जहाँ बाल मज़दूर नहीं डॉक्टर करते हैं मज़दूरी

भारत हो या उज़्बेकिस्तान या अन्य इलाक़े, कई ऐसे देश हैं जहाँ छोटे बच्चे खेतों और फैक्ट्रियों में काम करने को मजबूर हैं.
उज्बेकिस्तान की फैक्ट्रियों में भी हालात कुछ ऐसे ही थे. लेकिन इस साल वहाँ मज़दूरी करने वाले बच्चे स्कूल जा रहे हैं और खेतों में उनका काम नर्स, सर्जन और दफतरों में काम करने वाले लोग करने को मजबूर हैं- वो भी बिना पैसों के.
दरअसल एडिडास और मार्कस एंड स्पेंसर जैसी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने बाल मज़ूदरी के विरोध में उज़्बेकिस्तान से कपास लेने से मना कर दिया.
इसके बाद वहाँ बच्चों को तो मज़दूरी से हटा लिया गया है लेकिन सरकार ये काम करने के लिए डॉक्टरों को जबरन खेतों में भेज रही है.
<bold>डॉक्टर साहब तो खेत में हैं..</bold>
<bold/>मलवीना (बदला हुआ नाम) राजधानी ताशकंद में एक क्लिनिक में नर्स है और वो इस फैसले से बेहद नाराज़ हैं.
वे कहती हैं, “मेरी उम्र 50 साल है. मुझे दमे की बीमारी है. हमें हाथ से कपास तोड़नी पड़ती है और इसके बदले में पैसे भी नहीं मिले. मैं पिछले 15 दिनों से एक गाँव में यही काम कर रही थी. वरिष्ठ से वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी को भी काम करना पड़ा.”
मलवीना बताती हैं, “एक मरीज़ ने सर्जन को फ़ोन किया जो हमारे साथ खेत में ही था. मरीज़ का कहना था कि आपने पिछले हफ्ते मेरा ऑपरेशन किया था, अब मुझे बुखार है, मैं क्या करूँ.”
<bold>खेतों में काम करो वरना..</bold>

<bold/>उज़्बेकिस्तान में कपास की खेती अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है. उत्पादन सरकारी नियंत्रण में होता है और खेतों से जल्द से जल्द कपास इकट्ठा करने के लिए सरकार सोवियत-स्टाइल में कपास तोड़ने का कोटा तय देती है.
इसलिए जब कंपनियों ने बाल मज़दूरों द्वारा इकट्ठा कपास खरीदने से मना कर दिया तो उज़्बेक प्रधानमंत्री ने बाल मज़दूरी पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन शिक्षकों, सफाई कर्मचारियों और डॉक्टरों को ये काम जबरन करना पड़ रहा है.
रिपोर्टों के मुताबिक जब मरीज़ आते हैं तो उन्हें वापस भेज दिया जाता है क्योंकि डॉक्टर तो खेत में होते हैं.
बीबीसी को उज़्बेकिस्तान से रिपोर्टिंग की अनुमति नहीं है. मलवीना बताती हैं कि जब खेतों में काम करने की बारी आई थी तो क्लिनिक पर किसी ने पीठ दर्द तो किसी ने बल्ड प्रेशर का बहाना बनाया. लेकिन हेड डॉक्टर का साफ कहना था कि खेत नहीं जाने पर नौकरी चली जाएगी.
<bold>पैसे भी नहीं मिलते</bold>
मलवीना को सुबह चार बजे उठाया जाता है और एक घंटे तक चलने के बाद काम शुरु होता है. शाम को छह बजे काम खत्म होता है.
हर किसी को 60 किलोग्राम कपास इकट्ठा करनी होती है और अगर लक्ष्य पूरा न हो तो स्थानीय लोगों से खरीदकर लक्ष्य पूरा करना पड़ता है.
मलवीना और साथी लोग अपने पैसे से किराया देकर रहते हैं और नहाने धोने के लिए अलग से पैसे लगते हैं.
मलवीन जैसे कई लोग हैं. समरक़ंद इलाक़े के एक प्रोफेसर ने बताया कि वे काफी बीमार हैं और वे एक मज़ूदर को 100 डॉलर देते हैं ताकि वो उनकी जगह कपास तोड़ सके.
हालांकि वे ख़ुश हैं कि इस साल बच्चों को खेतों में काम नहीं करना पड़ा.
कॉटन कैंपेन संस्था की मैनेजर वेलेंटिना कहती हैं कि बाल मज़ूदरी कई देशों में होती है लेकिन उज़्बेकिस्तान में सरकार ही ये करवाती है.












