'क्या हमारे चेहरे पर तालिबान का निशान है?'

    • Author, रियाज़ सुहैल
    • पदनाम, बीबीसी उर्दू संवाददाता, कराची

अली हसन 22 साल पहले बांग्लादेश से कराची आए थे, 21 साल तक वो पाकिस्तानी पहचान पत्र के साथ यहां के नागरिक रहे, लेकिन इस कार्ड की मियाद पूरी होने के साथ ही उनकी नागरिकता भी ख़त्म हो गई है.

अली हसन लांढी के बाबर बाज़ार में मछली बेचते हैं. अपने जाने-पहचाने बिहारी लहज़े में उन्होंने बताया कि जब वह पहचान पत्र लेने संबंधित कार्यालय गए, तो अधिकारियों ने उन्हें एक महिला अधिकारी के पास भेज दिया.

अली हसन कहते हैं, "मैडम के पास गया तो उन्होंने कहा कि फिर से राष्ट्रीयता के काग़ज़ लाओ कि यहाँ कब आए हो. हमने उन्हें बताया कि हमारा मकान जल गया था, अब कागज कहां से लाएं. हमारा तो कार्ड पहले बना हुआ है, लेकिन उन्होंने बात नहीं सुनी और बाहर निकाल दिया".

अली हसन

लांढी की इन कॉलोनियों में हज़ारों लोग रहते हैं, जिनमें बहुमत बिहारी समुदाय का है. ये लोग बांग्लादेश की आज़ादी के बाद पाकिस्तान भेज दिए गए थे.

पाकिस्तान के प्रवासी विभाग ने यहां की 40 फ़ीसद आबादी के पहचान पत्र को संदिग्ध करार देकर उन पर पाबंदी लगा दी है या युवा पीढ़ी को पहचान देने से इनकार कर दिया है. इसी हालात का सामना औरंगी और अन्य कॉलोनियों में बसे बिहारी समुदाय के लोग भी कर रहे हैं.

बांग्लादेश की आज़ादी के बाद पाकिस्तान आने वालों में सिविल आर्म्ड फोर्सेस के अफ़सर भी शामिल हैं, जो पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर युद्ध लड़ चुके हैं.

निहाल इस लड़ाई में घायल हुए थे और बाद में भारतीय फ़ौज के हाथों गिरफ़्तार भी हुए. उनके मुताबिक़ रिटायर जनरल टिक्का ख़ान ने निर्देश दिया था कि बिहारियों को सेना में लिया जाए, ये हमारे साथ हैं. इसके बाद उन्हें तीन दिन की फ़ौज़ी ट्रेनिंग दी गई और फिर वो नौ महीने तक युद्ध लड़ते रहे.

निहाल

निहाल का कहना है, "हमने पाकिस्तान का साथ दिया, लेकिन अब हमारा पाकिस्तान का पहचान पत्र नहीं बनता, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि बिहारियों को पाकिस्तान लाया जाए, जिसके बाद उन्हें जहाज़ से यहां लाया गया".

पाकिस्तान लाने के बाद बिहारी समुदाय को पंजाब और सिंध के अलग-अलग कैंपों में रखा गया, लेकिन निहाल सहित सभी ने कराची का रुख़ किया. इन कॉलोनियों में बिहारी समुदाय को 60-60 गज के प्लॉट दिए गए थे. जहां उन्होंने पहले कच्चे और बाद में पक्के मकान बनवाए. आबादी बढ़ने और संयुक्त परिवार के कारण यहां के मकानों की ऊंचाई बढ़ रही है.

यहां के रहने वालों की बड़ी आबादी अभी भी ग़रीबी में जीवन गुजार रही है. हालांकि उनका कहना है कि बांग्लादेश के शिविरों से यहां की स्थिति हज़ार गुना अच्छी है.

यहां पुरुषों के अलावा महिलाएं भी कारखानों में काम करके घर चलाने में मदद करती थीं, लेकिन अब पहचान पत्र के अभाव में उनके लिए नौकरी करना संभव नहीं रहा.

सुरैया का जन्म कराची में हुआ है, लेकिन उनके पास ऐसा कोई सबूत नहीं है जो साबित कर सके कि उनके माता-पिता बांग्लादेश से आए थे.

उन्होंने बताया, "एक दफ़्तर से दूसरे और दूसरे से तीसरे का चक्कर लगा लगाकर, अंत में तंग आकर वहां जाना ही छोड़ दिया है, हमने कोई चोरी की है या चेहरे पर तालिबान का निशान है तो बताएं".

सुरैया 100 गज ज़मीन पर बने चार कमरों में से एक छोटे से कमरे में रहती हैं. यहां हर कमरे में एक परिवार रहता है.

सुरैया के मुताबिक़, "कारखाने वाले भी कहते थे कि पहचान पत्र लाओ. अब शादी हो गई है, तो बच्चों को भी कार्ड की ज़रूरत होगी. इसके बिना तो हॉस्पिटल में इलाज भी संभव नहीं होगा".

सुरैया

इन कॉलोनियों में रहने वालों ने हाल ही में हुए स्थानीय चुनावों में पहचान पत्र को ही मुद्दा बनाकर वोट डाला था, ताकि इस समस्या का समाधान हो सके.

इसमें इलाक़े में केबल नेटवर्क चलाने वाले फ़िरोज़ ख़ान ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर यूनियन कमेटी के चेयरमैन का चुनाव लड़ा और एमक्यूएम उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की.

फ़िरोज़ ख़ान के मुताबिक़, उनके पास ऐसी महिलाएं आती थीं, जिनके पहचान पत्र की मियाद पूरी हो चुकी थी और कारखाना प्रशासन ने उन्हें आगे काम पर रखने से इनकार कर दिया था. इसी हालात से दुखी होकर उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया.

चुनावों में जीत के बाद फ़िरोज़ ख़ान पहचान पत्र की समस्या को ख़त्म कराने के लिए मुस्लिम लीग (एन) में शामिल हो गए. मुस्लिम लीग के नेताओं ने उनकी मुलाक़ात कुछ अधिकारियों से कराई है, लेकिन यह समस्या फिलहाल बनी हुई है.

फ़िरोज़ ख़ान के मुताबिक़, "बांग्लादेश से पलायन के समय हमें नई राष्ट्रीयता का प्रमाणपत्र दिया गया था, जिसे 30- 40 साल हो गए हैं. इस दौरान कुछ लोगों से यह काग़ज़ गुम हो गया या जल गया या फिर किसी के पास यह मौजूद नहीं है. इसी प्रमाण पत्र की वजह से मुश्किल खड़ी हो रही है".

1980 के दशक में हुए भाषाई दंगों के चपेट में ये कॉलोनियां भी आई थीं और दो बार यहां के मकानों में आग लगा दी गई थी. बिहारी समुदाय का कहना है कि उस आगजनी में उनके काग़ज़ात जल गए थे.

यूनियन कमेटी के चेयरमैन फ़िरोज़ ख़ान का कहना है कि उनका कोई आदमी आतंकवाद या किसी अपराध में शामिल नहीं है, इसे स्थानीय थाने या एसएसपी से भी पता किया जा सकता है.

पहचान के आधार पर ही इस उपमहाद्वीप का कई बार बंटवारा हुआ है, लेकिन बिहारी सहित कई समुदाय आज भी पाकिस्तान में अपनी पहचान सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं.

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