जब मोर्चे पर डटे फौज़ियों को मिली लाखों चिट्ठियां

इमेज स्रोत, British Postal Museum Archive
ब्रिटेन की डाक सेवा ने पहले विश्व युद्ध के दौरान सैनिकों तक एक सप्ताह में 1.2 करोड़ पत्र पहुंचाए. इनमें से ज्यादातर सैनिक मोर्चे पर तैनात थे. युद्ध के दौरान पत्र पहुंचाने के इस अभूतपूर्व अभियान के बारे में ब्रिटेन के पूर्व गृह सचिव एलन जॉनसन का लेख. एलन जॉनसन खुद भी डाकिया रह चुके हैं.
पश्चिमी मोर्चे पर तैनात एक सैनिक ने 1915 में लंदन के एक समाचार पत्र को लिखा कि वो अकेलापन महसूस कर रहा है और अगर उसे तत्काल कुछ पत्र मिलते हैं तो बढ़िया होगा.
समाचार पत्र ने उस सैनिक और उसकी रेजीमेंट का नाम प्रकाशित किया और एक सप्ताह के भीतर उसे 3,000 पत्र, 98 बड़े पार्सल और छोटे पैकेट से भरे तीन मेलबैग मिले.
अगर उस सैनिक के पास सभी पत्रों के जवाब भेजने का समय होता तो वो ऐसा जरूर करता, लेकिन उससे जितना संभव था उसने उतने पत्रों का जवाब भेजा. वह लड़ाई के मैदान में डटा हुआ था. उसके जवाबों को एक या दो दिन के भीतर ब्रिटेन भेज दिया गया.
<link type="page"><caption> पढ़ें: किसने भेजी जहर से भरी पाती</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2013/04/130417_letter_ricin_ra.shtml" platform="highweb"/></link>
डाक का महत्व
आखिर पहले विश्व युद्ध के दौरान इतनी कुशलता के साथ मुख्य डाकघर (जीपीओ) सैनिकों को डाक सेवाएं कैसे उपलब्ध करा सका जो एक अद्भुत साहस और सफलता की कहानी है.
युद्धरत सैनिकों के मनोबल के लिए ऐसी त्वरित डाकसेवा अनिवार्य थी और ब्रिटिश सेना इसके लिए सजग थी.
सेना लड़ाई के मोर्चों तक पत्र पहुंचाने के काम को भी उतनी ही गंभीरता से ले रही थी, जितनी कि रसद और गोला-बारूद पहुंचाने के काम को.

इमेज स्रोत, British Postal Museum Archive
वर्ष 1899 में हुए बोअर युद्ध ने ही सैनिकों के मन में इस बात की उम्मीद जगा दी थी कि वो युद्ध के दौरान भी अपने परिवार के संपर्क में रह सकेंगे, लेकिन पहले विश्व युद्ध के दौरान हालात अनुमान से काफी अधिक चुनौतीपूर्ण थे.
युद्ध शुरू होने से पहले ही जीपीओ का काम काफी बढ़ चुका था. इसके कर्मचारियों की संख्या ढाई लाख से अधिक थी और कुल राजस्व 3.2 करोड़ पाउंड था.
<link type="page"><caption> पढ़ें: आखिरकार 46 साल बाद पहुंचेगी डाक! </caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/08/120830_diplomatic_bag_pa.shtml" platform="highweb"/></link>
रिकार्ड पत्राचार
ब्रिटिश डाक संग्रहालय और अभिलेखागार (बीपीएसए) के मुताबिक इन आंकड़ों के साथ ये ब्रिटेन का सबसे बड़ा आर्थिक उपक्रम था और दुनिया में सबसे अधिक लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा था.
जब युद्ध अपने चरम पर था तो डाक विभाग को सामान्य पत्राचार के अतिरिक्त 1.2 करोड़ पत्रों से जूझना पड़ रहा था और प्रत्येक सप्ताह सैनिकों को लाखों पार्सल भेजे जाते थे.

इमेज स्रोत, British Postal Museum Archive
मैं जब डाकिया बना तो जीपीओ लगभग 50 साल पहले प्रथम विश्व युद्ध के दौर की तरह ही काम कर रहा था. चिट्ठियों को जमा करना, उनकी छंटाई, उन्हें भेजने के तरीके में थोड़ा ही बदलाव हुआ है. चिट्ठियों की छंटनी हाथ से की जाती थी.
जब मैंने 15 साल की उम्र में 1965 में काम शुरू किया तो पहले विश्व युद्ध का सबसे कम उम्र का सैनिक भी सेवानिवृत्ति की कगार पर पहुंच चुका था. युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में सैनिक डाक विभाग में भर्ती हुए.
<link type="page"><caption> पढ़ें: जब क्वीन का सिर उल्टा छप गया</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/02/120223_queen_postal_sdp.shtml" platform="highweb"/></link>
रॉयल इंजीनियर्स
उनकी भाषाशैली भी सैनिकों जैसी ही थी. पोस्टमैन काम पर नहीं जाता, वो "कर्तव्यपालन" के लिए जाते हैं. हम छुट्टियां नहीं लेते हैं, हम "वार्षिक अवकाश" लेते हैं. हम नौकरी नहीं कर रहे हैं, हम "सेवा" कर रहे हैं.
लाखों पत्रों को एक जगह से दूसरी जगह सुरक्षित ढंग से और तेजी से ले जाने की हमारी योग्यता जीपीओ के लिए गर्व की बात थी. गर्व की यह भावना रॉयल इंजीनियर्स (डाक विभाग) या आरईपीएस के जवानों के कारण और भी बढ़ गई. ये एक अल्पकालीन रिजर्व यूनिट थी, जिन्हें सैन्य प्रशिक्षण का थोड़ा ज्ञान था.
प्रथम विश्व युद्ध के शुरू होते ही डाककर्मियों की इस इकाई को सेना में शामिल कर लिया गया था, लेकिन सेना का इस पर मामूली सा नियंत्रण ही था. इस अभियान का नियंत्रण जीपीओ ने जरिए होता था.
यहां तक कि सेना को भेजी जाने वाले डाकों के बारे में संसद में पूछे गए सवालों के जवाब युद्ध मंत्री के बजाए महाडाकपाल ने दिए.
<link type="page"><caption> पढ़ें: बड़ी मुश्किल से डाकिया डाक लाया</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/southasia/2011/09/110930_afghanistan_post_ms.shtml" platform="highweb"/></link>
डाक कार्यालय

इमेज स्रोत, British Postal Museum Archive
युद्ध शुरू होते ही इस इकाई ने छंटाई के लिए लंदन में एक कार्यालय शुरू किया. इसमें 2,500 कर्मचारी थे, जिनमें से ज्यादातर महिलाएं थीं.
जावक पत्रों (आउटवार्ड मेल) की छंटाई सेना की इकाई करती थी. प्रत्येक सुबह जहाजों और बटालियन की सही स्थिति के बारे में बताया जाता था ताकि पत्र उचित स्थान पर पहुंच सकें.
इन पत्रों को पहुंचाने के लिए रेलगाड़ियों, सेना की गाड़ी और पानी के जहाजों तक का इस्तेमाल किया जाता था.
जब ये अभियान अपने चरम पर था तो इसने एक सप्ताह में 1.2 करोड़ पत्र और दस लाख पार्सल पहुंचाए.
<link type="page"><caption> पढ़ें: जादुई किरदारों पर डाक टिकट</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2011/03/110309_stamps_potter_va.shtml" platform="highweb"/></link>
जिम्मेदारी
गालीपोल्ली में सैनिकों को जितने पत्र भेजे जाते थे, उससे कहीं अधिक पत्र वहां से इसलिए वापस आते थे क्योंकि जिन सैनिकों को ये पत्र भेजे गए थे, उनकी मौत हो चुकी थी. हालांकि डाक विभाग यह सुनिश्चित करता था कि ये पत्र उन सैनिकों के परिवारों को सैनिकों के निधन की आधिकारिक सूचना से पहले न मिलें.
युद्ध के लिए भेजे गए इन डाककर्मियों को राइफल चलाने के बजाए पत्र और पार्सल पहुंचाना अधिक पसंद था, लेकिन उनका काम युद्ध के समान ही महत्वपूर्ण था.
वास्तव में सैनिकों और उनके प्रियजनों के बीच होने वाला पत्राचार एक हथियार था. जिन्होंने इस बात को समझा उन्हें युद्ध के दौरान इसका काफी फायदा मिला.
<bold>(बीबीसी हिंदी का एंड्रॉयड मोबाइल ऐप डाउनलोड करने के लिए <link type="page"><caption> यहां क्लिक</caption><url href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi" platform="highweb"/></link> करें. आप हमें <link type="page"><caption> फ़ेसबुक</caption><url href="https://www.facebook.com/bbchindi" platform="highweb"/></link> और <link type="page"><caption> ट्विटर</caption><url href="https://twitter.com/BBCHindi" platform="highweb"/></link> पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं)</bold>












