तुर्की और इसराइल के बीच कूटनीतिक संबंध बहाल, फ़लस्तीनी क्षेत्र के मुद्दे पर क्या बोला तुर्की?

तुर्की और इसराइल चार साल के गतिरोध के बाद एक-दूसरे के साथ राजनयिक रिश्ते बहाल कर रहे हैं.

दोनों देशों के बीच बीते कई महीनों से संबंध में आ रहे बदलाव के बाद बुधवार को तुर्की और इसराइल ने कहा कि वे एक-दूसरे के देश में अपने-अपने राजदूत और काउंसल जनरलों की बहाली करेंगे.

इसे इसराइल के क्षेत्रीय ताक़तों के साथ रिश्ते सुधारने के क़दम के रूप में देखा जा रहा है. दो साल पहले इसराइल ने संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के साथ अपने रिश्ते सामान्य करने के लिए ऐतिहासिक अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर किया था.

उस समझौते को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 'नए मध्य पूर्व की शुरुआत' कहकर इसकी तारीफ़ की थी. उस समझौते पर हस्ताक्षर व्हाइट हाउस में आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रपति ट्रंप की मौजूदगी में हुआ था.

तब ट्रंप ने कहा था, "इसराइल, यूएई और बहरीन अब एक-दूसरे के यहाँ दूतावास बनाएंगे, राजदूत नियुक्त करेंगे और सहयोगी देशों के तौर पर काम करेंगे. वो अब दोस्त हैं."

इसराइल के प्रधानमंत्री येर लेपिड और तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन के बीच हुई बातचीत के बाद दोनों देशों के पूर्ण कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की घोषणा की गई है. इसराइल के प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से ये जानकारी दी गई है.

राजनयिक संबंधों की ये बहाली बीते एक साल के दौरान संबंधों में आए सकारात्मक परिवर्तन की वजह से है. इस दौरान इसराइली राष्ट्रपति हर्ज़ोग ने तुर्की की यात्रा की और दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने भी पारस्परिक यात्राएं कीं.

इसराइल के पीएम लेपिड ने कहा है कि क्षेत्रीय स्थिरता के लिए रिश्ते बहाल होना काफ़ी अहम है. उन्होंने कहा, ''इसराइल के नागरिकों के लिए ये बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक समाचार भी है. हम दुनियाभर में इसराइल के रुख़ को और मज़ूबत करना जारी रखेंगे. पिछले साल से ही दोनों देश इस दिशा में काम कर रहे थे.'' इसी क्रम में पीएम लेपिड ने तुर्की की यात्रा की थी.

तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन से भी उनकी बात हुई थी. इसराइल के प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि राजनयिक रिश्ते बहाल होने से आर्थिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों में भी मज़बूती आएगी. साथ ही क्षेत्रीय स्थिरता भी बढ़ेगी. इसराइल के कूटनीतिक रिश्ते बहाल होने के बीच तुर्की ने स्पष्ट किया है कि इसका मतलब ये नहीं है कि वो फ़लस्तीनियों को अपना समर्थन छोड़ देगा.

2018 में ग़ज़ा में फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ इसराइल की हिंसक कार्रवाइयों के विरोध में तुर्की ने अपने राजदूत को तेल अवीव से वापस बुला लिया था.

बीते वर्ष दिसंबर में तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने इसराइल को लेकर दोस्ताना बयान दिया था. उसके बाद से ही दोनों देशों के बीच रिश्ते में सुधार होने की उम्मीदें दिख रही थीं.

तब अर्दोआन ने कहा था, "हमें इस्लामोफ़ोबिया, यहूदियों से नफ़रत और पश्चिमी देशों में विदेशियों के साथ भेदभाव को लेकर साथ आने की ज़रूरत है. हमें साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है ताकि मध्य-पूर्व में शांति और स्थिरता को बढ़ावा दिया जा सके."

फ़लस्तीन पर मतभेद को लेकर तब अर्दोआन ने कहा था, "फ़लस्तीन को लेकर इसराइल के साथ मतभेद हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था, व्यापार, पर्यटन और विज्ञान के क्षेत्र में हमारा संबंध अपनी गति से बढ़ रहा है. शांति प्रक्रिया में इसराइल का रुख़ रचनात्मक है और इससे चीज़ों को सामान्य करने में मदद मिलेगी."

तुर्की और इसराइल के बीच रिश्ते में 2002 के बाद से उतार-चढ़ाव रहे हैं. फ़लस्तीन मुद्दे को लेकर तुर्की हमेशा इसराइल पर हमलावर रहा है. इस दौरान राजनयिक संबंधों में गतिरोध आए या पूरी तरह से रोक दिए गए, लेकिन द्विपक्षीय रिश्ते कभी ख़त्म नहीं किए गए.

तुर्की के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि वे फ़लस्तीनी मुद्दे को नहीं छोड़ रहे हैं. तुर्की के विदेश मंत्री ने कहा कि तुर्की और इसराइल अपने राजदूतों और वाणिज्य दूतों की नियुक्ति करेंगे. लेकिन तुर्की फ़लस्तीनियों के अधिकार की बात करता रहेगा.

दोनों देशों के बीच तल्ख़ रिश्तों के केंद्र में रहा है फ़लस्तीन

तुर्की और इसराइल के बीच संबंध में फ़लस्तीन एक सबसे अहम मुद्दा रहा है. 2018 से पहले भी कम-से-कम तीन बार तुर्की, इसराइल के साथ अपने राजनयिक संबंध में गिरावट या उसे ख़त्म करने की कोशिशें कर चुका है. उन सभी मौकों पर मुद्दा फ़लस्तीन ही रहा है.

पहली बार 1956 में स्वेज़ नहर के मुद्दे पर जब ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन से इसराइल सिनाई रेगिस्तान पर हमलावर हुआ तब तुर्की ने विरोध जताते हुए अपने राजनयिक संबंधों को घटा दिया था. दो साल बाद यह गतिरोध तब कम हुआ जब 1958 में इसराइली प्रधानमंत्री डेविड बेन गोरियान और तुर्की के तब के प्रमुख अदनान मेंदरेस के बीच एक ख़ुफ़िया मुलाक़ात हुई और दोनों देशों के बीच रक्षा और ख़ुफ़िया सहयोग स्थापित करने पर सहमति बनी.

दोनों देशों के बीच संबंधों में गिरावट का दूसरा मौका 1980 में आया. तब इसराइल ने पूर्वी येरुशलम पर क़ब्ज़ा किया था. तुर्की ने दोबारा से अपने राजनयिक संबंध को घटा दिया.

अगले एक दशक से भी अधिक समय तक दोनों देशों के बीच संबंध ठंडे रहे. फिर जब 90 के दशक में ओस्लो शांति समझौता हुआ तो दोनों देशों के बीच संबंध बहाल हुए. इसके बाद दोनों देशों के बीच व्यापार और रक्षा क्षेत्र में कई समझौते भी हुए.

साल 2000 में इसराइल ने तुर्की से पानी ख़रीदने का एक समझौता किया, लेकिन ये अधिक दिनों तक नहीं चल सका. दोनों देशों के बीच कई रक्षा समझौते हुए जिनमें तुर्की को ड्रोन और निगरानी उपकरण देना भी शामिल था.

रक्षा के क्षेत्र में संबंध बेहतर बनाने की वजह यह थी कि तुर्की को रक्षा उपकरणों की ज़रूरत थी, तो इसराइल अपने रक्षा उपकरणों को बेचने के लिए ख़रीदार ढूंढ रहा था.

तुर्की में नवंबर 2002 में दक्षिणपंथी जस्टिस ऐंड डिवेलपमेंट पार्टी (एकेपी) सत्ता में आई और रेचेप तैय्यप अर्दोआन राष्ट्रपति बने. यहां से दोनों देशों के संबंध में नए मोड़ आने शुरू हुए.

2005 में अर्दोआन ने इसराइल का दौरा किया. उन्होंने तब के इसराइली प्रधानमंत्री एहुद ओलमर्ट को तुर्की आने का न्योता भी दिया.

लेकिन दिसंबर 2008 में दोनों देशों के संबंध ने एक बार फिर करवट लेना शुरू किया. उन दिनों इसराइली प्रधानमंत्री शिमॉन पेरेज़ अंकारा के दौरे पर थे. उनके वहां से लौटने के तीन दिनों बाद ही इसराइल ने ग़ज़ा पर चढ़ाई शुरू कर दी. इसे 'ऑपरेशन कास्ट लेड' का नाम दिया गया था. हमास से विशेष हमदर्दी होने के कारण अर्दोआन को इस कार्रवाई से ज़बरदस्त धक्का लगा और उन्होंने इसे 'स्पष्ट रूप से धोखा' बताया. तब तुर्की ने अपने राजदूत इसराइल से बुला लिए थे.

2010 में इसराइली फ़ौज की ग़ज़ा में घेराबंदी के दौरान मावी मरमरा की घटना हुई. तुर्की से एक मानवाधिकार संगठन मावी मरमरा जहाज़ पर मानवीय सहायता लेकर जा रहा था. इसराइली सेना ने उस पर हमला बोल दिया. इसमें तुर्की के 10 नागरिक मारे गए. इससे दोनों देशों के बीच संबंध बिल्कुल ख़त्म हो गए थे.

जब तुर्की ने इसराइल को स्वीकारा था

इसराइल और तुर्की के संबंधों की शुरुआत इसराइल के गठन के बाद से ही शुरू हो गई थी.

मुस्लिम बहुल देशों में सबसे पहला तुर्की वह देश था जिसने 1949 में इसराइल को एक देश के रूप में स्वीकार करने की घोषणा की थी.

तुर्की ने संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीनी इलाक़ों के बांटने का विरोध करने के बावजूद इसराइल को स्वीकार करने में देर नहीं की थी और इतिहासकारों की नज़र में उसकी सबसे बड़ी वजह तुर्की का एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होना था.

भौगोलिक निकटता और सामान्य हितों के कारण, दोनों देशों के बीच आर्थिक, पर्यटन, व्यापार और रक्षा क्षेत्रों में संबंध बढ़ते चले गए.

लेकिन इसराइल के अस्तित्व से पहले उस्मानिया साम्राज्य और यहूदियों के बीच संबंधों की कहानी लंबी है.

मुस्लिम वर्ल्ड की लीडरशिप चाहते हैं अर्दोआन

2002 में तुर्की के राष्ट्रपति बनने के बाद से रेचेप तैयप अर्दोआन को वहां का अब तक का दूसरा सबसे ताक़तवर नेता माना जाता है.

उनसे पहले सिर्फ़ तुर्की के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क या मुस्तफ़ा कमाल पाशा का नाम आता है.

वो मुस्लिम राष्ट्रों के हितैशी बनना चाहते हैं और इस दिशा में वो देश से आगे अंतरराष्ट्रीय स्तर की घटनाओं पर भी अपनी दख़ल रखते हैं.

हालांकि जानकार मानते हैं कि दुनिया भर में दो मुल्क मुस्लिम देशों के नेता बनना चाहते हैं- सऊदी अरब और तुर्की.

जब भी सऊदी अरब किसी मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देता है, तुर्की उसे काटने की कोशिश करता है.

वैसे तुर्की में अर्दोआन के ऊपर कोई नहीं है. एक जनमत संग्रह के बाद तुर्की में प्रधानमंत्री का पद ख़त्म कर दिया गया था और उनकी सभी कार्यकारी शक्तियों को राष्ट्रपति को स्थानांतरित कर दिया गया था.

अब अर्दोआन ही वो अकेले शख़्स हैं जो तुर्की में वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर, मंत्रियों, जजों और उप-राष्ट्रपति की नियुक्ति करते हैं.

नये संविधान के मुताबिक़, अर्दोआन न सिर्फ़ अगले कार्यकाल तक सरकार के सर्वेसर्वा बने रहेंगे बल्कि वो साल 2023 में भी चुनाव लड़ सकते हैं और जीतने पर साल 2028 तक सत्ता में बने रह सकते हैं.

तुर्की की सत्ता के शिखर तक पहुंचने से पहले अर्दोआन जेल भी गए, 11 साल तक प्रधानमंत्री रहे और हिंसक तख़्तापलट की कोशिशों का सामना भी किया.

उनके समर्थकों में ज़्यादातर लोग रूढ़िवादी मुस्लिम हैं. इनका कहना है कि उनके नेता ने तुर्की में आर्थिक सुधार किए और अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश को सम्मानजक स्थान दिलाया.

अब तुर्की और इसराइल के बीच राजनयिक संबंधों की बहाली को अर्दोआन के क़द और क्षेत्रीय कूटनीति के लिए अहम माना जा रहा है.

(कॉपी - अभिजीत श्रीवास्तव)

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