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पाकिस्तान के ख़िलाफ़ 'आज़ाद पख़्तूनिस्तान' की बुनियाद रखने वाला 'अकेला योद्धा'
- Author, फ़ारूक़ आदिल
- पदनाम, स्तंभकार और लेखक
राजधानी इस्लामाबाद से जब श्रीनगर हाइवे पर बढ़ते हैं तो जिस चौराहे से रावलपिंडी का रास्ता निकलता है, वहीं एक उदास सा लिंक रोड है.
इस लिंक रोड के शुरू में एक बोर्ड लगा हुआ है जिससे पता चलता है कि इस रोड का नाम फ़क़ीर ईपी रोड है. शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि फ़क़ीर ईपी कौन थे.
एक पश्तून बुद्धिजीवी, डॉक्टर अब्दुलहयी ने व्यंग्यात्मक रूप से इस सवाल का जवाब यूं दिया है कि "हम नहीं जानते कि वह कौन थे?" फिर शिकायती अंदाज़ में कहा कि उन्हें इतिहास में उनके सही स्थान से वंचित रखा गया है.
इतिहास में सही स्थान मिलने या न मिलने की बहस अपनी जगह अहम है. और दिलचस्प होने के साथ इसकी एक विस्तृत पृष्ठभूमि है.
लेकिन इसके बावजूद इतिहास फिर भी अपने गंभीर पाठक को बताता है कि बीसवीं सदी के मध्य में, जब उपमहाद्वीप का कोना-कोना आज़ादी के नारों से गूंज रहा था.
उपमहाद्वीप के विदेशी शासक
उस समय ईपी फ़क़ीर भी कम मशहूर नहीं थे. उपमहाद्वीप के विदेशी शासक, उनसे (ईपी फ़क़ीर से) निपटने के लिए असाधारण व्यवस्था कर रहे थे.
डूरंड रेखा (भारतीय उपमहाद्वीप को अफ़ग़ानिस्तान से अलग करने वाली रेखा, जो 1893 में अस्तित्व में आई थी) के इस तरफ़ हाजी मिर्ज़ा अली ख़ान, जो ईपी फ़क़ीर के नाम से मशहूर हुए, अंग्रेज़ों के लिए एक चुनौती के रूप में उभरे थे. अंग्रेज़ों के लिए उनका इलाज आसान नहीं था.
जर्मनी में नाज़ी आंदोलन के संस्थापक एडॉल्फ हिटलर की जीवनी से प्रसिद्ध होने वाले, मिलान हैनर लिखते हैं कि फ़क़ीर ईपी द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य के दुश्मनों के रूप में उभरने वालों में अद्वितीय थे.
इस लेखक ने फ़क़ीर ईपी को 'साम्राज्य का अकेला शत्रु' कहकर उनके सैन्य कौशल को श्रद्धांजलि दी है. मिर्ज़ा अली ख़ान सन 1892 से 1897 के बीच, उत्तरी वज़ीरिस्तान के एक बड़े क़बीले, 'अत्मान ज़ई' की एक नस्ल बंगाल ख़ेल में पैदा हुए.
मिर्ज़ा अली ख़ान न तो कोई राजनीतिक व्यक्ति थे और न ही उनकी सैन्य पृष्ठभूमि थी. वो एक साधारण धार्मिक व्यक्ति थे. जो उस समय की परंपरा के अनुसार, धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वह बन्नू और रज़माक के बीच ईपी नामक एक जगह पर एक मस्जिद के इमाम बन गए.
ब्रितानी सेना के साथ पहली लड़ाई
ईपी नाम की यह जगह उनके नाम का ऐसा हिस्सा बन गई कि लोग उनका असली नाम भी भूल गए. इतिहासकारों के अनुसार, मिर्ज़ा अली ख़ान का प्रारंभिक जीवन एक रहस्य की तरह इतिहास के चक्रव्यूह में खो गया है.
ब्रितानी सेना के साथ उनकी पहली लड़ाई 25 नवंबर, 1936 को हुई थी. तीन दिन तक चलने वाली इस लड़ाई का मुख्य उद्देश्य फ़क़ीर ईपी को गिरफ़्तार करना था, लेकिन यह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ.
स्थानीय परंपरा के अनुसार, इस लड़ाई में मेजर टेन्डाल और कप्तान बाइड सहित 200 से अधिक ब्रितानी सेना के अधिकारी मारे गए. दूसरे दिन की लड़ाई में मरने वालों की संख्या और भी अधिक हो गई, जबकि तीसरे दिन मरने वालों की संख्या 700 से भी अधिक बताई जाती है.
ऐसा कहा जाता है कि इस लड़ाई में ईपी फ़क़ीर के केवल 35 साथी मारे गए थे, लेकिन बमबारी के कारण स्थानीय मस्जिद शहीद हो गई और फ़क़ीर का कमरा भी ध्वस्त हो गया. अगले दो वर्षों में, ईपी फ़क़ीर और अंग्रेजों के बीच कई और झड़पें हुईं.
ब्रिटिश सेना ने इन झड़पों में हवाई शक्ति का इस्तेमाल किया, जिससे स्थानीय आबादी को नुकसान पहुंचा. इस लिए उन्होंने इस क्षेत्र को छोड़ दिया और डूरंड लाइन के पास गोरवेक के क्षेत्र को अपना केंद्र बना लिया.
ब्रिटिश अधिकारियों की खुफ़िया रिपोर्ट
यह एक बीहड़ पहाड़ी इलाका था जिसकी गुफ़ाओं और ढलान वाली चट्टानों ने ईपी फ़क़ीर और उनकी सेना की रक्षा की, और उनके दुश्मनों के लिए समस्याएं खड़ी कर दीं. गोरवेक के केंद्र से होने वाली लड़ाई में उनकी सफलता ने इस धारणा को मज़बूत किया कि वह अजेय था.
24 जून 1937 को तत्कालीन नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (NWFP) के बारे में भेजी गई ब्रिटिश अधिकारियों की खुफ़िया रिपोर्ट में एक बहुत ही दिलचस्प उल्लेख किया गया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि क़बायली क्षेत्रों के लोग दृढ़ता से मानते हैं कि प्रकृति ने फ़क़ीर ईपी को असाधारण शक्ति दी हैं.
उनके हमलावर साथ चलते समय एक पेड़ काट कर उन्हें एक लकड़ी की छड़ी देते हैं तो वो अपनी आध्यात्मिक शक्ति से इसे बंदूक में बदल देते हैं. अगर वह किसी टोकरी में पड़ी हुई कुछ रोटियों को कपड़े से ढांक देता है, तो यह टोकरी पूरी सेना की भूख मिटाने के लिए पर्याप्त हो जाती है.
इसी तरह फ़ाइटर जेट द्वारा उन पर गिराए गए बम काग़ज या कपास के टुकड़ों में बदल जाते हैं. उनके साथियों के अलावा, क़बायली क्षेत्रों के लोगों के साथ भी उनके अटूट संबंध थे.
'तारीख़ ए बन्नू' में मंडान नामक क्षेत्र में रहने वाले एक सरकारी स्कूल शिक्षक के बारे में लिखा गया है, कि स्थानीय लोगों पर ईपी फ़क़ीर की किसी भी तरह से मदद करने पर प्रतिबंध था.
'तारीख़ ए बन्नू'
अगर अधिकारियों को पता चल जाता कि किसी ने उनकी मदद की है, तो उन्हें कड़ी सज़ा दी जाती. उनका वेतन 19 रुपये प्रति माह था. अपने ख़र्चों को सीमित करके, उन्होंने इस वेतन का लगभग आधा हिस्सा यानी 9 रुपये प्रति माह फ़क़ीर ईपी को देने की शुरुआत की.
मुख़बिरी के कारण इसका पता चला और उसके ख़िलाफ़ जांच शुरू कर दी गई. लेकिन 'तारीख़ ए बन्नू' के अनुसार, उसने ईपी फ़क़ीर को दान देना बंद नहीं किया. मिलान हैनर लिखते हैं कि फ़क़ीर ईपी की सैन्य रणनीति बहुत सरल और स्थानीय परंपरा के अनुसार थी.
उनके साथी कम थे और हथियार उससे भी कम. कुछ सौ बंदूकें और माउज़र, कुछ मशीन गन और कभी-कभी एक या दो पुरानी तोपें. उनके पास संचार के आधुनिक साधन भी नहीं थे, जैसे कि रेडियो और वायरलेस सिस्टम. वे हमेशा इस उद्देश्य के लिए स्थानीय मुख़बिरों और दूतों पर निर्भर रहते थे.
यह द्वितीय विश्व युद्ध का समय था. इस क्षेत्र और विशेष रूप से अफ़ग़ानिस्तान में सहयोगियों (विशेष रूप से ब्रिटेन और उसके सहयोगियों) और एक्सिस पॉवर्स (यानी जर्मनी और उसके सहयोगी देश) सक्रीय थे. इस बीच, अफ़ग़ानिस्तान और धुरी शक्तियां ब्रिटेन को कमज़ोर करना चाहती थीं.
और इसकी सेना को क़बायली क्षेत्रों तक सीमित करना चाहा ताकि वे अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ रुख़ न कर सकें. इस संदर्भ में, फ़क़ीर ईपी और उनका अभियान एक्सिस पॉवर्स और अफ़ग़ानिस्तान के लिए उपयोगी थे. इसलिए ईपी फ़क़ीर के साथ उनके संबंध स्थापित हुए और उन्हें कुछ मदद भी मिली.
पाकिस्तान की स्थापना के बाद
उन्होंने अलग-अलग समय में इन शक्तियों के साथ संपर्क बनाया, कुछ वादे किए, लेकिन अमली तौर पर यह एक बड़े युद्ध को लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं था. क़बायली क्षेत्रों को उन्होंने विदेशी कब्ज़े से स्वतंत्र कराने के लिए अपनी लड़ाई अकेले लड़ी.
और उन्होंने दुश्मन को अपने क़रीब नहीं आने दिया. लेकिन भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना के बाद स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन हुआ. भारत के विभाजन से पहले, ईपी फ़क़ीर के अफ़ग़ानिस्तान के साथ संबंध स्थापित हो चुके थे.
इसी तरह ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान उर्फ़ बाचा ख़ान के लाल-कुर्ती आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों से भी उनका संपर्क था. वज़ीरिस्तान के जाने-माने क़बायली नेता स्वर्गीय लईक़ शाह दरपाख़ेल ने अपनी किताब 'वजीरिस्तान' में इन घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया और उन्होंने लिखा है कि, वह इनमें से कुछ घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी भी हैं.
वह लिखते हैं कि पाकिस्तान के गठन के बाद, अफ़ग़ानिस्तान और बाचा ख़ान के सहयोगियों के अलावा, कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने भी उनसे संपर्क किया. जिससे उपमहाद्वीप के मुसलमानों और उनके नेतृत्व के लिए स्थापित नए देश के साथ उनका समझौता नहीं हो सका.
इन संपर्कों के परिणामस्वरूप, फ़क़ीर ईपी ने अफ़ग़ानिस्तान में एक प्रतिनिधि मंडल भी भेजा. जिसका आधिकारिक तौर पर वहां स्वागत किया गया और प्रतिनिधि मंडल को तोपों की सलामी दी गई. इन गतिविधियों के कारण ईपी फ़क़ीर का पाकिस्तान से मोहभंग हो गया.
सोवियत संघ, अफ़ग़ानिस्तान और भारत
और वह समझने लगे कि पाकिस्तान की स्थापना अंग्रेजों की इच्छा के अनुसार हुई है और इसका नेतृत्व अंग्रेजों के ही वफ़ादारों के पास है, बल्कि वास्तव में अंग्रेज़ों के ही पास है.
उनकी इस सोच के कारणों में से एक कारण यह था कि, पाकिस्तान के गठन के बाद भी, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के ब्रिटिश गवर्नर और मुख्य सचिव अपने पद पर बने रहे. जबकि वाना और मीरानशाह सहित अन्य सैन्य छावनियों और स्काउट क़िलों पर भी यूनियन जैक लहराता रहा.
लईक़ शाह के अनुसार, उस समय फ़क़ीर ईपी लगभग अकेले थे. और उनके करीब कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो, उन्हें इस जटिल स्थिति में कोई अक्लमंदी की सलाह दे सके, इसलिए वे इस प्रोपैगैंडा के शिकार हो गए.
ये तत्व उन्हें विश्वास दिलाने में कामयाब रहे थे कि, अगर वो पख़्तूनिस्तान के नाम से एक स्वतंत्र देश की स्थापना कर दें, तो इसके नतीजे में पूरी तरह से एक इस्लामिक देश भी स्थापित हो जाएगा और पख़्तूनों को अपना स्वतंत्र देश भी मिल जाएगा.
उन्हें बताया गया कि एक स्वतंत्र देश की स्थापना की स्थिति में, सोवियत संघ, अफ़ग़ानिस्तान और भारत इसका पूरा समर्थन करेंगे. पख़्तूनिस्तान की स्थापना के लिए ईपी को मनाने में, मीरानशाह के 'वज़ीर' क़बीले के अब्दुल लतीफ़ की भूमिका भी बहुत अहम थी.
पख़्तूनिस्तान नामक देश के निर्माण की घोषणा
यह योजना सफ़ल रही, और लईक़ शाह दरपाख़ेल के शब्दों में: "अंत में फ़क़ीर ईपी इन राजनीतीक बाज़ीगरों के दिखाए सुनहरे सपनों के झांसे में आ गए, और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ एक स्वतंत्र देश की घोषणा कर दी और मॉस्को, काबुल और दिल्ली ने इसका ख़ूब प्रचार करना शुरू कर दिया.
लईक़ शाह दरपाख़ेल लिखते हैं कि आज़ाद पख़्तूनिस्तान नामक देश के निर्माण की घोषणा के बाद, अफ़ग़ान सरकार ने इस तथाकथित देश को कर्मचारी और इनके वेतन का भुगतान करने के लिए वित्तीय संसाधन प्रदान किए. एक प्रिंटिंग प्रेस लगवाया जबकि भारत की तरफ़ से कथित तौर पर बड़ी मात्रा में पाकिस्तान विरोधी सामग्री पहुंचाई गई थी.
पाकिस्तान के पूर्व क़बायली क्षेत्र के एक मशहूर पत्रकार समीउल्लाह ख़ान के शोध के अनुसार, उस समय बंदूक़ बनाने के लिए अफ़ग़ान सरकार की मदद से गोरवेक में एक हथियार कारख़ाना बनाया गया था. इन मशीनों पर काम करने वाले कर्मचारियों को लाहौर और कुछ दूसरे स्थानों से बुलाया गया था.
इसी समय, काबुल में भारतीय दूतावास के माध्यम से, फ़क़ीर ईपी के भारत के साथ सीधे संबंध स्थापित हो गए. और फ़क़ीर ईपी ने भी भारतीय नेतृत्व के साथ पत्र व्यवहार शुरू कर दिया. लईक़ शाह ने अपनी किताब में इस संबंध में एक दिलचस्प पत्र शामिल किया है जो उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लिखा था:
पंडित नेहरू को चिट्ठी
"बख़िदमत जनाब वाला शान (सेवा में श्रीमान), पंडित जवाहरलाल नेहरू"
बादशाह ए हिन्द, बुलंद इकबाल
निवेदन ये है कि अव्वल हसन (फ़क़ीर ईपी के प्रतिनिधि) बहुत खुश होकर वापिस आया. मैं बहुत आभारी हूं कि श्रीमान ने ज़बानी बातचीत की. निवेदन है कि पाकिस्तान ने यानी अंग्रेज़ ने लंबे समय से कश्मीर में तकलीफ़ बना रखी हैं. ख़ुदा मुझे और आपको तौफ़ीक़ दे कि हम कश्मीर के लोगों को इस मुश्किल से बचाएं. ख़ुदा के करम से अब पाकिस्तान कमज़ोर हो गया है और कुछ नहीं कर सकता है.
तीसरी बात यह है कि जैसे ही आपकी मदद आएगी, तो मैं सीमा के लोगों को एकदम लड़ाई पर मजबूर कर दूंगा क्योंकि लंबे समय से पाकिस्तान यानी अंग्रेजों ने सीमा के लोगों को भूखा मारा और नंगा कर रखा है. जिस समय अपने वतन में आपकी सहायता पहुंच जावे तब वह मामूली वेतन पर मेरे साथ शामिल हो सकेंगे और आप भारत की तरफ़ से हमला कर देंगे.
इस बार अव्वल हसन आपके पास आ रहा है क्योंकि काबुल के बादशाह ने सभी राजदूतों पर सख़्त पहरा बिठाया है, इसलिए आपके राजदूत तक पहुंचना मुश्किल है. इसलिए, बेहतर है कि अव्वल हसन आपके आदेश से काबुल में आपके राजदूत के पास जा सके, फिर वहां सब काम संतोषजनक होगा. अव्वल हसन आपकी सेवा में ज़रूरी बातें बयान कर देगा.
आदाब
फ़क़त
ईपी
इस्लाम के नाम पर धोखा
ईपी फ़क़ीर के भारत के साथ संबंध के संदर्भ में कुछ ऐसे सबूत मिलते हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सेना के माध्यम से इन संपर्कों के लिए एक प्रणाली स्थापित की थी. इस प्रणाली का अंदाजा ईपी फ़क़ीर के एक पत्र से होता है. जो भारतीय सेना के एक जनरल के नाम लिखा गया था.
जिसमें उन्होंने लिखा था कि मुझे उम्मीद है कि आप आगे भी पंडित जी को मेरे देश की स्थिति के बारे में सूचित करते रहेंगे ताकि हमारे काम में कोई नुकसान न हो. एक तरफ़, ईपी फ़क़ीर ने भारत और अफ़ग़ानिस्तान पर पख़्तूनिस्तान की स्थिरता के लिए अपनी उम्मीदें जगाई थीं.
जबकि दूसरी तरफ़, ज़मीनी हकीक़त बदल गई थी और अब लोग स्पष्ट रूप से ईपी फ़क़ीर के शब्दों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. बदली हुई परिस्थितियां, पाकिस्तान की सीमाओं के भीतर एक और देश स्थापित करने के 'विद्रोही प्रयास' के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की सरकार द्वारा बल प्रयोग और भारत और अफ़ग़ानिस्तान के आचरण ने उसे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया.
और वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन दोनों देशों की गतिविधियां इस्लाम या पख़्तून के हित में नहीं हैं बल्कि नए मुस्लिम देश को कमज़ोर करने की साज़िश है. इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद, उन्होंने रज़माक के मलिक अज़दर इलाके में एक सभा को संबोधित करते हुए घोषणा की कि अफ़ग़ान सरकार ने अब तक मुझे गुमराह किया है और मुझे इस्लाम के नाम पर धोखा दिया है.
उन्होंने अपने समर्थकों को निर्देश दिया कि अगर भविष्य में मेरे नाम पर अफ़ग़ान सरकार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कोई योजना बनाये, तो उसका कभी भी सहयोग न किया जाए.
यह पृष्ठभूमि थी जिससे शर्मिंदा हो कर और पाकिस्तान के कूटनीतिक दबाव से मजबूर हो कर, 7 सितंबर, 1948 को, अफ़ग़ानिस्तान ने ईपी फ़क़ीर को एक खुली चेतावनी दी कि वह पाकिस्तान की सुरक्षा के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की गतिविधियों से दूर रहे.
16 अप्रैल, 1960 को दमा से पीड़ित होने के बाद फ़क़ीर ईपी का निधन हो गया. उनका मज़ार दत्ता खेल तहसील में स्थित है. जहां बड़ी संख्या में उनके मानने वाले अभी भी आते हैं.
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