कोरोना: डॉक्टरों की दुविधा, किसका इलाज करें किसका नहीं?

    • Author, एबिगेल बीऑल
    • पदनाम, बीबीसी फ़्यूचर

अगर आप कोरोना वायरस के मरीज़ों वाले किसी अस्पताल में जाएं, तो वहां का मंज़र आपको हिला देता है. अस्पतालों में बिस्तर, वेंटिलेटर और दवाएं नहीं हैं. मरीज़ों की भरमार है. आख़िरी सांस तक किसी भी मरीज़ की जान बचाने की कोशिश करना हर डॉक्टर का धर्म है.

लेकिन इन दिनों डॉक्टरों को एक मुश्किल फ़ैसला करना पड़ रहा है. अस्पताल के सीमित संसाधनों पर किस मरीज़ को तरज़ीह दें. यानी किसे भर्ती करें और किसे जाने दें.

ऐसा सख़्त फ़ैसला करना किसी भी डॉक्टर के लिए आसान नहीं हो सकता. हालांकि डॉक्टर ये फ़ैसला न्यू इंग्लैंड जरनल ऑफ़ मेडिसिन (NEJM) की तयशुदा गाइडलाइंस के तहत ही ले रहे हैं. फिर भी कुछ मरीज़ों को जाने देने के डॉक्टरों के इस फ़ैसले की काफ़ी आलोचना हो रही है.

23 मार्च 2020 में सारी दुनिया के जाने-माने डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने इस बारे में नैतिक दिशा निर्देश जारी किए थे. ये दिशा निर्देश न्यू इंग्लैंड जरनल ऑफ़ मेडिसिन में प्रकाशित हुए थे.

इसके तहत बताया गया था कि इस महामारी के दौरान कैसे मेडिकल संसाधनों का किफ़ायत से इस्तेमाल किया जाए. किसी भी मरीज़ के लिए 'पहले आओ पहले पाओ' वाला फ़ॉर्मूला नहीं अपनाया जाएगा. बल्कि मरीज़ की हालत देखते हुए उसका इलाज करना होगा. फिर चाहे वो बुज़ुर्ग हो या बच्चा.

जब यही गाइडलाइंस इटली के डॉक्टरों को भेजी गईं तो उन्होंने तय किया कि पहले वो उन्हें बचाने की कोशिश करेंगे जिनके बचने की उम्मीद ज़्यादा है और जिनके पास अभी जीने की लिए उम्र पड़ी है.

यानी उनकी नज़र में पहले नौजवान पीढ़ी को बचाना ज़्यादा ज़रुरी था. कुछ लोगों ने इस सिद्धांत से सहमति भी जताई लेकिन बहुतों ने आलोचना की.

आलोचना करने वालों का तर्क था कि वेंटिलेटर पर अगर बुजुर्ग है या जवान तो दोनों ही मौत के मुंह में हैं. ये कहना भी मुश्किल है कि दोनों में से कौन बच सकता है. ऐसे में ये तर्क गलत साबित हो जाता है कि पहले नौजवान मरीज़ों को ही इलाज दिया जाए.

वहीं शोधकर्ताओं का ये भी कहना है कि मरीज़ को दाख़िल करते समय ही ये बाता देना उचित रहेगा कि ज़्यादा ज़रूरतमंद मरीज़ को वेंटिलेटर या आसीयू बेड पहले दिया जाएगा.

हालांकि इस तरह के फ़ैसले सिर्फ़ बहुत मुश्किल घड़ी में ही लेने की ताकीद की गई है. लेकिन पहले से ही उम्र या बीमारी के आधार पर इलाज देने का पैमाना नैतिक रूप से ग़लत है.

इसमें भी कोई शक नहीं कि जो लोग अस्पताल में भर्ती हैं उनमें कई की हालत ऐसी है कि हर समय उन्हें एक सेवादार की ज़रूरत है.

हो सकता है ऐसे लोग ख़ुद कोविड से ना मरें लेकिन उनकी देखभाल के लिए जो लोग उनके साथ हैं उनसे वो संक्रमित हो सकते हैं.

हाल के दिनों में देखा गया है कि अस्पतालों और नर्सिंग स्टाफ़ से संक्रमण तेज़ी से फैला है. मिसाल के लिए इंग्लैंड और वेल्स में कोरोना से एक तिहाई मौत अस्पतालों में ही हुई हैं. यही तस्वीर अमरीका और यूरोप में भी देखने को मिली है.

मुश्किल वक़्त, मुश्किल फ़ैसले

जो लोग बुज़ुर्गों के लिए फ़िक्रमंद रहते हैं वो ज़्यादा चिंतित हैं.

इंग्लैंड की स्वयंसेवी संस्था, डिसएबिलिटी राइट्स ने ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने एक खुले ख़त में लिखा कि विकलांग और बुज़ुर्गों के अधिकारों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. इलाज के लिए उनके पास भी अवसर होने चाहिए. लेकिन बहुत से देश जो कोरोना से ज़्यादा प्रभावित हैं, वहां डॉक्टरों को इलाज के लिए कठिन फैसला लेने के लिए बाध्य किया जा रहा है.

डॉक्टर जिस आधार पर फ़ैसला कर रहे हैं, उसके समर्थन में उनके पास पर्याप्त सबूत भी नहीं हैं.

अमरीका में महामारी शुरू होने से पहले ही बता दिया गया था कि देश में वेंटिलेटर की कमी है. यहां कोविड के मरीज़ों के इलाज के लिए एड्स और ज़रूरतमंद दिमाग़ी मरीज़ों को वेंटिलेटर की सुविधा से वंचित कर दिया गया. इसकी जानकारी मरीज़ों के काग़ज़ात देखने के बाद सामने आई.

स्वास्थ्यकर्मियों के लिए नैतिक प्रश्न

एल्ज़ाइमर डिज़ीज़ इंटरनेशनल की मुख्य कार्यकारी अधिकारी पाउला बार्बारिनो का कहना है कि उन्हें अन्य संस्थाओं से जानकारी मिल रही है कि उम्र और पहले से बीमारी की अवस्था को ध्यान में रखते हुए इलाज के लिए ज़रूरतमंद मरीज़ों को अनदेखा किया जा रहा है, जो सरासर ग़लत है. इस आधार पर किसी भी मरीज़ के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए.

21 मार्च को ब्रिटेन में नेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर हेल्थ एंड केयर एक्सिलेंस ने नई गाइडलाइंस के तहत क्लिनिकल फ़्रेलिटी स्केल जारी किया जिसमें 1 से 9 नंबर हैं. एक नंबर उनके लिए जो बहुत मामूली बीमारी के साथ स्वस्थ हैं. जबकि 9 नंबर बहुत बीमार लोगों के लिए है. इस पैमाने के आधार पर मरीज़ की हालत जांच कर उसे इलाज देने की कहा गया है. लेकिन ये पैमाना भी पूरी तरह सही नहीं है.

इस पैमाने के तहत मरीज़ से कई सवाल पूछे जाते हैं. उसके आधार पर आगे की रणनीति तय की जाती है. लेकिन हो सकता है जिस समय मरीज़ से सवाल पूछे गए तब उसकी हालत और रही हो. और बाद में कुछ और हो गई और उसे वेंटिलेटर की ज़रुरत पड़े, तो?

ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने एक अप्रैल को एथिकल गाइडेंस डॉक्यूमेंट जारी किया था. इसमें कहा गया था कि डॉक्टरों को कुछ मरीज़ों से वेंटिलेटर जैसी सुविधाएं वापस लेने को बाध्य किया जा सकता है. ताकि ऐसे मरीज़ों को बचाया जा सके जिनके ठीक होने की संभावना ज़्यादा है.

दुनिया भर में मरीज़ों की हालत और स्वास्थ्य संबंधी उपकरणों की कमी ज़हन में रखते हुए डॉक्टरों को कड़े फैसले लेने के लिए ऐसे ही दिशा-निर्देश जारी किए जा रहे हैं. हालांकि ये निर्णय ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बचाने के लिए ही हैं लेकिन ऐसे फ़ैसले लोगों में भय पैदा करने वाले हैं.

यही नहीं ऐसे कड़े फ़ैसले ख़ुद मेडिकल स्टाफ़ के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल सकते हैं. डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ़ की ट्रेनिंग ही इस विचार के साथ होती है कि उन्हें हर हाल में मरीज़ की जान बचानी है.

बीबीसी को मिली ख़बरों के मुताबिक़ कुछ जगहों से तो ऐसी रिपोर्ट भी सामने आई हैं कि ऐसे कड़े फ़ैसलों के चलते बहुत से डॉक्टर, बीमारी की छुट्टी पर चले गए हैं क्योंकि उनमें इस परिस्थिति का सामना करने का साहस नहीं है.

पूरी दुनिया पर इस समय संकट के बादल हैं. हम सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी के ऐसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी. लेकिन इस मुश्किल से पार पाने का एक ही तरीक़ा है कि फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग का पालन करें.

ख़ुद को सुरक्षित रखें अपनों को सुरक्षित रखें. और सबसे अहम ये कि डॉक्टरों को ऐसे कड़े फ़ैसले लेने से बचाएं. डॉक्टर, हक़ीक़ी दुनिया के भगवान हैं. हमारे साथ उनका भी सुरक्षित रहना ज़रूरी है.

(ये बीबीसी फ्यूचर की स्टोरी का अक्षरश: अनुवाद नहीं है. मूल कहानी देखने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं.)

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)