सीरिया में रूस-ईरान तो चिंता में सऊदी अरब

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- Author, ज़ैनुल आबिद
- पदनाम, बीबीसी मॉनिटरिंग
सीरिया की जंग के साए में सऊदी अरब और ईरान एशियाई तेल बाज़ारों पर कब्ज़े की कोशिश में हैं और एक-दूसरे से मुक़ाबला कर रहे हैं.
सऊदी अरब को डर है कि उसका प्रतिद्वंद्वी ईरान इन बाज़ारों में फिर से अपनी पैठ बना सकता है.
ईरान ने एक तरफ पश्चिमी देशों के साथ परमाणु करार किया है, तो दूसरी तरफ रूस का सहयोगी होना उसके लिए फ़ायदेमंद होगा और वो सऊदी अरब के एकाधिकार को चुनौती दे सकता है.
सऊदी अरब ने पिछले साल अपना तेल उत्पादन घटाने से इनकार कर दिया था, जिससे दुनियाभर में कच्चे तेल की कीमतें अस्थिर हो गईं.
इसका खामियाज़ा सबसे ज्यादा ईरान और रूस को झेलना पड़ा है.
सऊदी अरब का बड़ा निवेश

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सऊदी अरब ने एशियाई तेल बाज़ारों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कई उपायों की घोषणा की है. इनमें भारत और चीन जैसे देशों के लिए कीमतें कम करना भी शामिल है.
इसी महीने सऊदी तेल मंत्री अली अल नियामी ने भारतीय अख़बार द इकोनॉमिक टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि उनका देश भारत में कितने बड़े निवेश की इच्छा रखता है.
अल नियामी ने इन आरोपों से भी इनकार किया कि सऊदी अरब एशिया को ‘प्रीमियम दर’ पर तेल बेचना चाहता है.
सऊदी की तेल नीति
सऊदी अरब ने अपनी सरकारी तेल कंपनी सऊदी एरेमको का भारत में दफ्तर खोलने की योजना के बारे में भी बताया.
तो क्या सऊदी अरब की नीति काम कर रही है?

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विश्लेषकों का मानना है कि सऊदी अरब ने एशियाई बाज़ारों में अपनी घटती हिस्सेदारी को रोकने में सफलता पाई है.
एक वक्त था जब सऊदी अरब भारत और चीन के लिए सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश था लेकिन अब ये देश नाइजीरिया और रूस पर ज्यादा निर्भर हैं.
हालांकि सऊदी अरब की नई नीति उसे अपनी मौजूदगी बनाए रखने में मददगार साबित हो रही है.
इतना ज़रूर है कि विश्लेषक लंबे समय तक इस नीति का फायदा होने पर संदेह जता रहे हैं.
ईरान के लक्ष्य

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इसी साल जुलाई में जब ईरान ने पश्चिमी देशों के साथ परमाणु करार किया तो उसे उम्मीद थी कि वो अपने पुराने तेल खरीदारों को दोबारा हासिल कर लेगा.
हालांकि अभी ये उम्मीद पूरी होती नहीं दिख रही है.
तेल संसाधनों से पैसा जुटाने की ईरान की उम्मीदें घटती कीमतों के कारण पूरी नहीं हो पा रहीं. इन कीमतों पर सऊदी अरब का नियंत्रण है.
तेहरान ने तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक के पूरे बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी फिर से बहाल करने की मांग की है.
ईरान के तेल मंत्री बिज़हान ज़ांगानेह का कहना है कि उनका देश जानता है कि इसे कैसे हासिल करना है.
ईरान पर जब प्रतिबंध लगे तब इसके प्रतिद्वंद्वी इराक़, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने अपना उत्पादन बढ़ाकर इसके प्रमुख एशियाई खरीदारों को अपनी ओर खींच लिया.
इनमें भारत और चीन भी शामिल है.
ईरान का चार सूत्री कार्यक्रम

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ईरान ने अपने एशियाई खरीदारों को फिर से लुभाने के लिए चार सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की है.
इसमें ईरान के बंदरगाहों पर मौजूद टैंकरों के 5 या 6 करोड़ बैरल तेल को प्रमुख एशियाई देशों को कम कीमत पर बेचने की बात भी शामिल है.
इसके अलावा ईरान ने तेलों की तिमाही कीमतों को भी तीन साल के सबसे निचले स्तर पर ला दिया है.
जानकार मानते हैं कि इसके बावजूद ईरान अपनी खोई ज़मीन का एक सीमित हिस्सा ही हासिल कर पाएगा. ख़ासतौर से कुछ ओपेक देशों से इसकी असहजता और इस संगठन पर सऊदी अरब के नियंत्रण को देखते हुए.
इस्राइली अख़बार यरुशलम मिडा में विश्लेषक योसी मान लिखते हैं, ''आने वाले सालों में अगर मांग नहीं बढ़ी और ओपेक के सदस्य देशों के बीच बाध्यकारी ढांचा नहीं बना तो हमें सऊदी अरब और ईरान के बीच टकराव देखने को मिल सकता है.’’
पुतिन का बदला

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सऊदी अरब ने पिछले साल जब ये घोषणा की कि वो तेल की सप्लाई में कटौती नहीं करेगा जिसका नतीजा कीमतों में गिरावट के रूप में सामने आया तो उसका एक लक्ष्य रूस को सज़ा देना भी था.
सऊदी की नजर में ये सज़ा सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद को समर्थन की कीमत थी. विश्लेषकों ने तभी ये अनुमान जता दिया था कि ये फैसला उलटा पड़ सकता है और रूस सीरिया में सऊदी अरब का विरोध और सख़्ती से करेगा.
सीरिया में ईरान के सहयोग के साथ असद के विरोधियों पर हवाई हमले करके रूस बस यही कर रहा है.
सऊदी को आशंका

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अब सऊदी अरब को डर है कि रूस ओपेक के उन देशो के साथ गठजोड़ कर लेगा जो सऊदी अरब से खुश नहीं हैं. इसके साथ ही रूस की ये भी कोशिश होगी कि वो चीन और भारत के बाज़ारों में सऊदी अरब की हिस्सेदारी में कमी ला दे.
मौजूदा परिस्थिति दोनों पक्षों के लिए नुकसानदेह है और ऐसा लगता है कि इसे बदलने के लिए सभी फिक्रमंद हैं. पिछले हफ़्ते रूस और सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक गतिविधियां काफी तेज रहीं. दो वरिष्ठ सऊदी मंत्रियों ने भी मॉस्को का दौरा किया.
रूस ने ये भी कहा है कि वह सऊदी अरब और ओपेक सदस्यों के साथ संकट के समाधान के लिए बातचीत को तैयार है. ध्यान देने की बात ये है कि सऊदी अरब भी रूसी हमलों की आलोचना में उतना मुखर नहीं है.
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