानून की पढ़ाई करना चाहती थी और जब मेरी ये तमन्ना पूरी हुई तो मुझे लगा कि मेरा सपना पूरा हो गया."
रिचर्ड सोराबजी बताते हैं, "वो बाहर से बेहद शांत दिखती थीं लेकिन अंदर ही अंदर उनके मन में बहुत कुछ जानने की उत्सुकता होती थी. एक किस्म की उथल-पुथल चलती रहती थी."
ब्रिटेन के बाद भारत में संघर्ष
ऑक्सफ़ोर्ड से क़ानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो भारत लौट आईं. यहां वो बैरिस्टर के तौर पर काम करके अपनी आजीविका चलाना चाहती थीं लेकिन तब भारत और ब्रिटेन में महिलाओं को वकील के तौर पर प्रैक्टिस करने का कोई अधिकार नहीं था.
उस वक़्त भारत में कई रियासतें हुआ करती थीं. कोर्नेलिया का कई शाही परिवारों में आना जाना हुआ करता था. वहाँ उन्होंने पाया कि उन परिवारों की महिलाओं को मर्दों की हुकूमत में रहना पड़ता था. उनके अपने कोई अधिकार नहीं थे.
भारत में उन दिनों पर्दा प्रथा थी. महिलाओं को परिवार से बाहर के पुरुषों से बात करना तो दूर उन्हें देखने तक की इजाज़त नहीं थी.
कोर्नेलिया ने पाया कि कई महिलाएं परिवार के पुरुषों के अत्याचार सह रही हैं. उन्हें परिवार की संपत्ति में भी कोई अधिकार नहीं होता था.
आवाज़ उठाने पर कई बार उन्हें क़त्ल भी कर दिया जाता. चूँकि बाहर के लोगों को घर के अंदर घुसने की मनाही थी और महिलाओं के बाहर जाने पर पाबंदी थी तो औरतों पर हो रहे ज़ुल्मों की बात अधिकारियों तक, पुलिस तक पहुंचने का कोई ज़रिया ही नहीं था.

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ऐसे में कोर्नेलिया ने इन महिलाओं की मदद करने की ठानी. उन्होंने सरकार से अपील की कि हिंदू और मुस्लिम समुदाय की औरतों पर हो रहे ज़ुल्म को रोकने के लिए और उनको इंसाफ़ दिलाने के लिए उन्हें सरकार का क़ानूनी सलाहकार बनाया जाए. लेकिन सरकार ने तब के नियमों का हवाला देकर उनकी माँग ठुकरा दी.
तब भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और ये काम अकेले करने का फ़ैसला किया. अगले क़रीब 20 वर्षों तक उन्होंने वकील के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता और कई बार जासूस की भूमिका निभाई और 600 से ज़्यादा महिलाओं को इंसाफ़ दिलाया, उनका हक़ दिलाया, उन्हें मर्दों के अत्याचार से छुटकारा दिलाया.
कई रियासतों से दुश्मनी मोल ली
वो किसी न किसी बहाने से इन परिवारों में दाख़िल हो जातीं और महिलाओं से दोस्ती करके उनकी हालत के बारे में पता करतीं. फिर पुलिस और अधिकारियों की मदद से उन्हें राहत दिलवातीं.
उन्होंने लिखा, "कभी-कभी मुझे लगता कि मैं तो कुछ नहीं जानती, मुझे बीच में ही अपना सफ़र छोड़ना पड़ेगा. लेकिन दोस्त लगातार मेरी हौसला अफ़ज़ाई करते और आख़िरकार मुझे कामयाबी मिली."
रिचर्ड सोराबजी बताते हैं, "एक बार वो एक महिला की क़ानूनी मदद कर रही थीं जिसे उसके ससुराल वालों ने गुज़ारा भत्ता देने से इनकार कर दिया था. तब कोर्नेलिया के प्रयासों से आख़िर वो लोग उस महिला से मिलने के लिए तैयार हुए. उन्होंने ऐसे दिखाया कि उनका मन बदल चुका है और वो उस महिला को पैसे देने को तैयार हैं.''
''उन्होंने उस महिला के लिए एक पोशाक भी ख़रीदी जिसे वो तोहफ़े में देना चाहते थे. लेकिन कोर्नेलिया को कुछ शक हुआ. उनका दिमाग़ बहुत तेज था. उन्होंने उस पोशाक की जाँच करवाई तो पता चला कि पूरी पोशाक में ज़हर रगड़ दिया गया है."
इस तरह से उन्होंने उस महिला की जान बचाई. ख़ुद कोर्नेलिया पर भी कई बार जानलेवा हमले हुए. कई रियासतें उन्हें अपना दुश्मन समझने लगीं. उन्हें लगता कि औरतों को पुरुषों के अधीन ही रहना चाहिए और कोर्नेलिया उनके हक़ की लड़ाई लड़कर उनकी संस्कृति को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं.
एक बार एक शाही परिवार ने उन्हें मेहमान के तौर पर आमंत्रित किया और उनके कमरे में सुबह का नाश्ता भिजवाया. कोर्नेलिया को खाने से आ रही महक में कुछ गड़बड़ लगी. उन्होंने वो खाना नहीं खाया. बाद में उसकी जाँच करवाने पर पता चला कि खाने में ज़हर मिला था.
जब जज ने कहा, ''आप अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं जानतीं''
कई बरसों के बाद आख़िरकार साल 1919 में ब्रिटेन ने क़ानून में बदलाव करके महिलाओं को भी क़ानूनी क्षेत्र में आने की इजाज़त दे दी जिससे महिलाओं के वकील और जज बनने का रास्ता साफ़ हो गया.
नियमों में बदलाव की वजह से कोर्नेलिया के भी आधिकारिक रूप से वकील बनने का रास्ता साफ़ हुआ और वो भारत की पहली महिला वकील बनीं.
उन्होंने लिखा, "मैं ये काम करना चाहती थी ताकि बता सकूं कि महिलाएं भी सब कुछ कर सकती हैं. ताकि पुरुषों के अत्याचार झेल रही औरतों को उम्मीद की किरण दिखाई दे."
लेकिन वकील बनने के बाद भी उनकी राह आसान नहीं थी. क्योंकि उस वक़्त जज, महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहते थे. वो पुरुष वकीलों की दलीलों को तो बड़ी गंभीरता से सुनते लेकिन महिला वकीलों को उतनी तवज्जो नहीं देते थे.
उन्होंने लिखा कि कैसे एक बार एक जज ने उनके बारे में कहा, "आप अंग्रेज़ी बहुत अच्छे से जानती हैं. लेकिन इसके अलावा आप कुछ नहीं जानतीं."
महिलाओं को वकालत के क्षेत्र में प्रवेश दिलवाने का उन्हें काफ़ी कुछ श्रेय जाता है.
ब्रिटेन की पहली महिला बैरिस्टर हेलेना नॉर्मेंटन ने कहा था, "कोर्नेलिया सोराबजी ने दमदार तरीक़े से महिलाओं के हक़ की लड़ाई लड़ी. औरतों को वकालत की अनुमति दिलवाने में उन्होंने जो पुरज़ोर संघर्ष किया उसी की बदौलत आज मैं वकील बन पाई."
बाद में वकालत से रिटायर होने के बाद वो लंदन जाकर बस गईं. साल 1954 में 88 साल की उम्र में वहीं उनका निधन हो गया.
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