क़ाबिलियत पहचानने में नाकाम हो रहे इम्तिहान?

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- Author, कैरोलाइन बेले
- पदनाम, बीबीसी, द व्हाई फैक्टर
'इम्तिहान सिर पर हैं और तुम मटरगश्ती कर रहे हो'
'तुम्हें इम्तिहान में अच्छे नंबरों से पास होना है'
'मेरी बच्ची तो इस बार एग्ज़ाम में फेल हो गई'
'तुम्हें शर्म नहीं आती, इतने कम नंबर लाए'
हम सबने ये जुमले सुने हैं. कभी ख़ुद के बारे में, तो कभी दूसरों के बारे में. इम्तिहान का ऐसा हौव्वा है कि इससे सिर्फ़ हमारी क़ाबिलियत नहीं आंकी जाती, बल्कि नंबरों से हमारा भविष्य तय होता है.
अच्छे नंबर आने पर ही अच्छे कॉलेज या यूनिवर्सिटी में दाख़िला मिलेगा, मनपसंद विषय पढ़ने को मिलेगा. करियर में आगे बढ़ने का मौक़ा मिलेगा. यहां तक कि शादी-ब्याह में भी अच्छे नंबरों का बड़ा रोल होता है.
ये हाल, सिर्फ़ हिंदुस्तान की ही नहीं है. पूरी दुनिया का यही हाल है. इसीलिए देश और सभ्यताएं भले बदल जाती हों, मगर इम्तिहान हर जगह हौव्वा ही होते हैं.
इम्तिहान आख़िर है क्या?

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इम्तिहान आख़िर क्या हैं? किसी की क़ाबिलियत और समझ को परखने का ज़रिया? या फिर किसी की याददाश्त जांचने की कसौटी?
क्या एक ही तरह के पर्चे से अलग-अलग इंसानों की ख़ूबी समझी जा सकती है? या फिर एग्ज़ाम पास कर लेने से ये पता चलता है कि फलां छात्र की याददाश्त अच्छी है?
इन सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की बीबीसी रेडियो की सिरीज़ The Why Factor ने.
बीबीसी की कैरोलाइन बेले ने कई जानकारों से बात की. इनमें से कई ने इम्तिहान लेने की मौजूदा व्यवस्था के हक़ में तर्क दिए.
वहीं कुछ लोगों ने कहा कि आज इंसानों की क़ाबिलियत परखने के पैमाने बदल गए हैं. इसलिए हमारे पढ़ाई करने और इम्तिहान से क़ाबिलियत परखने का तरीक़ा भी बदलना चाहिए.
आख़िर हर देश में इम्तिहान का इतना हौव्वा क्यों है?

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चीन में हर साल क़रीब एक करोड़ छात्र एक प्रतियोगी परीक्षा गाओकाओ में बैठते हैं. इसमें हासिल की गई रैंक से ही तय होता है कि इन छात्रों का भविष्य कैसा होगा. उन्हें किस कॉलेज या यूनिवर्सिटी में दाखिला मिलेगा.
बहुत से चीनी बच्चे तो दस-दस साल तक गाओकाओ की तैयारी करते हैं, ताकि अच्छी रैंक हासिल कर सकें.
नाक़ाम होने पर छात्र दोबारा भी इम्तिहान दे सकते हैं. मगर वो अपने बाक़ी साथियों से तो पिछड़ जाएंगे. इसीलिए चीनी छात्र रट्टा लगाते रहते हैं, ताकि गाओकाओ में अच्छी रैंक हासिल कर सकें.
बच्चों के साथ मां-बाप पर भी इस इम्तिहान का काफ़ी दबाव होता है. हमारे देश जैसा हाल वहां भी है.
इम्तिहान का इतिहास
सवाल ये कि इम्तिहान लेने का सिलसिला इंसानी सभ्यता के इतिहास में शुरू कब से हुआ?
इस सवाल का जवाब ब्रिटेन की शेफ़ील्ड यूनिवर्सिटी के इतिहासकार डॉक्टर हीथर एलिस ने दिया.
एलिस ने बताया कि दुनिया में इम्तिहान का चलन, चीन से ही शुरु हुआ था. सातवीं सदी में चीन में शाही अफसरशाही के लिए अधिकारी चुनने के लिए परीक्षा ली जाने लगी थी.
इससे पहले अफसरों और बड़े लोगों के रिश्तेदार ही राजशाही में सिफ़ारिश से अफ़सर बन जाते थे.
चीन में किसी इंसान की क़ाबिलियत परखने के लिए इम्तिहान का जो सिलसिला शुरु हुआ, उसे बाद में यूरोपीय देशों ने आगे बढ़ाया. ख़ास तौर से ब्रिटेन ने.

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एक वक़्त में ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज नहीं डूबता था. जिन देशों में भी ब्रिटेन का राज या असर रहा, वहां इम्तिहान का चलन हो गया.
ब्रिटेन के अलावा फ्रांस, जर्मनी और अमरीका की शिक्षा व्यवस्था का भी असर बाक़ी दुनिया पर पड़ा.
ख़ुद ब्रिटेन में 18वीं सदी तक परीक्षा प्रणाली का चलन नहीं था. 1799 या 1800 में ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने एक ही पर्चे से सभी छात्रों के इम्तिहान कराने शुरू किए. ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे देशों में यही शिक्षा व्यवस्था चलन में आ गई.
भारत ने भी 1947 में अंग्रेज़ों से आज़ाद होने के बाद ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था को अपना लिया.
ब्रिटेन में बेडफोर्ड फ्री स्कूल के प्रिंसिपल मार्क लेहैन कहते हैं कि उन्हें इम्तिहान देना बहुत पसंद था. वो कई बार ऐसी परीक्षाओं में भी बैठे, जिनमें शामिल होना उनके लिए ज़रूरी नहीं था.
मार्क कहते हैं कि सारी दुनिया में इम्तिहान को इतनी अहमियत इसलिए दी जाती है, क्योंकि इससे किसी शख़्स की क़ाबिलियत और समझ को परखा जा सकता है. वो इम्तिहान पास करके ज़िंदगी में आगे बढ़ने और तरक़्क़ी करने की बुनियाद रखते हैं. अच्छे नंबर पाने का मतलब है कि आप में ज़िंदगी में आगे बढ़ने की ख़ूबियां मौजूद हैं.
मार्क कहते हैं कि कड़े से कड़े इम्तिहान में ज़्यादातर बच्चे पास हो जाते है. इससे साफ़ है कि ये प्रक्रिया लोगों की क़ाबिलियत परखने के लिहाज़ से सही है. अगर लोग कुछ नुस्खों पर अमल करें, तो वो सवालों के जवाब आसानी से याद रखकर इम्तिहान में पास हो सकते हैं.
क्यों होता है होशियार और फिसड्डी का फ़र्क?

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मगर, हर बच्चे का हाल तो एक जैसा होता नहीं. कुछ तेज़ होते हैं, हर इम्तिहान में अच्छे नंबरों से पास हो जाते हैं. वहीं कुछ फिसड्डी साबित होते हैं.
आख़िर इसकी क्या वजह है?
नेशनल ताइवान नॉर्मल यूनिवर्सिटी के डॉक्टर चुन येन चैंग ने इसका जवाब तलाशने की कोशिश की. डॉक्टर चुन ने अपनी रिसर्च में पाया कि कुछ बच्चों के तेज़ होने और कुछ के पिछड़ने के पीछे एक जीन होता है उन्होंने इसका नाम दिया है COMT.
ये जीन हमारे दिमाग़ में डोपामाइन नाम के केमिकल के रिलीज़ होने के लिए ज़िम्मेदार होता है.
COMT जीन के दो वैरिएंट होते हैं. एक ऐसे एंज़ाइम बनाता है, जो धीरे-धीरे डोपामाइन को दिमाग़ से साफ़ करता है. जीन का दूसरा वैरिएंट यही काम धीरे-धीरे करता है. असल में हमारे दिमाग़ को सही ढंग से काम करने के लिए सही मात्रा में डोपामाइन चाहिए. अगर ये कम या ज़्यादा होगा, तो इससे हमारे दिमाग़ के काम करने की क्षमता पर असर पड़ सकता है.
जिन बच्चों में इस जीन की वजह से डोपामाइन की मात्रा दिमाग़ से धीरे-धीरे साफ़ होती है, वो बच्चे इम्तिहान में अच्छा नहीं कर पाते.
डॉक्टर चुन की रिसर्च में यही बात सामने आई. मगर उन्होंने अपना तजुर्बा 800 से भी कम बच्चों पर किया. इसलिए इस पर पक्के तौर पर यक़ीन करना ज़रा मुश्किल है. फिर भी इससे ये तो पता चलता है कि इम्तिहान में कामयाबी या नाकामी के पीछे एक जीन भी वजह हो सकता है. हां, इस पहलू की और पड़ताल करने की ज़रूरत है.
और इम्तिहान से होने वाले तनाव का क्या?

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ब्रिटेन की लैंकशायर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर माइक थॉमस एक मनोवैज्ञानिक भी हैं. माइक मानते हैं कि किसी एक पर्चे से हज़ारों बच्चों की ख़ूबी का आकलन करना ग़लत है. हर सवाल का जवाब सब लोग सही ढंग से याद कर पाएं, ये ज़रूरी नहीं.
माइक कहते हैं कि पूरी दुनिया में अब शिक्षण संस्थान इम्तिहानों की ये कमी दूर कर रहे हैं. छात्रों की क़ाबिलियत परखने के लिए तरह-तरह के टेस्ट होते हैं. प्रैक्टिकल होता है. ज़बानी सवाल-जवाब भी होते हैं. सिर्फ़ पर्चा लिखाकर इम्तिहान नहीं लिया जाता.
माइक मानते हैं कि इम्तिहान के दबाव से लोगों को कई तरह की दिक़्क़तें होती हैं. मसलन, तनाव, फिक्र या डिप्रेशन. कई बच्चे तनाव में शराब पीना या दूसरा नशा करना शुरू कर देते हैं.
कई बच्चे रिज़ल्ट ख़राब आने पर जान तक दे देते हैं. ये सब इम्तिहान के हौव्वे और ज़्यादा नंबर लाने के दबाव की वजह से होता है.
माइक ने अपनी क्लिनिक में स्ट्रेस केबिन बनवा रखे हैं. तनाव झेल रहे छात्र यहां आकर ख़ाली वक़्त बिता सकते हैं. वो लोगों से बतिया सकते हैं. कुत्तों से खेल सकते हैं या अपनी पसंद का दूसरा काम कर सकते हैं.
माइक मानते हैं कि जिस तरीक़े से छात्रों की एग्ज़ाम की टेंशन कम हो, वो उन्हें आज़माना चाहिए.
'गूगल में बिना ग्रेजुएशन के मिल रही नौकरी'

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अमरीका में हार्वर्ड इनोवेशन लैब चलाने वाले टोनी वैग्नर मानते हैं कि परीक्षा के मौजूदा ढांचे में बदलाव की सख्त ज़रूरत है. टोनी कहते हैं कि आज की तारीख़ में क़ामयाब होने के लिए पर्चे का रट्टा मारकर पास हो जाना भर ज़रूरी नहीं. आप में खुद को लेकर आत्मविश्वास होना चाहिए.
चुनौतियों से लड़ने की ताक़त होनी चाहिए. ग़लतियों को मानकर उनसे सीखना आना चाहिए. टीम के साथ मिलकर काम करना आना चाहिए. इन सब ख़ूबियों को इम्तिहान की मौजूदा व्यवस्था में नहीं परखा जा सकता.
टोनी कहते हैं कि आज हम जो पढ़ाई करके पास होते हैं इसमें से ज़्यादातर, ज़िंदगी में आगे जाकर हमारे काम नहीं आती. वो मिसाल देते हैं कि गूगल आज 15 फ़ीसद ऐसे लोगों को नौकरी दे रहा है, जो ग्रेजुएट तक नहीं हैं.
टोनी कहते हैं कि आज काम करने के लिए ज़रूरी हुनर और ज़िम्मेदार नागरिक होने के लिए ज़रूरी हुनर, दोनों एक जैसी चीज़ें हो गई हैं दुनिया के अच्छे से अच्छे स्कूल भी इंसान की इन ख़ूबियों की परख नहीं करते.
टोनी मानते हैं कि हर छात्र को अपना डिजिटल पोर्टफोलियो बनाना चाहिए. जिसमें वो बता सकें कि साल दर साल उन्होंने क्या नया सीखा. जानकारी के मामले में क्या तरक़्क़ी की.
'स्मार्टफोन के दौर में रट्टा लगाने की जरूरत क्यों?'

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टोनी कहते हैं कि पहाड़े याद करने और इतिहास की तारीख़ याद कराने का सिलसिला बंद होना चाहिए. गणित का प्रमेय हो या फ़िज़िक्स का फ़ॉर्मूला, आज हर हाथ में स्मार्टफ़ोन है. ऐसे सवालों के जवाब जब चुटकी बजाते स्मार्टफ़ोन दे सकता है, तो उनका रट्टा लगाने की ज़रूरत ही क्या है?
हालांकि जो जवाब गूगल देता है, उसे समझने की समझ भी ज़रूरी है. इसलिए टोनी के फ़ॉर्मूले पर सिरे से अमल करना ज़रा ठीक नहीं लगता.
बेडफोर्ड स्कूल के मार्क लेहैन कहते हैं कि हर सवाल का जवाब गूगल से नहीं मिल सकता. वैसे भी हर सवाल का सही या ग़लत जवाब हो नहीं सकता.
ग्रीम व्हाइटिंग ब्रिटेन के ग्लूसेस्टरशायर के ग्रामीण इलाक़े में एकॉर्न के नाम से छोटा सा स्कूल चलाते हैं. उनका पढ़ाने और इम्तिहान का तरीक़ा एकदम अलग है.
ग्रीम के स्कूल में दाख़िले की कुछ शर्तें हैं. 16 बरस की उम्र से पहले बच्चों को स्मार्टफ़ोन नहीं दिए जा सकते. उन्हें टीवी देखने और सोशल मीडिया के इस्तेमाल की भी खुलकर आज़ादी नहीं मिलती.
ग्रीम के स्कूल में छात्र तमाम विषय पढ़ने के साथ कुछ लंबे प्रोजेक्ट पर भी काम करते हैं. जैसे कि लकड़ी का डोंगा बनाना. इस स्कूल का अपना अलग सिलेबस है, जो ब्रिटेन के बाक़ी स्कूलों से अलग है.
यहां के बच्चे ब्रिटेन के चर्चित जीसीएसई इम्तिहान में नहीं बैठते. यहां बच्चों की क़ाबिलियत उनके लंबे वक्त तक चलने वाले प्रोजेक्ट के ज़रिए आंकी जाती है.
'इम्तिहान ज़रूरी हैं, पर उनका हौव्वा न बनाया जाए'

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एकॉर्न स्कूल के छात्र ऑस्कर कहते हैं कि आज तमाम यूनिवर्सिटी, अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था के छात्रों को खुले ज़हन से एडमिशन देती हैं.
ऑस्कर ने खुद अर्बन प्लानिंग को अपने स्कूल के आख़िरी साल का प्रोजेक्ट बनाया है. उन्हें ब्रिटेन की कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी दाख़िला देने को राज़ी हो गई है.
कुल मिलाकर ये कहें कि इम्तिहान छात्रों की पढ़ाई को आंकने का ठीक-ठाक ज़रिया हैं. मगर उन्हें हौव्वा नहीं बनाया जाना चाहिए. वरना छात्रों पर और अभिभावकों पर दबाव बढ़ता है. लोग तनाव और डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं.
आज के दौर में जब कामयाबी के पैमाने बदल रहे हैं. तो हमें भी अपनी शिक्षा व्यवस्था में नए तजुर्बे करने चाहिए. एक ही ढर्रे की पढ़ाई से बहुत कुछ हासिल नहीं होगा.
ग्रीम व्हाइटिंग जैसे एकॉर्न स्कूल या हार्वर्ड इनोवेशन स्कूल जैसे संस्थानों को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जहां क़ाबिलियत का पैमाना रट्टा लगाकर पास होना न हो.
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